Sunday, June 29, 2008

भय के अँधेरे दूर करने के लिए सत्य के दीप जलाए जाते-हिन्दी शायरी

चलते हैं जो सत्य के पथ पर
अपने घर में भी वह पराये हो जाते
शहर भी जंगल जैसा अहसास कराये जाते
आदर्शों की बात जमाने से वही करते जो
कहने के बाद उसे भुलाये जाते

सभी संत सत्य पथ पर नहीं होते
सभी सत्य मार्ग के पथिक संत नहीं होते
जो चलते नैतिकता के साथ
उनको अनैतिकता के अर्थ पता नहीं होते
जो दुनियां को अपनी मशाल से मार्ग
वही पहले लोगों के घर के चिराग बुझाते
ऊंची ऊंची बातें करते है जो लोग
वही अपना चरित्र गिराये जाते

देव दानव का युद्ध इतिहास नहीं बना
क्योंकि अभी यह जारी है
किस्से बहुत सुनते हैं कि देवता जीते
पर लगता पलड़ा हमेशा दानवों का भारी है
फिर भी नहीं छोड़ते आसरा ईमान का
कितने भी महल खड़े कर ले
ढहता है वह बेईमान का
कोई नहीं गाता किसी के गुण तो क्या
भ्रष्टों के नाम बजते हैं
पर वह अमर नहीं हो जाते
अपने पीछे पीढियों के लिये बुराईयों के झुंड छोड़ जाते
बैचेन जिंदगी गुजारते हैं
उनके पाप ही पीछे से काटते
पर जिन्होने ली है सत्य की राह
वह चैन की बंसी बजाये जाते
भय के अंधेरे को दूर करने के लिये
सत्य के दीप जलाये जाते
.......................
दीपक भारतदीप

Saturday, June 28, 2008

ज़माने भर के विषय बाहर रख दिए-कविता


न कभी मांगी खुशी
न कभी उसने गम दिये
जब भी गये सर्वशक्तिमान के दरबार
जमाने भर के विषय
बाहर द्वार पर रख दिये

जिंदगी में उठते और गिरते रहे
पर उसको पुकारा नहीं
वह रहा चारों तरफ हर कहीं
आखें दी देखने के लिये
कान दिये सुनने के लिये
बुद्धि दी विचार के लिये
इससे ज्यादा उससे क्या मांगते
हाथ दिये हिलाने के लिये
पांव दिये चलने के लिये
पेट दिया पलने के लिये
इससे अधिक उससे क्या मांगते
तय किया फिर कभी न खड़े होंगे
उसकी दरबार पर मांगने के लिये

घूमती घरती और आकाश के
बीच जीवन जीते हुए
कभी गिरे तो कभी उठे
कभी दर्द मिला तो दवा भी मिली
उसके दरबार में जाकर उसका याद में
क्यों अपना समय बरबाद करते
ध्यान लगाकर उसके होने के अहसास में
ही इसलिये अपनी शक्ति व्यय करते
अपने ही हाथों से किसी पर दया करना
अपनी रोटी से ही किसी का पेट भरना
अपनी जुबान से सुंदर शब्दों का संवरना
कभी हमें अचरज में नहीं डालता
किसी के अपमान का दर्द नहीं सालता
किसी के भ्रम को अपना समझ कर नहीं पालता
इतनी शक्ति दी है उसने
सर्वशक्तिमान के आगे सिर झुकाता हूं इसलिये
...........................................
दीपक भारतदीप

Thursday, June 26, 2008

संत कबीर वाणी: शरीर छूट जाए पर लज्जा न छोडें

पपीहा पन को ना तजै, तजै तो तन बेकाज
तन छाड़ै तो कुछ नहीं, पर छाड़ै हैं ना लाज
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि पपीहा कभी भी अपने स्वाभाविकता का त्याग नहीं करता और यदि त्याग दे तो उसका जीवन ही व्यर्थ है। यह देह भले ही नष्ट हो जाये पर अपनी लाज का त्याग नहीं करना चाहिए।

चातक सुतहि पढ़ावई, आन नीर मति लेय
मम कुल याही रीत है, स्वाति बुंद चित देय


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि चातक अपने बालक को शिक्षा देता है कि अन्य किसी स्थान से जल ग्रहण मत करो। केवल स्वाति जल को ही ग्रहण करो। इस तरह वह चातक अपने कुल की रीति के अनुसार चलता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-जीवन में सुख और दुख तो लगे रहते हैं पर आदमी को कभी विचलित नहीं होना चाहिए। कई बार जीवन में ऐसा अवसर आता है कि आदमी को अपने स्वाभाविक गुणों से परे होने के लिये प्रेरित किया जाता है और न होने पर उसे पीड़ा पहुंचायी जाती है पर इससे उसको विचलित नहीं होना चाहिए। समय के अनुसार माया आती जाती है पर जो मानसिक रूप से परिपक्व होते हैं वह धनाभाव में भी अपने चरित्र और विश्वास पर दृढ़ रहते हैं और किसी प्रकार का निकृष्ट कर्म या व्यवहार नहीं करते। ऐसे चरित्र के संस्कार मनुष्य को अपने माता पिता से मिलते हैं। चरित्रवान लोग अपने बच्चों को भी ऐसी ही शिक्षा देते हैं कि विपत्ति पड़ने पर अपने नैतिक आधारों से दूर न रहते हुए दृ+ढ़ता पूर्वक अपने धर्म का पालन करें।

