Saturday, October 31, 2009

रहीम के दोहे-पेड़ कभी अपना फल नहीं खाते, तालाब पानी नहीं पीता (Couplets of Rahim - trees sometimes do not eat fruit, drink pond water)

तन रहीम है कर्म बस, मन राखो ओहि ओर।
जल में उल्टी नाव ज्यों, खैंचत गुन के जोर।
कविवर रहीम कहते हैं कि अपना शरीर तो कर्म के फल के नियंत्रण में है पर मन को भगवान की भक्ति में लीन रखा जा सकता है। जैसे जल में उल्टी नाव को रस्सी से खींचा जाता है वैसे ही मन को भी खींचना चाहिए।
तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान।
कहि रहीम पर काज हित, संपति संचहि सुजान।।
कविवर रहीम कहते हैं कि जिसत तर पेड़ कभी स्वयं अपने फल नहीं खाते और तालाब कभी अपना पानी नहीं पीते उसी तरह सज्जनलोग दूसरे के हित के लिये संपत्ति का संचय करते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-सामान्य मनुष्य स्वभाव का यह मूल स्वभाव होता है कि वह अपने लिये आवश्यक वस्तुओं का संग्रह करता है पर जो दूसरे के हित का विचार करते हैं उनका उद्देश्य दूसरों का हित भी करना होता है। अपने अपने सोचने का तरीका है। कुछ लोग अपने लिये धन संचय करते चले जाते हैं यह सोचकर कि उनकी सात पीढ़ियां उनको याद करेंगीं। समाज में वैमनस्य फैल रहा है तो उसकी वह परवाह नहीं करते। गरीब के साथ अन्याय और मजदूरी के शोषण से धन संचय करने में उनको हिचक नहीं होती। वह सोचते हैं कि उनका और आने वाली पीढ़ियाों का जीवन इसी तरह ही चलता रहेगा। उनके कृत्यों से समाज में जो विद्रोह फैलता है उसकी आशंका से परे होकर वह केवल अपने स्वार्थ पूरे करने में लगते हैं। मगर जब उनके पापों और कृत्यों की अति हो जाती है तब वह उसका परिणाम भोगते हैं और कभी कभी यह दुष्परिणाम उनकी पीढ़ियों को भोगना पड़ता है।
समझदार मनुष्य समाज को देखभाल कर ही आगे बढ़ते हैं। मिल बांटकर खाओ की नीति अपनाकर न केवल वह अपने लिये सुविधायें जुटाते हैं बल्कि उसके उपभोग में समाज को भागीदार बनाकर यश प्राप्त करते हैं। एक बात तय है कि शरीर की आवश्यकता भौतिक पदार्थों से ही पूरी होती है अतः यह समझना चाहिये कि किसी दूसरे को भी ऐसी सुविधा देकर ही उसका हृदय जीता जा सकता है।
यह शरीर तो सांसरिक कर्म फल के अधीन है। इसकी पूर्ति के लिये भौतिक वस्तुओं को प्राप्त करना जरूरी है पर भगवान भक्ति और परोपकार से जो आत्मिक सुख मिलता है उसकी अनुभूति अगर नहीं की तो यह जीवन व्यर्थ है। मन तो केवल साधनों के संग्रह में ही रहना चाहता है और उस पर नियंत्रण तभी किया जा सकता है जब हम अपने अंदर दृढ़ता पूर्वक संकल्प लेकर भक्ति तथा परोपकार के काम करें।
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Friday, October 30, 2009

रहीम के दोहे-मैंढक जब बोलें तो कोयल चुप हो जाती (koyal ki khamoshi-rahim ke dohe)

पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन।
अब दादुर वक्ता भए, हम को पूछत कौन।
कविवर रहीम कहते हैं कि जब वर्षा का मौसम आता है तब कोयल मौन धारण कर लेती है क्योंकि उस समय मैंढक बोलने लगते हैं। वह यह सोचकर खामोश हो जाती है कि अब इस टर्र टर्र की आवाज में उसकी बात कौन सुनेगा?
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सरलता, सहजता और ईमानदारी का गुण हर मनुष्य में नहीं होता। चतुराई, ढौंग और बेईमानी से काम करने वालों को सहजता से ही ख्याति मिल जाती है। यह देखकर भलेमानसों को खामोश हो जाना चाहिए-यह सोचकर कि उस तरह की कलाकारी वह नहीं कर सकते। जिस तरह वर्षा का मौसम आता है तब पानी के गड्ढों में मैंढकों की संख्या बढ़ जाती है और दिन रात उनका ही गायन होता है तब कोयल चुप्पी साध लेती है। यही स्थिति समाज में भले विद्वानों की है। सामान्य आदमी स्वतः अभिव्यक्त होने वाले लोगों की तरफ ध्यान देता है न कि खामोश रहने वालों की तरफ देखता है। मुश्किल यह है कि जिनके पास गीत, संगीत, साहित्य, शिक्षा तथा अध्यात्मिक ज्ञान का खजाना है वह हमेशा उसके संचय में ही व्यस्त रहते हैं जबकि अल्पज्ञानी, विषयों को रटने वाले तथा दूसरे की रचना सामग्री को अपने नाम से प्रस्तुत करने वाले लोग समाज के सामने स्वयं को रचनाकार या ज्ञानी जताकर प्रस्तुत होते हैं। केवल इतना ही उनके लिये पर्याप्त नहीं होता बल्कि उनको समाज के प्रभावशाली लोगों की चाटुकारिता भी करनी पड़ती है। इस कारण वह यश और सम्मान अर्जित करते हैं जबकि भलेमानस रचनाकार और ज्ञानियों की हमेशा ही इस तरह के सम्मान से वंचित रहते हैं। कुछ तो स्वतः ही इनसे अपने को दूर रखते हैं। ढौंगी लोगों का सम्मान देखकर जो स्वतः अल्पज्ञानी हैं वह तो विचलित हो जाते हैं पर जो वास्तव में ज्ञानी है वह खामोशी से सब देखते हैं-उनका मन विचलित नहीं होता। वैसे भी ज्ञानी लोग सम्मान आदि का मोह नहीं पालते बल्कि उनका लक्ष्य अपना सृजन प्रक्रिया का सतत रखना होता है। यह मौन ही उनके ताकतवर होने का प्रमाण होता है। कहना चाहिये कि जो मौन है वही सच्चा ज्ञानी है-बिल्कुल कोयल की तरह।
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Monday, October 26, 2009

