Friday, October 2, 2009

मनुस्मृति-विषयासक्त स्वामी को दंड का उपयोग करना ही नहीं आता(swami aur dand-manu smruti in hindi)

सोऽसहायेन मूढेन लुब्धेनाकृतबुद्धिना।
न शक्तो न्यायतो नेतुं सक्तेन विषयेनणु च।।
हिंदी में भावार्थ-
जिस राजा के सहायक न हों या फिर मूर्ख, लालची, बुद्धिहीन हों एवं स्वयं भी जो विषय और कामनाओं में लीन रहता हो ऐसे राजा को दंड का उपयोग उचित ढंग से प्रयोग करना नहीं आता।
स्वराष्ट्रे न्यायवृत् स्याद् भृशदण्डश्च शत्रुषु।
सहृत् स्वजिह्मः स्निगधेषु ब्राह्मणेषु क्षमान्वितः।।
हिंदी में भावार्थ-
राजा को चाहिए कि वह प्रजा के शत्रुओं को उग्र दंड दे। से प्रजा के मित्रों से सौहार्दपूर्ण तथा राज्य के विद्वानों से उदारता के साथ ही क्षमा का व्यवहार करे।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-किसी राज्य का राजा हो या समाज तथा परिवार का मुखिया उसे अपने संरक्षितों के शत्रुओं से किसी प्रकार की उदारता न बरतते हुए उनको कड़ा दंड दे या कार्रवाई करे। जहां मुखिया या स्वामी का कोई सहायक न हो और वही शराब जैसे व्यसनों में डूबा रहे उसके समूह का सर्वनाश हो जाता है। विषय और कामनाओं का चिंतन करने वाले मनुष्य की बौद्धिक क्षमता समाप्त हो जाती है। ऐसे में उसके आसपास कामी, क्रोधी, लोभी तथा अहंकारी लोगों का मित्र समूह एकत्रित होकर उसे उल्टी सीधी सलाहें देता है जिससे स्वामी के साथ उसके कुल, राज्य और समाज का भी नाश होता है।
इसलिये जिन लोगों को परमात्मा की कृपा से कहीं स्वामित्व का अधिकार प्राप्त होता है वह अपने सरंक्षित तथा शरणागत जीवों के शत्रुओं के विरुद्ध कठोर दंड का उपयोग करें तथा जो मित्र हों उनके साथ सौहार्द का व्यवहार करते हुए अपने समूह का हित सोचें। इसके साथ ही ऐसे विद्वानों का हमेशा सम्मान करें तो संकट पड़ने पर अपने बौद्धिक कौशल से उसे तथा उसके समूह को उबार सकें।
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