Thursday, August 30, 2012

ऋग्वेद से सन्देश-मन में पवित्रता का भाव हो तो सफलता मिल जाती है (man mein pavitrata jaroori-rigved se sandesh)


              आशा निराशा जीवन में आती जाती रहती हैं।  मुख्य बात यह है कि आदमी खुशी में अधिक आनंद होकर चुप नहीं बैठ सकता तो गम उसे खामोश कर देते हैं।  अपने जीवन की सफलता के लिये आदमी अपनी शक्ति और पराक्रम को श्रेय देता है तो असफलता के लिये दूसरों को जिम्मेदार ठहराता है। सच बात तो यह है कि हर आदमी अपने कर्म का स्वयं ही जिम्मेदार होता है।
ऋग्वेद में कहा गया है कि
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यादृश्मिन्धपि तमपस्याया विदद् यऽस्वयं कहते सो अरे करत्

                    हिन्दी में भावार्थ- मनुष्य का हृदय जिस वस्तु में लगा रहता है वह उसे प्राप्त कर ही  लेता है। परिश्रम करने सारे पदार्थ प्राप्त किये जा सकते हैं।
अत्रा ना हार्दि क्रवणस्य रेजते यत्र मकतिर्विद्यते पूतबन्धीन।
हिन्दी में भावार्थ-जहां पवित्र बुद्धि का वास है वह हृदय के मनोरथ कभी व्यर्थ नहीं जाते।
         जब आदमी किसी विषय विशेष में हृदय लगाकर काम करता है तो उसे सफलता मिल ही जाती है। कुछ लोग अच्छे काम में भी अपना मन पवित्र नहीं रखते तब उनका परेशानी का सामना करना पड़ता है।  यह जीवन संकल्पों का खेल है इसलिये जब तक हम अपना हृदय, लक्ष्य तथा साधन पवित्र रखकर कार्य नहीं करेंगे तब तक सफलता नहीं मिलेगी।  सफलता का मूल मंत्र पवित्र तथा विचार की शुद्धता है। हमारे वेद शास्त्र इसी बात का संदेश देते हैं। जब भी कोई परिश्रम, ईमानदारी तथा पवित्रता से किया जाता है तो उसमें सफलता अवश्य मिलती है।  उसमें देर हो सकती है पर नाकामी मिलने की संभावना नहीं रहती।
लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


Friday, August 24, 2012

सामवेद से सन्देश- -कर्मशील मनुष्य से देवता खुश होते हैं (samdev se sandesh-karmashil manushya se devta prasann hote hain.)

         ब्रह्मा ने जब सृष्टि की रचना की तो देवता तथा मनुष्यों की उत्पति हुई।  उन्होंने कहा कि मनुष्य देवताओं की आराधना करें तो देवता मनुष्य को उसका  फल देंगे। अध्यात्म और सांसरिक विषयों के बीच जीव की देह पुल का काम करती है। सांसरिक विषयों में सहजता से संबंध रखना आवश्यक है। इसलिये आवश्यक है कि उन विषयों से संबंधित कार्य करते हुए हृदय में शुद्धि हो। सांसरिक विषयों में फल की कामना का त्याग नहीं किया जा सकता  पर उसके लिये ऐसे गलत मार्ग का अनुसरण भी नहीं किया जाना चाहिए जिससे बाद में संकट का सामना करना पड़े।  दूसरी बात यह भी है कि अपने कर्म के परिणाम की आशा दूसरे का दायित्व नहीं मानते हुए आत्मनिर्भर बनने का प्रयास करना चाहिए।। 
सामवेद में कहा गया है कि
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देवाः स्वप्नाय न स्पृहन्ति।
                    
देवाः सुन्वन्तम् इच्छान्ति। 
हिन्दी में भावार्थ-देवता कर्मशील मनुष्य को ही  प्रेम करते हैं।
           जीवन को सुचारु रूप से चलाने क्रे लिये कर्मशील होना आवश्यक है। आलस्य मनुष्य का शत्रु माना जाता है। देह से परिश्रम न करना ही आलस्य है यह सोचना गलत है वरन् मस्तिष्क को सोचने के ले कष्ट देने से बचना भी इसी श्रेणी में आता है। आधुनिक सुविधाभोगी जीवन ने आदमी की देह के साथ ही उसके मस्तिष्क की सक्रियता पर भी बुरा प्रभाव डाला है। लोग प्रमाद तथा व्यसन में अधिक रुचि इसलिये लेते हैं कि उनके मस्तिष्क को राहत मिले। यही राहत आलस्य का रूप है।  इससे बचना चाहिए। अध्यात्म ज्ञान प्राप्त करने यह आलस्य स्वमेव दूर होता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Wednesday, August 15, 2012