मनु स्मृति-कीर्ति के लिये झूठा आचरण करने वाला ‘बिडाल’ (kirti pane ke liye jhooth-manu smriti in hindi)

धर्मघ्वजी सदा लुब्धश्छाद्यिको लोकदम्भका।
बैडालवृत्ति को ज्ञेयो हिस्त्रः सर्वाभिसन्धकः।।
हिंदी में भावार्थ-
अपनी कीर्ति पाने की इच्छा पूर्ति करने के लिये झूठ का आचरण करने वाला, दूसरे के धरन कर हरण करने वाला, ढौंग रचने वाला, हिंसक प्रवृत्ति वाला तथा सदैव दूसरों को भड़काने वाला ‘बिडाल वृत्ति’ का कहा जाता है।’
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आजकल ऐसे लोगों की बहुतायत है जो अपनी कीर्ति पाने के लिये झूठ और ढौंग के आचरण का अनुकरण करते हुए दूसरे के धन और रचनाकर्म का अपहरण करते हैं। इतना ही नहीं समाज के विद्वेष फैलाने के लिये दूसरो को भड़काते हैं। आज जो हम समाज में वैमनस्य का बढ़ता हुआ प्रभाव देख रहे हैं वह ऐसे ही ‘बिडाल वृत्ति’ के लोगों के दुष्प्रयासों का परिणाम है। अनेक लोग ऐसे हैं जो दूसरों का धन हरण कर शक्ति और पद प्राप्त कर लेते हैं। वह काम तो दूसरों से करवाते हैं पर उन पर अपने नाम का ठप्पा लगवाते हैं। अनेक बार ऐसी शिकायते अखबारों में छपने को मिलती है कि किसी के शोध या अनुसंधान को किसी ने चुरा कर अपने नाम से कर लिया। इसके अलावा ऐसे भी समाचार आते हैं कि सार्वजनिक और सामाजिक धन संपदा खर्च कहीं की जानी थी पर कहीं अन्यत्र उसका स्थानांतरण कर दिया-सीधी सी बात कहें तो भ्रष्टाचार भी ‘बिडाल वृत्ति’ है।

इसके अलावा अनेक रचना तथा अनुसंधानकर्मी भी यह शिकायत करते हैं कि उनकी रचना या अनुसंधान की चोरी कर ली गयी है। यह मनोवृत्ति आजकल बढ़ गयी है। इसके पीछे कारण यह है कि लोगों के अंदर मान पाने की वृत्ति श्वान की तरह हो गयी है जिसकी चर्चा माननीय संत कवि कबीरदास जी भी करते हैं। मजे की बात यह है कि जो लोग वास्तव में रचना और अनुसंधान करने वाले होते हैं वह इस तरह के प्रपंच में नहीं पड़ते। अगर हम यह कहें कि जो वास्तव में रचनात्मक भाव वाले हैं वह मान की चाहते से परे होते हैं और जो मान पाने की इच्छा रखते हैं वह दूसरे के धन की चोरी और रचनाकर्म के अपहरण का मार्ग अपनाते हैं। इसलिये हमें ऐसे लोगों की पहचान करना चाहिये। जो व्यक्ति सम्मानित होते दिखे उसके पीछे क्या है यह जरूर देखना चाहिये।
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Saturday, October 24, 2009

रहीम के दोहे-पानी निभाता है दूध से मित्रता (milk and water-rahim ke dohe)

जलहि मिलाइ रहीम ज्यों, कयों आपु सग छीर
अगवहि आपुहि आप त्यों, सकल आंच की भीर।।
भावार्थ-
कविवर रहीम कहते हैं कि दूध अपने साथ पानी को मिलाकर अंतरंग बना लेता है। जब आग की आंच आती है तो पानी अपना साथ निभाते हुए दूध को तब तक बचाता है जब तक स्वयं स्वाह नहीं हो जाता।
जहां गांठ तहं रस नहीं, यह रहीम जग जोय।
मंडप तर की गांठ में, गांठ गांठ रस होय।।
भावार्थ
-कविवर रहीम कहते हैं कि सभी लोग जानते हैं जहां गांठ होती है वहां रस नहीं होता किन्तु विवाह मंडप में गांठ ही गांठ होती है तब भी उसमें रस होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-लोग रिश्ते तो बड़ी आसानी से बना लेते हैं पर निभाने की क्षमता सभी में नहीं होती। स्वार्थ से बने संबंध विपत्ति के समय लापता हो जाते हैं। व्यवसाय और नौकरी वाले स्थानों पर अनेक लोग प्रतिदिन मिलते है। उनके बोलने के तरीके और व्यवहार से ऐसा लगता है कि वह हमारे अच्छी साथी हैं पर यह केवल भ्रम होता है। जब तक सब ठीक है सभी लोग हमेशा ही साथ निभाने का वादा करते हैं पर पर विपत्ति आये तो सभी खामोशी से देखते हैं। अगर उनसे मदद की याचना की जाये तो वह साफ इंकार कर देते हैं। कई तो कह देते हैं कि ‘काम की वजह से हमारी निकठता है। घर के मामले में हम क्या जानते हैं?
इसके अलावा लोग जरा जरा बात पर झगड़कर अपने संबंध खराब कर लेते हैं। तनाव का समय आने वह यह नही सोचते कि थोड़ा सब्र कर समझ के साथ संबंध बढ़ायें। यही कारण है कि आजकल सभी के आसपास मित्रों और रिश्तेदारों की भीड़ है फिर भी लोग अपने अंदर अकेलापन अनुभव करते हैं। लोग यह नहीं समझ पाते कि एक बार विश्वास टूट गया या संबंध में गांठ पड़ गयी तो फिर वह सामान्य नहीं हो सकते।
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Thursday, October 22, 2009