Wednesday, June 25, 2008

संत कबीर वाणीः दूसरे के मांस से खिचड़ी बेहतर भोजन

खुश खाना खीचड़ी, मांहि पड़ा टुक लौन
मांस पराया खाय के, गला कटावै कौन

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि खिचड़ी शरीर को स्वस्थ करने वाली होती है जिसमेंं थोड़ा नमक पड़ना होना चाहिए। किसी दूसरे जीवन का मांस खाकर अपना गला कटवाना बेकार है।

कहता हूं कहि जात हूं, कहा जू मान हमार
जाका गला तुम काटि हो, सो फिर काटि तुम्हार

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि हम जो कह रहे हैं वह बात मान लो जिसका गला तुम काटते हो वह भी समय आने पर (अगले जन्म में भी) तुम्हारा गला काट सकता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-मांसाहार के पक्ष में तर्क देने वाले अक्सर यह तर्क देते हैं कि अगर पशुओं का मांस नहीं खाया जाये तो वह इतनी संख्या में हो जायेंेगे कि मनुष्य का जीना ही दुश्वार हो जायेगा। यह मूर्खतापूण तर्क है। अपने पापों की वजह से कुछ जीव पशुओं के रूप में जन्म लेते हैं और वह अपने भोजन की वजह से दूसरें के मांस पा निर्भर रहते हैं। वह इस धरती पर प्रकृति का संतुलन स्थापित करने के लिए पर्याप्त हैं। यह अलग बात है कि मनुष्य ने वनों का क्षेत्र संकुचित कर दिया है औरा शेर, चीता, बाघ और अन्य पशु अब गिनती के लिये ही रह गये हैं। कुछ विद्वान तर्क देते हैं कि जो जीभ बिना निकाले पानी पीते हैं वह शाकाहारी होते हैं। मनुष्य भी ऐसा ही जीभ है अतः उसे मांसाहार से बचाना चाहिए। मांसाहार के समर्थन मेंं एक कथित विद्वान ने बेकार तर्क दिया था कि हमारी आतें मांसाहार को पचा सकतीं हैं इसलिये हमें मांस खाकर प्रकृति को अपना जीवन उपहार के रूप में देने के लिये पशुओं का मांस खाना चाहिए ताकि उसका संतुलन बना रहे।
स्वास्थ्य विज्ञान ने इस बात की पुष्टि कर दी है कि आदमी की आंतों को मांस खाने से भारी तकलीफ होती है।

जब पेट खराब होता है तो खिचड़ी से शरीर को भारी लाभ होता है अतः यह समझना चाहिए कि हमारी देह में अनेक विकास खाने से उत्पन्न होते है और मांस के बारे में यह कहना कठिन है कि वह किसी स्वस्थ पशु का है या नहीं। ऐसे में बीमारियों का खतरा तो रहता ही है और यह पाप अनवरत चलता है। हो सकता है किसी पशु का मांस विकृत हो और पेट में जाकर वह ऐसा विकास उत्पन्न करे जो मनुष्य को अपनी जान देनी पड़े। यह विचार करना चाहिए। अंततः यह समझ लेना चाहिए कि मांस खाने के दुष्परिणाम होते ही हैं।

Tuesday, June 24, 2008

संत कबीर वाणी -शिक्षा से मन में अहंकार बढ़ जाता है।

पढ़ते गुनते जनम गया, आसा लोगी हेत
बोया बीजहि कुमति ने, गया जू निर्मल खेत

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि पढ़ते और समझते यूं ही सारा जीवन व्यर्थ चला जाता है पर मनुष्य सांसरिक विषयों में ही लिप्त रहते हुए अपना जीवन नष्ट कर देता है। कुमति ऐसा बीज बो देतेी है कि मनुष्य का जीवन रूपी खेत नष्ट हो जाता है।

पढ़त गुनत रोगी भया, बढ़ा बहुत अभिमान
भीतर ताप जू जगत का, घड़ी न पड़ती सान


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं पढ़ते समझते आदमी रोगी और अहंकारी हो जाता है। उसके मन में संसारिक विषयों की अग्नि उसे दग्ध किये देती है पर उसे पल भर भी शांति नहीं मिलती।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-शिक्षित होने वालों को स्वाभाविक रूप से अहंकार तो आ ही जाता है। बहुत कम लोग ऐसे हैं जो यह समझते हैं कि विद्यालयों और महाविद्यालयों में दी जा रही सांसरिक विषयों से जीवन में अध्यात्मिक लाभ नहीं हो सकता है। इस विषय पर अधिक क्या कहा जाये? भारतीय अध्यात्म विषयों से परे वर्तमान शिक्षा प्रणाली से लोगों के चिंतन और मनन की प्रवृत्ति नहीं पैदा हो पाती। शैक्षणिक विषयों से संबंधित पुस्तकों का रट्टा लगा लिया और परीक्षा उत्तीर्ण करते हुए छोटे और बड़े पदों पर पहुंच जाते हैं। इसके बाद जब जीवन अध्यात्मिक ज्ञानकी बात आये तो अपने प्राचीनतम ग्रंथों के चंद वह श्लोक या दोहे सुनाते हैं जिनमें किसी वर्ग के प्रति नकारात्मक विचार होता है। यह श्लोक और दोहे होते हैं जो भारतीय अध्यात्म के विरोधी अपने प्रचार के लिऐ उपयोग करते हैं।