विदुर नीति-जैसे सा साथ तैसा व्यवहार ही धर्मं (vidru neeti-jaise ke sath taisa vyavahar)

    मनुष्य जीवन में समय का बहुत महत्व है।  समय का विभाजन समझने वाले अपने कर्म का सहजता से संपन्न कर सकते हैं।  प्रातःकाल का समय धर्म, दोपहर का अर्थ, सांयकाल का ध्यान चिंतन  तथा रात्रि को मो़क्ष यानि निद्रा के लिये हैं।  जब हम अर्थ के लिये कार्य करते हैं तब उस समय हमारे अंदर राजस कर्म के भाव होता है तब  उसके नियमों का पालन करना आवश्यक है।   राजस कर्म में जीवन यापन  के लिये धन कमाना होता है। उस समय हमारे अंदर अपनी देह के लिये भौतिक साधन जुटाना ही लक्ष्य होता है। ऐसे में हमारा वास्ता ऐसे लोगों से पड़ता है जो राजस बुद्धि से काम करते हैं जिनका लक्ष्य भी वही होता है।  उनसे सात्विकता की आशा व्यर्थ हैं।  उस समय जो कपट करे उसका प्रतिवाद करना चाहिये। जो ईमानदारी से पेश आये तो उसकी प्रशंसा करना चाहिए।
यस्मिन यथ वर्तते यो मनुष्यस्तस्मिस्तथा वर्तित्व्यं स धर्मेः।
मायाचारी मायया वर्तितव्यः साध्वाचारः साधुना प्रत्युपेयः।।

           हिन्दी में भावार्थ-जैसा व्यवहार दूसरा मनुष्य करे वैसा ही हमें भी करना चाहिए यही धर्म है। अगर कोई कपट से पेश आये तो उसका प्रत्युत्तर भी उसी तरह देना चाहिए। जिसका व्यवहार अच्छा हो उसे सम्मान देना चाहिए।
न निह्नवं मन्त्रतस्य गच्छेतफ संसृष्टमन्त्रस्य कुसङ्गतस्य।
न च ब्रुयान्नश्वसिमि त्वयीति सकारणं व्यपदेशं तु कुर्यात्।।

        हिन्दी में भावार्थ-जब कोई राजा दुष्ट सहायकों के साथ मंत्रणा कर रहा हो तब उस समय उसकी बात का प्रतिवाद न करे। उसके सामने अपना अविश्वास भी न जताये तथा कोई बहाना बनाकर वहां से निकल आयें।
           समाज में राज्य, अर्थ तथा धर्म के शिखर पुरुषों पर बैठे लोगों के साथ व्यवहार करते समय अपनी तथा उनकी स्थिति पर विचार करना चाहिए।  आजकल हर क्षेत्र में तामसी प्रवृत्ति के लोग सक्रिय हैं।  प्रकृति का नियम है कि सज्जन लोगों का संगठन सहजता से नहीं बनता क्योंकि उसकी उनको आवश्यकता भी नहीं होती। इसके विपरीत दुष्ट तथा स्वार्थी तत्वों का संगठन आसानी से बन जाता है।  ऐसे में अपने सार्वजनिक जीवन में इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हमारे व्यवहार में आने वाले लोगों का कर्म किस प्रकृत्ति के हैं।  जहां दुष्ट लोगों का समूह हो वहां अपनी बुद्धिमानी, चातुर्य तथा ज्ञान बघारना ठीक नहीं है।  चुपचाप वहां से निकल जायें।  ऐसे लोगों केवल अपना काम निकालने के लिये तत्पर होते हैं।  उनसे सात्विकता और सहृदय की आशा करना स्वयं को धोखा देने के अलावा कुछ नहीं है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Saturday, August 11, 2012