विदुर नीति-आठ महीने अच्छे काम कर चार महीने आराम से रहें (vidur niti-achchhe kam se neend aati hai)

दिवसैनैव कुर्याद् येन रात्रौ सुखं वसेत।
अष्टामासेन तत् कुर्याद् येन वर्षा सुखं वसेत्।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर कहते हैं कि पूर दिन में वह कार्य करें जिससे रात में आराम से नींद आ सके और आठ महीनों में वह कार्य करें जो चार महीने सुख से व्यतीत हो सकें।

जीर्णमन्नम् प्रशंसंति भार्या च गतयौवनम्।
शूरंविजितसंग्रामं गतयारं तपस्विनम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर कहते हैं कि सज्जन आदमी पच जाने पर पर अन्न , युवावस्था बेदाग बीत जाने पर स्त्री, युद्ध विजयी होने पर वीर और तत्व ज्ञान प्राप्त करने पर तपस्वी किया प्रशंसा करते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आमतौर से प्राचीन काल में वर्षा के चार मास मनुष्य के लिये अवकाश का काल माने जाते थे। उस समय चूंकि पक्के मार्ग नहीं हुआ करते थे इसलिये वर्षाकाल में यात्रायें वर्जित थीं। शायद इसलिये ही विदुर महाराज ने यह संदेश दिया कि आठ मास में अधिक परिश्रम कर इतना धनर्जान कर लें कि बाकी चार मास में आराम से रोजी रोटी चल सके। वर्षाकाल में उमस के कारण थोड़ा कार्य करने से भी शरीर से ऊर्जा पसीने के रूप में बाहर आने लगती है और फिर उस समय खाना भी इतनी आसानी से हजम नहीं होता इसलिये बीमारी का प्रकोप बना रहता है इसी कारण वर्षा में अधिक परिश्रम वर्जित किया गया है। वर्षाकाल में देह में ऊर्जा निर्माण की प्रक्रिया भी कठिन होती है।

उन्होंने यह बात बहुत महत्वपूर्ण कही है कि हमें दिन में ऐसे ही काम करना चाहिये जिससे्र रात को निश्चिंत होकर निद्रा का आनंद ले सकें। देखा जाये तो इसमें ही इस दैहिक जीवन का बहुत बड़ा रहस्य छिपा हुआ है। दिन में क्रोध या लोभवश किये काम का रात को अपने ही दिमाग पर जो तनाव रहता है उससे निद्रा नहीं आती। अगर किसी से हमने बैर लिया होता है तो उसके प्रहार की चिंता से एक नहीं बल्कि कई रातों की नींद हराम हो जाती है। कहीं प्रमाद या विलासिता के वशीभूत मजे लेने के लिये किया गया कार्य इसलिये भी रात को नींद में सताता है कि उसका कहीं किसी को पता न चल जाये। इस बात को ध्यान में रखते हुए दिन में ही सतर्कता बरतना चाहिए कि हमारे हाथ से ऐसा कोई कार्य न हो जाये जिससे रात की नींद हराम हो। ऐसा करने से मनुष्य स्वतः ही पापकर्म से विरक्त रहेगा। अगर आप अच्छा काम करेंगे तो रात को नींद अपने आप अच्छे तरह आयेगी।
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Wednesday, October 21, 2009

चाणक्य नीति-जस की तस नीति में दोष नहीं (jaise ko taisa-chankya niti in hindi)

संसार विषवृक्षस्य द्वे फले अमृतोपमे।
सुभाषितं च सुस्वादु संगतिः सुजने जनै।।

हिन्दी में भावार्थ-नीति विशारद चाणक्य जी कहते हैं कि इस विषरूपी संसार में दो तरह के फल अमृत की तरह लगते हैं। एक तो सज्जन लोगों की संगत और दूसरा अच्छी वाणी सुनना।
कृते प्रतिकृतं कुर्याद् हिंसने प्रतिहिसंनम्।
तत्र दोषो न पतति दुष्टे दुष्टे सामचरेत्
हिंदी में भावार्थ-
अपने प्रति अपराध और हिंसा करने वाले के विरुद्ध प्रतिकार और प्रतिहिंसा का भाव रखने में कोई दोष नहीं है। उसी तरह दुष्ट व्यक्ति के साथ वैसे ही व्यवहार करना कोई अपराध नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में वैसे तो दुःख और विष के अलावा अन्य कुछ नहीं दिखता पर दो तरह के फल अवश्य हैं जिनका मनुष्य अगर सेवन करे तो उसका जीवन संतोष के साथ व्यतीत किया जा सकता है। इसमें एक तो है ऐसे स्थानो पर जाना जहां भगवत्चर्चा होती हो। दूसरा है सज्जन और गुणी लोगों से संगत करना। दरअसल इस स्वार्थी दुनियां में निष्काम भाव से कुछ समय व्यतीत करने पर ही शांति मिलती है और यह तभी संभव है जब हम स्वार्थ की वजह से बने रिश्तों से अलग ऐसे संतों और सत्पुरुषों की संगत करें जिनका हम में और हमारा उनमें स्वार्थ न हो। इसके अलावा आत्मा को प्रसन्न करने वाली कहीं कोई बात सुनने को मिले तो वह अवश्य सुनना चाहिये।
कहते हैं कि मन में बुरा भाव नहीं रखना चाहिये पर अगर कोई हमारे साथ बुरा बर्ताव करता है तो उससे चिढ़ हो ही जाती है। पंच तत्व से बनी इस देह में बुद्धि, मन और अहंकार ऐसी प्रकृतियां हैं जिन पर चाहे जितना प्रयास करो पर नियंत्रण हो नहीं पाता। सज्जन लोग किसी अन्य द्वारा बुरा बर्ताव करने पर उससे मन में चिढ़ जाते हैं पर बाद में वह इस बात से पछताते हैं कि उनके मन में बुरी बात आई क्यों? अगर किसी बुरे व्यक्ति के बर्ताव से गुस्सा आता है तो उससे विचलित होने की आवश्यकता नहीं है। वैसे जीवन में सतर्कता और सक्रियता आवश्यक है। कोई व्यक्ति हमारे अहित के लिये तत्पर है तो उसका वैसा ही प्रतिकार करने में कोई बुराई नहीं है। बस! इतना ध्यान रखना चाहिये कि उससे हम बाद में स्वयं मानसिक रूप से स्वयं प्रताड़ित न हों।
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Tuesday, October 20, 2009

