Monday, September 26, 2016

टेस्ट मैचों की रैकिंग में नंबर एक होना शहीदों का बदला नहीं-हिन्दीसंपादकीय (Test match ranking no-1 is not revnege of shahid-Hinid Editorial)

                              ‘पाकिस्तान से छीना ताज, शहीदों को श्रद्धांजलि’ जैसे शीर्षक देकर हमारा मीडिया यह साबित करना चाहता है कि वह देशभक्ति भी चतुराई से बेचता है। कानपुर टेस्ट में भारत की न्यूजीलैंड पर जीत का पाकिस्तान से बस इतना ही लेनादेना है कि विश्व की टेस्टमैच रैकिंग में वह एक नंबर से दूसरे नंबर पर आ गया है। हम तो यह भी कहते हैं कि यह विजय अगर पाकिस्तान पर होती तो भी शहीदों के खून का बदला इसे नहीं माना जा सकता था। हालांकि समाचारों के अनुसार भारतीय सैनिकों ने सीमा पर हिसाब किताब बराबर करने की कार्यवाही शुरु कर दी है और सच तो यह है कि वही अपने साथियों की शहादत का बदला ले सकते हैं।  क्रिकेट या हॉकी में हराना कोई बदला नहीं होता है।

               पाकिस्तान ने यह नंबर भी अब दो चार दिन पहले इंग्लैंड को हराकर प्राप्त किया था।  इस तरह की उठापटक एकदिवसीय तथा बीसओवरीय क्रिकेट मैचों की रैकिंग में भी होती रहती है। अन्य खेलों में खिलाड़ियों की इसी तरह की रैकिंग होती है जिसमें कभी कभी बेहतर से बेहतर खिलाड़ी भी  निजी कारणों से जब अधिक मैच नहीं खेलता तब वरीयता सूची में उसका स्थान नीचे आ जाता है जिसे समय आने पर फिर प्राप्त करता है। खिलाड़ियों व उनके प्रशंसकों के लिये रैकिंग कोई महत्व नहीं होता।

                          पाकिस्तान का बौद्धिक समाज एक वर्ग चाहता था कि नवाज अपने भाषण में आतंकवाद के साथ उरी की घटना की निंदा करें पर वह केवल कश्मीर में भारत तक आरोप लगाने तक सीमित रहे। दरअसल नवाज शरीफ ने राहिल शरीफ का तैयार किया  हुआ भाषण पढ़ा। वहां के सैन्य अधिकारी देश की बजाय अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं जो केवल कश्मीर मुद्दे पर ही टिका है।  पाकिस्तानी चैनलों की बहस को देखें तो वहां बौद्धिक समाज और सेना के बीच मतभेद हैं पर वक्त डरते और शब्द चबाते हुए अपनी बात कह रहे हैं। 

Wednesday, September 21, 2016

चाहने वाले तो इतंजार करते मगर चहेते ही रास्ता बदल जाते हैं-दीपकबापूवाणी (Chahehte Rasta badal jate-Deepak Bapu Wani)


अच्छी खबर का इंतजार रहता, बुरी भी हो तो भी इंसान सहता।
‘दीपकबापू’ जिंदगी में रहते मस्त, वही जो सहज धारा में बहता।।
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तख्त पर जो जमा मस्त हैं, लाचार खड़े देखने वाला पस्त हैं।
‘दीपकबापू’ मतवाले बने पहरेदार, नैतिकता का सूर्य अब अस्त है।।
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सभी ने रख लिये अपने वेश, पता न लगे कौन सेठ कौन दरवेश।
‘दीपकबापू’ कहां बनायें नया निवास, मायावी हड़प चुके सभी देश।।
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चिंताओं मेें थमी जिंदगी वादों पर मरने के लिये बेकरार है।
सपनों का सफर थमता नहीं, सच की राह में बड़ी दरार है।
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खतरा घर में तो बाहर भी है, कब तक किससे जान बचायेंगे।
चिंताये जब तक पीछा करेगी कैसे जिंदगी का जश्न मनायेंगे।।
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आंख और कान बंद कर देखा, खामोशी भी खूबसूरत लगी थी।
याद नहीं रहीं वह सूरत और सीरते जो कभी बदसूरत लगी थी।
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जिंदगी के अर्थ से लोग हार जाते हैं, तब शब्द उनका मन मार जाते हैं।
 ज्ञान पथ पर जब चलना लगे कठिन लोग साथ अपने तलवार लाते हैं।
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चाहने वाले तो इतंजार करते मगर चहेते ही रास्ता बदल जाते हैं।
दिल से सोचने वाले लोग दिमाग के खेल में कभी नहीं चल  पाते हैं।
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अपने लिखे पर बहुत इतराते हैं, चार शब्द ही कागज पर छितराते हैं।
‘दीपकबापू’ अमन के बने फरिश्ते, कातिलों का नाम फरिश्ता दिखाते हैं।।
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अपने सत्य से सभी लोग मुंह चुराते, झूठ का झंडा हाथ में लेकर झुलाते।
दीपकबापू ख्याली पुलाव रोज पकाते, जलाकर हाथ फिर मददगार बुलाते।।
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तमाम उम्र गुजारते अपनों को संभालते, कूड़ेदान में पड़े सपनों को खंगालते।
‘दीपकबापू’ सबकी खुशी की करें कामना, बहाने से अपना मतलब संभालते।।
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दिल में जगह नहीं घर बुलाते, स्वागत में सिर अहंकार में झूलाते।
‘दीपकबापू’ खुश होना भूल गये, बेदर्द लोग अपना दर्द यूं सुलाते।।
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पराये दर्द में खुशी तलाश करते, अपने दिल में लोग नाश भरते।
दीपकबापू अपना अस्तित्व भूले, स्वय को नाकाम निराश करते।।
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किसी का साथ छूटने की चिंता ने इतना कभी नहीं डराया।
इंतजार से नाता टूटने की खबर से जितना दिल थर्राथर्राया।।
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जिंदगी का दर्शन हर कोई अपने ढंग से सुनाता है।
कोई होता है दिलवाला जो जिंदा गीत गुनगनाता है।।
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जिंदा के दर्द का इलाज नहीं, लाशों को दवा बांटते हैं।
भरोसा  बेचने वाले सौदागर धोखे में फायदा छांटते हैं।
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हमने तोे हंसते हुए शब्द कहे, गलत अर्थ लेकर वह रोने लगे।
हमदर्दी जताना अब है महंगा, दिल की भाषा लोग खोने लगे।
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सेवकों के अभिनय से बनते समाचार, बहसों पर कुतर्कों का भार।
गंभीर लगते सारे विषय, हास्य रस का बंटता साथ में अचार।।
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हम तो दर्द बांटने गये उन्होंने समझा मजाक उड़ाने आये हैं।
कैसे समझाते उनके साथ हम सच्ची हमदर्दी जुड़ाने आये हैं।
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कटी पतंग की तरह हो गये लोग, राख चमकाये चेहरा अंदर पलें रोग।
‘दीपकबापू’ कृत्रिम सौंदर्य पर फिदा, अमृत छाप विष का करें भोग।।
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अपनी वाणी की करें तीखी धार, बेइज्जत लफ्ज का होता वार।
दीपकबापू अब ढूंढ रहे हमदर्दी, अपने दिल के जज़्बात दिये मार।।
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हंसी की भंगिमा भी बनी व्यापार, ठिठोली बना देती बड़ा कलाकार।
‘दीपकबापू’ विषय समझते नहीं, अपनी पीठ थपथपाकर करें बेड़ा पार।।
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सच कहो तो लोग बुरा माने, झूठ बोलना हम नहीं जाने।
बोलो तो शब्द का अर्थ समझें नहीं खामोशी में मिलें ताने।
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Sunday, September 4, 2016

