स जीवेश्च मृतश्चैव नववचित्सुखमेधते।।
हिंदी में भावार्थ-जो व्यक्ति अहिंसक तथा किसी को न सताने वाले जीवों को अपने सुख के लिये मारता है वह अपनी जिंदगी तथा मौत के बाद भी सुख प्राप्त नहीं करता।
जो बनधन्वधक्लेशाान्प्राणिनां न चिकीर्षति।
स सर्वस्य हिनप्रेप्सुः सुखमत्यन्तमश्नुते।।
हिंदी में भावार्थ-ऐसा व्यक्ति जो किसी का वध तो दूर दूसरे प्राणियों को बांधकर भी नहीं रखता न ही पीड़ा देता, सभी के हित की कामना करता है वह सदैव सुखी रहता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हर कोई अपने हित और सुख की कामनाओं की पूर्ति में लगा रहता है यह किसी को ज्ञान नहीं है कि सभी के हित में ही हमारा हित है। सभी लोग पेड़ों और जलाशयों से सुख तो स्वयं लेना चाहते हैं पर लगाने बनाने के लिये उनके पास न समय है न इच्छा। कहने का तात्पर्य यह है कि लोग धरती और अन्य व्यक्तियों का दोहन करना चाहते हैं पर किसी के लिये स्वयं कुछ नहीं करते। कुंऐं से पानी निकालना है पर उसे भरने का जिम्मा दूसरे का हो तो बहुत अच्छा है-सभी यही सोचते हैं। इसी दोहन की प्रवृत्ति ने प्राकृतिक सुख के समस्त साधनों को सुखा दिया है।
हमें यह समझ लेना चाहिये कि इस संसार जीव तो सभी एक जैसे हैं पर मनुष्य को ही बुद्धि सभी से अधिक मिली है वह केवल इसलिये कि वह परमात्मा को इस दुनियां के संचालन में सहयोग दे पर हो रहा है इसका उल्टा! सभी मनुष्य यही सोचते हैं कि हम तो मनुष्य हैं और इस संसार के सर्वाधिक उपभोग के लिये ही हमें यह बुद्धि मिली है। हम देख रहे हैं कि समाज में प्राकृतिक और भौतिक साधनों के विषम वितरण ने जो वैमनस्य उत्पन्न किया है उसने हमारे समाज के समक्ष एक विशाल संकट उत्पन्न कर दिया है। यह संभव नहीं है कि हम तथा परिवार ही सदा सुखी रहे और बाकी समाज त्रस्त रहे। याद रखिये हम समाज के ही कुछ तत्वों द्वारा निष्काम भाव से किये गये सत्कार्यों का लाभ लेते हैं और बदले में वह दूसरे जरूरतमंद लोगों को लौटाना हमारा कर्तव्य बनता है। यह कभी नहीं हो सकता कि हम समाज और प्राकृति से लेते जायें पर दें कुछ नहीं।
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