रहीम के दोहे-चिंता के समान मनुष्य का कोई दूसरा शत्रु नहीं (rahim ke dohe in hindi)

रहिमन करि सम बल नहीं, मानत प्रभु की धाक।
दांत दिखावत दीन है, चलत घिसावत नाक।।


कविवर रहीम कहते हैं की हाथी के समान किसी में शक्ति नहीं है परन्तु वह भी परमात्मा के महत्त्व को स्वीकार करता है और दोनों दंत दिखाता हुआ पृथ्वी पर नाक रगड़कर चलता है।
रहिमन कठिन चितान ते, चिंता को चित चेत।
चिता दहति निर्जीव को, चिंता जीव समेत ।।

कविवर रहीम कहते हैं की कठोर चिंताओं के से अपने को मुक्त कर अपने चित पर नियंत्रण करो क्योंकि चिता तो प्राणहीन प्राणी को जलाकर राख कर देती है परन्तु चिंता तो जिंदा प्राणी को ही जलाकर भस्म कर देती है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-चिंता के समान मनुष्य का कोई दूसरा शत्रु नहीं है। इसका कारण यह है कि सामान्य मनुष्य अपने को कर्तापन के अहंकार से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाता। इसलिये अपने सांसरिक कार्य के बनने पर प्रसन्न होता है तो बिगड़ने पर भारी संताप का शिकार बन जाता है। सच बात तो यह है कि आदमी अकेला आया है और अकेला ही उसे जाना है-इस तथ्य को जानते हुए भी लोग भूल जाते हैं। अपने परिवार तथा समाज को अपने कर्म पर ही आधारित मानना मनुष्य का एक ऐसा भ्रम है जिससे अगर वह मुक्त हो जाये तो फिर कहना ही क्या? हमने देखा होगा कि जीवन नश्वर है और जब इंसान इस संसार को छोड़ जाता है तो उसके साथ उसका कोई आश्रित नहीं जाता। दो चार दिन रोकर सभी अपने काम में लग जाते हैं। सब देखते हुए हुए भी सामान्य मनुष्य आंख बंद कर अपने को विश्वास दिलाता है कि वही अपने संसार की नाव का खेवनहार है और इसी चिंता में अपनी पूरी जिंदगी गुजार देता है।
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Monday, October 19, 2009

रहीम के दोहे-दो फांक हो जाने वाला प्रेम न करना ही अच्छा (aisa prem n karen-rahim ke dohe)

रहिमन प्रीत न कीजिए, जस खीरा ने कीन।
ऊपर से तो दिल मिला, भीतर फांके तीन।।
भावार्थ-
कविवर रहीम कहते हैं कि कभी भी खीरे जैसी प्रीति न कीजिए। ऐसी दिखावटी प्रीति से क्या लाभ जिसमें आदमी मन ही मन एक दूसरे से जलते हों।
रहिमन नीच प्रसंग ते, नित प्रति लाभ विकार।
नीर चोरावै संपुटी, भारू सहै धरिआर।।
भावार्थ-
कविवर रहीम के मतानुसार नीच व्यक्ति की संगत या विचार करने से आदमी को नित नये संकटों का सामना करना के साथ ही मानसिक संताप भी झेलना पड़ता है। पानी जलघड़ी की संपुटी चुराता है और उसका दंड घड़ियाला को भोगना पड़ता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सच बात तो यह है कि इस संसार में शायद ही कोई किसी से सच्चा प्रेम करता हो। अधिकतर लोग एक दूसरे से दिखावटी प्रेम करते हैं। वैसे तो प्रेम के गीत बहुत गाये जाते हैं पर क्षणिक आवेश या काम वासना से युक्त आकर्षण में प्रेम का तत्व नहीं मिल सकता। जब तक काम नहीं निकला तब तक लोग एक दूसरे के प्रति प्रेम भाव का प्रदर्शन करते हैं और जैसे ही काम निकला पहचानते नहीं या फिर आपस में झगड़े करने लगते हैं। जिस समय स्वार्थयुक्त प्रेम का भाव चरम पर होता है उस समय लगता है कि लोग एक हैं पर जैसे ही सच सामने आता है उनका झुंड की दो फांक साफ दिखाई देती हैं। सच बात तो यह है कि प्रेम कभी भी स्वार्थ पूर्ति के लिये नहीं होता। जब करें तो ऐसा ही प्रेम करें वरना दिखावा कर एक दूसरे को धोखा देकर अपना नाम न बदनाम करें। निस्वार्थ प्रेम ही जीवन में सहजता का बोध कराता है। स्वार्थ की वजह से हुआ प्रेम उसके पूरा होते ही समाप्त होता है और अगर स्वार्थ नहीं पूरा होता तो उससे मानसिक संताप दिल में छा जाता है।
उसी तरह जीवन में न तो नीच प्रकृत्ति के इंसान से संगत करना चाहिये न विचारों में कलुषिता का भाव रखें। दोनों ही स्थितियां अपने लिये बुरी होती हैं। नीच प्रकृत्ति के आदमी की संगत कभी न कभी अपने साथ संकट लाती है और अगर विचार बुरे हों तो उससे सारी दुनियां ही बुरी लगती है और इससे जीवन का आनंद जाता रहता है।
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Sunday, October 18, 2009

चाणक्य नीति-दुष्ट से निपटने के लिये खड्ग हाथ में लेना ही पड़ता है (chankya niti in hindi)

तुष्यन्ति भोजने विप्रा मयूरा धनगर्जिते।
साधवः परसम्पतिौ खलः परविपत्तिषुः।।
हिंदी में भावार्थ-
विद्वान अच्छा भोजन, मेघों की गर्जना से मोर तथा साधु लोग दूसरों की संपत्ति देखकर प्रसन्न होते हैं वैसे ही दुष्ट लोग दूसरों को संकट में फंसा देखकर हंसते हैं।