जिंदगी के सफर में गुज़र जाते हैं जो मुकाम, वो फिर नहीं आते (Zindagi ke Safar mein Gujar jate hain jo Mukam-Hindi Article)

                     आनंद फिल्म का एक गाना है-जिंदगी है एक पहेली, कभी हंसाये तो कभी रुलाये।’  एक दूसरा गाना भी याद आ रहा है-‘जिदगी के सफर में गुज़र जाते हैं मुकाम वो फिर नहीं आते।’ एक दौर था जब  हमारी हिन्दी फिल्मों के गाने मनोरंजन के साथ ही दर्शन से भी भरे होते थे। यह ऐसे गाने थे जो गीत संगीत प्रेमी होने के साथ ही दिमाग मेें दर्शन तत्व भी स्थापित करते थे। कहते हैं कि जिंदगी के उम्र की दृष्टि से रुचिया बदलती हैं या बदल देना चाहिये।  हमें लगता है कि यह नियम उन लोगों पर लागू होता है जो जिंदगी में अभिव्यक्त होने के शौक नहीं पालते।  बहुत कम लोग होते हैं कि उनकी इंद्रियां ग्रहण करने के साथ ही त्याग के लिये भी लालायित रहती हैं।  जिस तरह हम मुख से ग्रहण वस्तुओं को पेट में अधिक नहीं रख पाते। उसी तरह स्वर, शब्द तथा दृश्य के संपर्क में आयी इंद्रियां भी गेय अर्थ का विसर्जन करना चाहती है।  मुश्किल यह है कि ग्रहण तथा विसर्जन के मध्य एक चिंतन की प्रक्रिया है जिसमें कोई भी अपनी बुद्धि खर्च नहीं करता चाहता।  ऐसा नहीं है कि लोग देखने, सुनने तथा बोलने की क्रिया से दूर रहते हैं पर उनके शब्द, व्यवहार तथा अन्य क्रियायें आंतरिक शोध के अभाव में अस्त व्यस्त दिखाईं देती हैं।
                समय के साथ जीवन शैली भी बदली है।  लोग आज प्रकृत्ति से अधिक आधुनिक साधनों के कृत्रिम आनंद से इस तरह जुड़े हैं कि उनका बौद्धिक अभ्यास न्यूनतम स्तर पर आ गया है।  परिणाम यह है कि मानसिक तनाव से पैदा बीमारियां बढ़ रही हैं।  हम कभी देखते थे कि नये सिनेमाघर बनते थे तो लोग उन्हें देखने जाते थे।  अब स्थिति यह है कि बड़े बड़े सिनेमाघर बंद हो रहे हैं और नये अस्पताल बाहर से ऐसे लगते हैं जैसे कि सिनेमाघर बना हो।  गीत संगीत के प्रेमी तो आज कम ही देखने को मिलते हैं।  हमारा अनुभव तो यह रहा है कि जिसे कोई अतिरिक्त शौक नहीं है उसमेें सोच की शक्ति भी कम ही रहती है। एक तरह से व्यक्ति रूखा होता है भले ही वह रुचिवान होने का दावा करता हो। जिंदगी के दौर में यह बदलाव सभी देखते हैं पर इस पर सोच पायें इसका कष्ट कम ही लोग उठाते हैं।
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