विदुर नीति-अपराध करने वाला ही दंड का भागी बनता है (vidur niti-apradha aur insan

        मनुष्य अकेला  पैदा होता है और उसकी मृत्यु भी अकेले ही होती है।  परिवार, रिश्तेदार और संगी साथियों में न कोई साथ पैदा होता है न ही मरता है।  इस बात तो तत्वज्ञानी जानते हैं इसलिये अपने पूरे जीवन में वह हर स्थिति में सात्विक मार्ग पर ही चलते हैं जबकि सामान्य मनुष्य परिवार, रिश्तेदार तथा संगीसाथियों से मान पाने के लिये नित्य कर्म में इस तरह लिप्त रहता है जैसे कि वह वह उसके साथ ही पैदा हुए और आसमान तक उसके साथ चलेंगे।
विदुरनीति में कहा गया है कि
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एकः पापनि कुकते फलं भुङक्ते महाजनः।
भोक्तासे विप्रमुच्यन्ते कर्ता दोषेण लिप्यते।।
           हिन्दी में भावार्थ-मनुष्य स्वयं पाप करता है पर उसका लाभ अनेक लोग लेते हें।  जब दण्ड का समय होता है तो लाभ लेने वाले अन्य प्राणी तो बच जाते हैं जबकि पाप करने वाला स्वयं फंस जाता है।’’
         हमारे देश में भारी भ्रष्टाचार है।  इसके विरुद्ध अगर आंदोलन चल रहे हैं तो सरकारी प्रयास भी उसे रोकने के लिये होते हैं।  ऐसे में अनेक भ्रष्टाचारियों को जेल की कोठरियों में जाना पड़ता है जबकि उनके पद, पैसे और प्रतिष्ठा का उपयोग जिन लोगों ने किया होता है वह बाहर बैठे पूर्ववत आरामदायक जीवन बिताते हैं।  कहने को तो लोग कहते हैं कि वह अपने परिवार के लिये सब कर रहै हैं पर जब पापों के लिये दंड का समय आता है तो जेल की हवा परिवार को नहीं केवल पालनहार को ही मिलती है।  वैसे इस प्रसंग में महात्मा वाल्मीकि की कथा प्रचलित हैं।  वह उन लोगों के लिये बहुत बड़ा प्रमाण है जो अपराध या भ्रष्टाचार के लिये अपनी पारिवारिक स्थितियों को जिम्मेदार बताते हैं।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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Tuesday, August 7, 2012

यजुर्वेद से संदेश-हम प्रेम से रहें (yajurved se sandesh-hum prem se rahen)

                     आजकल पूरे विश्व में ऋण लेकर अपने लिये सुख साधन जुटाने की प्रवृत्ति बढ़ी गयी है।  दूसरे के घर की रोशनी देखकर आदमी अपने घर में कर्ज लाकर आग लगाने को तैयार दिखता है।  सुख किश्तों पर मिलता है पर दुःख कभी एकमुश्त चला आता है।  कर्ज लेकर सामान लेने वाले जब ब्याज और मूलधन नहीं चुका पाते तब उनके पास सिवाय भारीसंताप में फंसे रहने  अलावा  कोई चारा नहीं रहता।  विलाप करते रहने के सिवाय उनके पास अन्य  मार्ग नहीं रहता।  आदमी अब दूसरों पर अपनी निर्भरता इस कदर बढ़ा चुका है कि सड़क पर सिर उठाकर चलने की उसकी मनःस्थिति नहीं रही।  आवश्यकताओं ने आदमी को मजबूर बना दिया है और वह कभी किसी सामाजिक संघर्ष में जमकर लड़ नहीं सकता।
यजुर्वेद में कहा गया है कि
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दृते छोड़ मां ज्योवते सांदृशि जीव्यासं ज्योवते सदृशि जीष्यासम्।।
                    हिन्दी में प्रार्थना का भावार्थ-‘‘हे समर्थ! मुझे शक्तिशाली बनाओ ताकि सब मुझे मैत्री भाव प्रदान करें।  हम सभी एक दूसरे को प्रेममयी दृष्टि से देखें।
मयि त्यांदिन्द्रियं बृहन्मयि दक्षो मयि क्रतुः।।
                   हिन्दी में इस प्रार्थना का अर्थ--‘‘मुझे महान शक्ति प्रदान करो। दक्षता प्रदान करो ताकि अपने कर्तव्य का निर्वाह कर सकूं।’’ 
                      इतना ही नहीं ईश्वर से प्रार्थना करते समय हर आदमी केवल अपने लिये लोकोपयोगी  सामान की याचना करता है।  कोई भी आदमी अपने लिये बल और बुद्धि नहीं मांगता जिससे इस संसार की समस्याओं से निपटा जा सकता है।  कहा जाता है कि जैसा आदमी  के हृदय में संकल्प रहता है वैसा ही उसके लिये यह संसार हो जाता है। आजकल लोग भोग प्रवृत्तियों को तो धारण कर लेते हैं पर योग संस्कार के अभाव में उनकी तृप्ति दूसरे की सहायता से कर्ज, दान या उधार लेकर ही होती है।  यह सब ग्रहण करना अशक्त आदमी का प्रमाण है इसलिये जहां तक हो सके ईश्वर से अपने लिये बल और बुद्धि की याचना करना चाहिए। किसी दूसरे के आगे हाथ फैलाने से अच्छा है उसके आगे हाथ फैलाया जाये जो सभी का दाता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