हस्ती अंकुशमात्रेण वाजी हस्तेन ताडयते।
श्रृङगी लगुडहस्तेन खङगहस्तेन दुर्जनः।।

हिंदी में भावार्थ-
जिस तरह अंकुश से हाथी तथा चाबुक से घोड़ा, बैल तथा अन्य पशु नियंत्रित किये जाते हैं वैसे ही दुष्ट से निपटने के लिये खड्ग हाथ में लेना ही पड़ता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में भांति भांति प्रकार के लोग हैं। जो ज्ञानी और विद्वान है उनको रहने, खाने,पीने और पहनने के लिये अच्छी सुविधा मिल जाये तो वह संतुष्ट हो जाते हैं। जो सच्चे साधु और सज्जन हैं वह दूसरों की भौतिक उपलब्धियों देखकर प्रसन्न होते हैं क्योंकि उनकी मान्यता होती है कि आसपास के लोग प्रसन्न होंगे तो उनके स्वयं के पास अच्छा वातावरण रहेगा और वह शांति से रह सकेंगे। इसके विपरीत कुछ लोग दुष्ट प्रवृत्ति के भी होते हैं जो स्वयं तो विपत्ति में पड़े रहते हैं पर उनका खेद तब कम हो जाता है जब कोई दूसरा भी विपत्ति में पड़ता है। ऐसे लोग अपने दुःख से अधिक दूसरे के सुख से अधिक दुःखी होती हैं। इसके अलावा अपने सुःख से अधिक दूसरे का दुःख उनको अधिक प्रसन्न करता है।
वैसे तो जीवन में हिंसा कभी नहीं करना चाहिये क्योंकि फिर प्रतिहिंसा का सामना करने पर स्वयं को भी कष्ट उठाना पड़ा सकता है, पर इस संसार में कुछ ऐसे दुष्ट लोग भी हैं जिनको कितना भी समझाया जाये वह दैहिक आक्रमण से बाज नहीं आते। उनसे शांति और अहिंसा की अपील निरर्थक साबित होती है। ऐसे लोगों से मुकाबला करने के लिये अपने अस्त्रों शस्त्रों तथा अन्य साधनों उपयोग करने में कोई झिझक नहीं करना चाहिये। ऐसे लोगों के लिये धर्म और ज्ञान एक निरर्थक वस्तु हैं। देहाभिमान से ग्रस्त ऐसे लोगों के विरुद्ध लड़ना पड़े तो संकोच त्याग देना चाहिए।  अपनी देह और आत्मसम्मान की   रक्षा करना भी अपना धर्म है यह समझ लेना चाहिए।
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Thursday, October 15, 2009

मनु स्मृति-धर्म का नाम नहीं पर पहचान हैं दस लक्षण (ten point of hindu religion-manu smriti in hindi)

मनु स्मृति में कहा गया है कि
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धृति क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रिवनिग्रहः।
धीविंद्या सत्यमक्रोधी दशकं धर्मलक्षणम्।।

      हिंदी में भावार्थ-धैर्य, क्षमा, मन पर नियंत्रण, चोरी न करना, मन वचन तथा कर्म में शुद्धता,इंद्रियों पर नियंत्रण, शास्त्र का ज्ञान रखना,ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करना, सच बोलना, क्रोध और अहंकार से परे होकर आत्मप्रवंचना से दूर रहना-यह धर्म के दस लक्षण है।
दक्ष लक्षणानि धर्मस्य व विप्राः समधीयते।
अधीत्य चानुवर्तन्ते वान्ति परमां गतिम्।।

      हिंदी में भावार्थ-जो विद्वान दस लक्षणों से युक्त धर्म का पालन करते हैं वे परमगति को प्राप्त होते हैं।
      वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों में किसी धर्म का नाम देखने को नहीं मिलता है। अनेक स्थानों पर कर्म को ही धर्म माना गया है अनेक जगह मनुष्य के आचरण तथा  लक्षणों से पहचान की जाती है। कहने को तो यह भी कहा जाता है कि हमारा धर्म पहले सनातन धर्म से जाना जाता था पर इसे हम यूं भी कह सकते हैं कि इंसान को इंसान की तरह जीने की कला सिखाने वाला हमारा धर्म ही सनातन काल से चला आ रहा है। धर्म का कोई नाम नहीं होता बल्कि इंसानी कि स्वाभाविक वृत्तियां ही धर्म की पहचान है। इस संसार में विभिन्न प्रकार के इंसान हैं पर वह  मनु द्वारा बताये गये धार्मिक लक्षणों पर चलते हैं  तभी वह धर्म मार्ग पर स्थित माने  जा सकते हैं। हमें इन लक्षणों का अध्ययन करना चाहिये। इसका ज्ञान होने पर यह देखने का प्रयास नहीं करना चाहिए  कि कोई दूसरा व्यक्ति धर्म मार्ग पर स्थित है या नहीं  वरन् हमें स्वयं देखना है कि हमारा अपना  मार्ग कौनसा है?
      वैसे हमारे देश में जगह जगह ज्ञानी मिल जायेंगे। बड़ों की बात छोड़िये आम आदमियों में भी ऐसे बहुत लोग हैं जो खाली समय बैठकर धर्म की बात करते हैं। ज्ञान की बातें इस तरह करेंगे जैसे कि उनको महान सत्य बैठ बिठाये ही प्राप्त हो गया है। मगर जब आचरण की बात आती है तो सभी कोरे साबित हो जाते हैं। कहते हैं कि जैसे लोग और जमाना है वैसे ही चलना पड़ता है। अपने मन पर नियंत्रण करना बहुत सहज है पर उससे पहले यह संकल्प करना पड़ता है कि हम धर्म का मार्ग चलेंगे। धर्म की लंबी चैड़ी व्याख्यायें नहीं होती। परिस्थतियों के अनुसार खान पान में बदलाव करना पड़ता है और उससे धर्म की हानि या लाभ नहीं होता। वैसे खाने, पीने में स्वाद और पहनावे से आकर्षक  दिखने का विचार छोड़कर इस बात पर ध्यान देना चाहिये कि हमारे स्वास्थ्य के लिये क्या हितकर है? दूसरा क्या कर रहा है इसे नहीं देखना चाहिये और जहां तक हो सके अन्य लोगो के कृत्य पर टिप्पणियां करने से भी बचें। जहां हम किसी की निंदा करते हैं वहां हमारा उद्देश्य बिना कोई परोपकार का काम किये बिना स्वयं को श्रेष्ठ साबित करना होता है। यह निंदा और आत्मप्रवंचना धर्म विरुद्ध है। सबसे बड़ी बात यह है कि एक इंसान के रूप में अपने मन, विचार, बुद्धि तथा देह पर निंयत्रण करने की कला का नाम ही धर्म है और मनु द्वारा बताये गये दस लक्षणों से अलग कोई भी दृष्टिकोण धर्म नहीं हो सकता। .........................................
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Wednesday, October 14, 2009

