आज की समस्या यह
है कि शिष्यत्व के अभ्यास के बिना लोग गुरु बनना चाहते हैं-उनका ध्येय केवल
व्यवसाय करना ही होता है। वह अध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन कर उनके शब्द केवल
इसलिये रटते हैं कि दूसरे को सुनाकर गुरु की उपाधि धारण कर लें। ज्ञान को धारण
करने की शक्ति का उनमें नितांत अभाव रहता है।
अपने शिष्यों को सार्वजनिक रूप से
काम, क्रोध, मोह, लोभ तथा अहंकार त्यागने का उपदेश देते हैं पर एकांत में साफ कह देते हैं कि
भौतिक सामान के बिना संसार नहीं चलता। वह माया के संग्र्रह की प्रेरणा भी देते
हैं। सबसे बड़ी बात यह कि शिष्यत्व का आनंद
उठाये बिना अनेक लोग गुरु बन जाते हैं जो स्वयं अपना महत्व नहीं जानते। हमारा मानना है कि शिष्यत्व का आनंद के अभाव
में सच्च गुरु बनने की शक्ति नहीं आती।
इस गुरु पूर्णिमा के पर्व पर हमारी सलाह है
कि किसी व्यक्ति प्रतिमा या ग्रंथ को गुरु
बनायें पर उससे मिले ज्ञान का अभ्यास करें।
ज्ञानी वही है जिसके पास चेतना के साथ धृति यानि धारणा करने की शक्ति है।
आजकल हमारे यहां गुरु शिष्य परंपरा के नाम पर पाखंड और व्यापार हो गया है।
पहले गुरू से शिक्षा प्राप्त कर शिष्य जीवन पथ पर निकलता तो फिर वह उसके पास वापस
जाता था, ऐसी पंरपरा सुनने को नहीं मिलती।
एकलव्य ने गुरु द्रोणाचार्य की प्रस्तर प्रतिमा से धनुर्विद्या सीखी और
दक्षिण में अपना अगूठा उनको दान में दिया जबकि उनकी दैहिक उपस्थिति में शिक्षा
पाने वाले अर्जुन ने युद्ध में उनका वध किया।
श्रीमद्भागवत गीता में गुरु सेवा की बात कही गयी है पर इसका आशय केवल
अध्यात्मिक शिक्षा तक ही सीमित है। उसके
बाद तो शिष्य जीवन पथ पर निकल जाता है तब दूसरे शिष्य गुरु की सेवा करते हैं।
हमारे यहां आजकल के गुरु है उनकी स्थिति यह है कि जीवन पर्यंत गुरु बने रहते हैं
पर शिष्य उनके पास से हटना नहीं चाहता-न ही वह उसे मुक्त करना चाहते हैं।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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