Saturday, August 4, 2012

संत कबीर दास के दोहे-अपने लिये संकट को आमंत्रित न करें

                                 मनुष्य अपने सुख के पल तो एकदम सहजता से गुजार लेता है पर जब दुःख आता है तो भगवान को याद करता है।  सच बात तो यह है कि मनुष्य अपने संकटों को स्वयं ही आमंत्रित करता है।  कई बार तो ऐसे वाद विवादों को जन्म देता है जिसके मूल में सिवाय अहंकार के कुछ अन्य नहीं होता।  हंसी मजाक में झगड़े होते हैं।  कुछ पुरुषों की आदत होती है वह अपने साथ वार्तालाप करने वाली स्त्रियों के साथ हंसी मजाक कर अपना दिल बहलाते हैं।  वह समझते हैं कि अपने आपको बुद्धिमान साबित कर अपने लिये प्रतिष्ठा अर्जित कर रहे हैं पर होता उसका उल्टा है।  उनको लोग हल्का या अगंभीर मानते हैं। कभी कभी इस बात पर झगड़े तक हो जाते हैं।
इस विषय पर संत कबीर कहते हैं कि
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दीपक झोला पवन का, नर का झोला नारि।
साधू झोला शब्द का, बोलै नाहिं बिचारि।।
                   वायु का झौंका दीपक के लिये भय देने वाला होता है तो नारी का संकट पुरुष के लिये परेशानी का कारण होता है।  उसी तरह यदि ठीक से विचार कर शब्द व्यक्त न किया जाये तो वह साधुओं के लिये संकट का कारण बनता है।
पर नारी पैनी छुरी, विरला बांचै कोय।
कबहूं छेड़ि न देखिये, हंस हंसि खावे रोय।
                     दूसरे आदमी की नारी से कभी कोई हंसी या मजाक न करो क्योंकि वह उस छुरी के समान है जो आदमी को हंसकर या रोकर अंततः काट देती है।
                    अनेक पुरुष दूसरे की स्त्रियों से वार्तालाप कर अपने मनोरंजन की प्राप्ति करते हैं। यह मनोरंजन अंततः उनको महंगा पड़ता है।  देखा तो यह जा रहा है कि आधुनिक समाज में केवल इसी बात पर अनेक झगड़े हो जाते हैं कि किसी ने परस्त्री के साथ मजाक किया। अनेक लोग इस चक्कर में बदनाम हो जाते हैं कि वह परस्त्रियों से अपने संबंध बनाते हैं। ऐसा नहीं है कि समाज में पहले ऐसा नहीं होता था।  अगर यह बात होती तो हमारे संत महापुरुष इस बुराई की तरफ प्राचीनकाल से सचेत नहीं करते पर वर्तमान आधुनिक समय में परस्त्रियों से से अश्लील अथवा द्विअर्थी संवाद के साथ वार्तालाप करना एक फैशन हो गया है जो कि देश की सांस्कृतिक परंपराओं के भी विरुद्ध है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
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