विदुर नीति-दूसरे के अधिकार का हनन अनुचित (doosre ka haq marna galat-vidur niti)

विदुर नीति में कहा गया है कि
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हरणं च परम्वानां परदाराभिमर्शनम्।
सुहृदश्चय परित्यागस्त्रयो दोषाः क्षमावहा।।

           
हिंदी में भावार्थ-दूसरे के धन का हरण,  परायी स्त्री से संपर्क रखना तथा सहृदय मित्र का त्याग-यह तीन दोष आदमी का नाश कर देते हैं।

द्वाविमौ पुरुषौ राजन् स्वर्गस्योपरि तिष्ठतः।
प्रभुश्चक्षमया युक्तो दरिद्रश्च प्रदानवान्।।

           
हिंदी में भावार्थ-शक्तिशाली होने पर भी क्षमा करने तथा दरिद्र होने पर भी दान करने वाला मनुष्य स्वर्ग से भी ऊपर स्थान पाता है।

            वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आजकल सबसे बड़ी समस्या यह है कि आदमी अपने गुण दोषों पर ध्यान नहीं देता। दूसरे के हक मारने से लोग तब रुकें जब उनके पास इतनी चिंतन क्षमता हो कि वह अच्छाई बुराई का निर्णय कर सकें। सभी को अपने स्वार्थ का भान है दूसरे के अधिकार पर कौन ध्यान देता है? हमने कई बार सुना होगा कि किसी ने अनुसंधान से कोई अविष्कार किया तो किसी दूसरे ने अपने नाम से उसे प्रचारित किया। उसी तरह अनेक लोग दूसरों की मौलिक रचनायें अपने नाम से छापकर गर्व महसूस करते हैं। कई लोग दूसरे के परिश्रम के रूप में देय मूल्य से मूंह फेरे जाते हैं या फिर कम देते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि दूसरे का अधिकार मारने में कोई नहीं झिझकता। यह कोई नहीं समझता कि इसका परिणाम कहीं न कहीं भोगना पड़ता है।
      मनुष्य की शक्ति की पहचान उसकी सहनशीलता में है न कि हिंसा का प्रदर्शन करने में। जिसमें शारीरिक शक्ति और मानसिक दृढ़ता की कमी होती है वह बहुत जल्द हिंसक हो उठते हैं। जिन लोगों के पास शक्ति और धीरज है वह क्षमा करने में अधिक विश्वास करते हैं। उसी तरह आजकल धनलोलुपों का हाल है। सभी धन के पीछे अंधे होकर भाग रहे हैं। दिखाने के लिये वह धन का दान भले ही करते हों पर उनके लिये पुण्य कमाना दुर्लभ है क्योंकि उनका धन उचित मार्गों से नहीं अर्जित किया गया। सच तो यह है कि जो मिलबांटकर खाते हैं उनको ही पुण्य मिलता है। जो दरिद्र है वह जब दान करता है तो उसका स्थान स्वर्ग से भी ऊंचा हो जाता है। संकलक एवं  व्याख्याकार-दीपक भारतदीप
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Tuesday, October 13, 2009

मनु स्मृति-अधिक भोजन से आयु का क्षय होता है (bhojan aur ayu-manu sandesh)

मनु महाराज कहते हैं कि
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पूजयेदशनं नित्यमद्याच्चैतदकुत्सन्।
दृष्टया हृध्येत्प्रसींदेच्च प्रतिनदेच्य सर्वेशः।
हिंदी में भावार्थ-
थाली में सजकर जैसा भी भोजन प्राप्त हो उसे देखकर अपने मन में प्रसन्नता का भाव लाना चाहिये। ऐसा अच्छा भोजन हमेशा प्राप्त हो यह कामना हृदय में करना चाहिए।
अनारोगयमन्तयुरूयमस्वगर्यं चारिभोजनम्।
अपुण्यं लोकविद्विष्टं तस्मात्त्परिर्जयेत्।।
हिंदी में भावार्थ-
मनुमहाराज कहते हैं कि भूख से अधिक भोजन करना  देह के लिये अस्वास्थ्यकर है। इससे आयु कम होने के साथ ही पुण्य का भी नाश होता है। दूसरे लोग अधिक खाने वाले की निंदा करते या मजाक उड़ाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जब सामने थाली में भोजन आता है तो उसे देखकर हमारे मन में कोई न कोई भाव अवश्य आता है। सब्जी मनपंसद हो तो अच्छा लगता है और न हो तो निराशा घेर लेती है। भोजन पसंद का न होने पर परोसने वाला कोई बाहर का आदमी हो तो हम उससे कुछ नहीं कहते पर मन में उपजा वितृष्णा का भाव उस भोजन से मिलने वाले अमृत को विष तो बना ही देता है। घर का आदमी या पुरुष हो तो हम उसे डांटफटकार देते हैं और इससे उसी भोजन को विषप्रद बना देते हैं जो अमृत देने वाला होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि मन के भावों से भोजन से मिलने वाली ऊर्जा का स्वरूप निर्धारित होता है।
भोजन खाते समय केवल उसी पर ध्यान रखना चाहिये। न तो उस समय किसी से बात करना चाहिये और न ही मन में अन्य विचार लाना चाहिये। इससे भोजन सुपाच्य हो जाता है। चिकित्साविज्ञान ने अब इस बात की पुष्टि कर दी है कि भोजन करते समय तनाव रहित व्यक्ति विकार रहित भी हो जाते हैं। वैसे
 हमें कुछ लोग ऐसे भी देखें होंगे जिनको देखकर लगता है कि वह खाने के लिए ही जीते हैं। ऐसे लोगों की मानसिकता को ध्यान से देखने तो वह किसी की बात सुनने और समझने के बजाय अपनी ही बात कहते और सुनते हैं।
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Monday, October 5, 2009

संत कबीर वाणी-हीरे की जौहरी और शब्द की परख साधु को होती (heera aur shabd-sant kabir vani)

हीरा न तहां न खोलिए, जहं खोटी है हाट।
कसि करि बांधो गांठरी, उठि करि चालो बाट।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपने हीरे को उस बाजार में मत खोलिए जहां खोटी नीयत वाले उपस्थित हैं। उसे तो अपनी गांठ में कसकर अपनी राह चल दीजिए।
हीरा परखै जौहरी, शब्दहि परखै साध।
कबीर परखै साधु को, ताका मता अगाध।।
हीरे की परख जौहरी और सत्य शब्द का मतलब सज्जन व्यक्ति ही समझ सकता है। उसी तरह जो सत्य और ज्ञान के शब्दों को परख लेता है उसकी चिंतन क्षमता अगाध हो जाती है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-विश्व में बाजार की शक्ति निरंतर बढ़ती जा रही है। आधुनिक समय के संचार माध्यमों में विचारों की अभिव्यक्ति के नाम पर ऐसे संदेश लोगों को सुनाये जा रहे हैं जो उनके अंदर काम, लोभ और अहंकार की प्रवृत्तियों को अनियंत्रित होने के लिऐ प्रेरित करते हैं। ऐसे में हालत तो यह है कि भली बात कहना भी अपने आपको परेशानी में डालना है। किसी भी वस्तु का विज्ञापन कर उसे विक्रय के लिये प्रस्तुत किया जाता है पर सत्य अध्यात्मिक ज्ञान के लिये कोई प्रचार नहीं होता। हालांकि हमारे भारत के प्राचीन ग्रंथों में अनेक कथायें हैं और उनको सुनाकर अनेक व्यवसायिक संत खूब धन बटोर रहे हैं। उनको ऐसा करते हुए कुछ लोग भारतीय धर्म के विरुद्ध दुष्प्रचार भी करते हैं पर यह उनका भ्रम है। भारत का अध्यात्मिक ज्ञान अंतकरण में प्रकाश फैलाता है। जब आदमी के अंतकरण में प्रकाश होता है तो वह स्वतः बाहर फैलता है। उसके आचरण, व्यवहार और विचार से उसका आभास हो जाता है उसके लिये विज्ञापन की आवश्यकता नहीं होती।
सच बात तो यह है कि ज्ञानचर्चा बाजार में नहीं की जा सकती। वहां अनेक लोग बहस करते हैं। अनेक लोगों का तो काम ही यही है कि बहस कर अपने को विद्वान साबित करो। उससे भी बात न बने तो अभद्र शब्द उपयोग में लाकर दूसरे को अपमानित कर स्वयं को सम्मानित करो। इसलिये अच्छा यही है कि समान विचार वालों के साथ अपने विचार बांटे। जहां कुविचारी लोगों का जमावड़ा देखें वहां से पलायन कर जायें।
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Saturday, October 3, 2009

श्री गुरु ग्रंथ साहिब वाणी-हजारों सूर्य और सैंकड़ों चंद्रमा भी गुरु के प्रकाश की बराबरी नहीं कर सकते (shri guru granth sahib-guru, sun and moon)

‘जे सउ चंदा उगवहि सूरज चढ़हि हजार।
ऐते चानण होदिआँ गुर बिन घोर अँधार।।
हिंदी में भावार्थ-
श्री गुरु ग्रंथ साहिब वाणी के अनुसार अगर सैंकड़ों चंद्रमा और हजारों सूरज मिलकर भी उग जायें पर बिना गुरु के जीवन में अंधकार ही रहेगा। इतना प्रकाश कोई अन्य नहीं कर सकता जितना गुरू अपने ज्ञान के द्वारा कर देता है।
‘भाई रे गुर बिनु गिआनु न होइ।
पूछहु ब्रह्मै नारदै बेद बिआसै कोइ’।।
हिंदी में भावार्थ-
श्री गुरु ग्रंथ साहिब की वाणी के अनुसार गुरु के बिना ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता इस बात की पुष्टि ब्रह्मा, नारद और वेदव्यास भी करते हैं।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-किताबें चाहे कितनी भी पढ़ लें पर जब तक गुरु से उसके पढ़ने और समझने का तरीका नहीं समझा तब तक ज्ञान को धारण करना कठिन है। हमारे भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान में गुरू का अधिक महत्व प्रतिपादित किया गया है। यह अलग बात है कि सामान्य जनमानस मेें जो गुरू के प्रति भाव है उसे देखते हुए हर कोई गुरू बनना चाहता है। हमारा भारतीय अध्यात्मिक दर्शन यह भी कहता है कि सच्चे गुरू से ही ज्ञान प्राप्त करना चाहिए वरना तो भ्रष्ट गुरु पूरे जीवन को भी नष्ट कर देते हैं। प्रचार माध्यमों में जो गुरु छाये हुए हैं उनमें गुरु की तलाश करने पर अनेक लोग निराशा अनुभव करते हैं। गुरू का फिल्मी अभिनेताओं की तरह प्रसिद्ध होना आवश्यक नहीं है। हमारे आसपास ऐसे अनेक लोग हैं जो ज्ञान रखते हैं उनको ही हृदय में गुरु की तरह धारण कर उनसे ज्ञान चर्चा करें तो भी ठीक है। जिनके ढेर सारे शिष्य हैं उनके प्रवचनों में जाकर बैठने या दीक्षा लेने से हमारी गुरु की आवश्यकता पूरी नहीं होगी। यह जरूरी नहीं है कि गुरु कोई सन्यासी या व्यवसायिक प्रवचनकर्ता हो। आजकल व्यवसायिक सन्यासियों और व्यवसायिक कथावाचकों को भी गुरू बनने का शौक चर्राया है। गुरु कोई भी हो सकता है। कोई सद्गृहस्थ भी ज्ञानी हो सकता है। उनसे ज्ञान प्राप्त करते रहें। अध्यात्मिक शक्ति के बिना भौतिक संसार को समझा नहीं जा सकता। यह शक्ति केवल गुरु के प्रकाश में ही पाई जा सकती है।
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Friday, October 2, 2009

मनुस्मृति-विषयासक्त स्वामी को दंड का उपयोग करना ही नहीं आता(swami aur dand-manu smruti in hindi)

सोऽसहायेन मूढेन लुब्धेनाकृतबुद्धिना।
न शक्तो न्यायतो नेतुं सक्तेन विषयेनणु च।।
हिंदी में भावार्थ-
जिस राजा के सहायक न हों या फिर मूर्ख, लालची, बुद्धिहीन हों एवं स्वयं भी जो विषय और कामनाओं में लीन रहता हो ऐसे राजा को दंड का उपयोग उचित ढंग से प्रयोग करना नहीं आता।
स्वराष्ट्रे न्यायवृत् स्याद् भृशदण्डश्च शत्रुषु।
सहृत् स्वजिह्मः स्निगधेषु ब्राह्मणेषु क्षमान्वितः।।
हिंदी में भावार्थ-
राजा को चाहिए कि वह प्रजा के शत्रुओं को उग्र दंड दे। से प्रजा के मित्रों से सौहार्दपूर्ण तथा राज्य के विद्वानों से उदारता के साथ ही क्षमा का व्यवहार करे।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-किसी राज्य का राजा हो या समाज तथा परिवार का मुखिया उसे अपने संरक्षितों के शत्रुओं से किसी प्रकार की उदारता न बरतते हुए उनको कड़ा दंड दे या कार्रवाई करे। जहां मुखिया या स्वामी का कोई सहायक न हो और वही शराब जैसे व्यसनों में डूबा रहे उसके समूह का सर्वनाश हो जाता है। विषय और कामनाओं का चिंतन करने वाले मनुष्य की बौद्धिक क्षमता समाप्त हो जाती है। ऐसे में उसके आसपास कामी, क्रोधी, लोभी तथा अहंकारी लोगों का मित्र समूह एकत्रित होकर उसे उल्टी सीधी सलाहें देता है जिससे स्वामी के साथ उसके कुल, राज्य और समाज का भी नाश होता है।
इसलिये जिन लोगों को परमात्मा की कृपा से कहीं स्वामित्व का अधिकार प्राप्त होता है वह अपने सरंक्षित तथा शरणागत जीवों के शत्रुओं के विरुद्ध कठोर दंड का उपयोग करें तथा जो मित्र हों उनके साथ सौहार्द का व्यवहार करते हुए अपने समूह का हित सोचें। इसके साथ ही ऐसे विद्वानों का हमेशा सम्मान करें तो संकट पड़ने पर अपने बौद्धिक कौशल से उसे तथा उसके समूह को उबार सकें।
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Thursday, October 1, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-मधुर वाणी से संसार जीतना संभव (madhur vani aur sansar-hindu sandesh in hindi)

वाक्पारुष्यपरं लोक उद्वेजनमनर्थम्।
न कुर्यात्प्रियया वाचा प्रकृर्यात्ज्जगदात्मताम्।।
हिंदी में भावार्थ-
जिस मनुष्य के वाक्यों में कठोरता है उससे लोग उत्तेजित हो जाते हैं। ऐसी अनर्थकारी वाणी न बोलें। इस जगत को अपने मधुर वाणी से वश में किया जा सकता है।
अकस्मादेव यः कोपादभीक्ष्णं बहु भाषते।
तसमाबुद्धिजते लोकः सस््फुलिंगदिवानलात्।।
हिंदी में भावार्थ-
जो व्यक्ति अचानक ही क्रोध में अनापशनाप बकने लगता है वह संसार को वैसे ही अपने विपरीत बना लेता है जैसे आग से निकलने वाली चिंगारी से लोग उत्तेजित होकर उससे दूर हो जाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अगर इतिहास का अवलोकन करें तो अधिकतर संघर्ष अहंकार को लेकर हुऐ हैं वरना किसी को किसी पर आक्रमण करने की आवश्यकता क्या है? अपने आसपास होने वाली हिंसक वारदातों को देखें तो उनके पीछे बात का बतंगड़ अधिक होता है। हर समस्या का हल होता है पर उसे व्यक्त करने का अपना एक तरीका होता है। कहीं पानी को लेकर झगड़ा है तो कहीं जमीन का झगड़ा है। किसी की वजह से अगर पानी नहीं मिल रहा है तो उससे प्रेम से भी अपनी बात भी कही जा सकती है तो दूसरा व्यक्ति सहजता से मान भी जाये पर जहां दादागिरी, क्रोध या घृणा से बात कही गयी वहां अच्छे परिणाम की संभावना नगण्य हो जाती है। मनुष्य में अहंकार होता है और जहां उससे लगता है कि वह प्रेम से बोलने पर सामने वाले की आंखों में छोटा हो जायेगा या कड़ा बोलकर बड़प्पन दिखायेगा वहां विवाद होता है वहीं उसके अंदर अहंकार के कारण जो क्रोध पैदा होता है वही झगड़े का कारण बनता है।
इसलिये जहां तक हो सके मधुरवाणी बोलना चाहिये। इसे सज्जनता समझें या चालाकी पर इस संसार को इसी तरह ही जीता जा सकता है। आज जब मनुष्य में विवेक की कमी है वहां तो बड़ी सहजता से किसी में हवा से फुलाकर काम निकलवाया जा सकता है तब क्रोध करने की आवश्यकता है?
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