आखिर इस देश में इतने शिक्षित लोग हैं फिर अशांति क्यों है? कहीं भी दृष्टिपात करिये शिक्षित लोग ही अपराधिक कृत्यों में लिप्त हैं। यह इस बात को दर्शाता है कि शिक्षा के कारण में उनमें ऐसा अहंकार आ जाता है जो उनको भले-बुरे की पहचान नहीं होती। उनका पढ़ना लिखना निरर्थक है। वह अपने परिवार और समाज के लिये कोई हित नहीं करते।

दूसरी बात यह भी है कि भारतीय अध्यात्म ग्रंथ पढ़ने और सुनने वाले भी कोई भक्त नहीं हो जाते। अनेक कथित विद्वान यह ग्रंथ पढ़कर देहाभिमान से ग्रसित होते हैं और चाहे जहां अपना ज्ञान सुनाकर अपनी श्रेष्ठता का प्रचार करते हुए धनार्जन करते हैं। वह अपने ग्रंथों का वही ज्ञान सुनाते हैं जिससे सुनने वाले उनको गुरू मानते हूए दान-दक्षिण दें। सुनने वाले भी यह सोचकर प्रसन्न हो जाते हैं कि हमने सुनकर कोई पुण्य का काम कर लिया। समाज और देश के हित के लिऐ काम करने वाले शिष्य कोई नहीं बनाना चाहता। मुख्य बात यह है कि ग्रंथों का अध्ययन या श्रवण किया जाना पर्याप्त नहीं है बल्कि उसमें वर्णित ज्ञान को मन मस्तिष्क में धारण कर उस मार्ग पर चलने का है।

Saturday, June 21, 2008

संत कबीर वाणीःमित्रता से उत्पन्न होती है भक्ति में बाधा

दुनिया सेती दोसती, होय भजन में भंग
एका एकी राम सों, कै साधुन के संग


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि लोगों से मैत्री करने से भजन में भंग होता है। इसलिये एकांत में ही राम का नाम लेते हुए ध्यान करना चाहिए या फिर सच्चे संतों की संगत में बैठना चाहिए।

मेरा संगी कोय नहिं, सबै स्वारथी लोय
मन परतीति न ऊपजै, जिस विस्वास न होय


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार में मेरा कोई साथी नहीं है। यहां पर तो सभी लोग अपने स्वार्थ के जुड़े हुए हैं। इसलिये भले ही मन नहीं मानता हो या विश्वास न होता हो यह एक सच्चाई है जिसे हमेशा याद रखना चाहिए कि यहां हर व्यक्ति स्वार्थी है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-यह एक वास्तविकता है कि ध्यान, स्मरण और भक्ति का लाभ एकांत साधना से ही संभव है। कहीं किसी धार्मिक कार्यक्रम में जाईये जो लोग अपने साथ किसी को ले जाते हैं पर एक दूसरे से सांसरिक बातें करने लगते हैं और यह भूल जाते हैं कि वह बैठे कहां हैं। कई लोग तो केवल इसलिये सत्संग और प्रवचन कार्यक्रमों में जाते हैं कि कोई परिचित या मित्र साथ चल रहा है-उनका विचार होता है कि इससे दो काम सिद्ध हो जायेंगे एक तो बातें भी हो जायेंगी और सत्संग भी हो जायेगा। कई लोग बसों में भरकर तीर्थस्थानों में भक्ति भाव प्रदर्शन करने जाते हैं और अपने सहयात्रियों के साथ वही सांसरिक बातें करते हैं जो घर पर होती हैं। इस तरह लोग अपने आपको ही धोखा देते हैं। शोर में भक्ति नहीं होती-हालांकि कुछ देर के लिये अपने को लोग तसल्ली देते हैं पर उनके मन और तन के विकार नहीं निकल पाते और इसलिये वह भक्ति और साधना से मिलने वाले लाभों से वंचित हो जाते हैं।

ऐसा नहीं है कि हम अगर किसी मंदिर या ध्यान केंद्र में जायें तो वहां कोई अन्य व्यक्ति न हो तभी भक्ति करें। हां, हमारे साथ कोई न हो और हम वहां जाकर अपने आपको अकेले अनुभव करें तभी एकांत साधना करें। ऐसे धार्मिक स्थलों पर अनेक लोग आते हैं पर कोई परिचित न हो तो किसी से बात नहीं हो पाती और भीड़ में भी एकांत मिल सकता है क्योंकि उस समय किसी के साथ न होने की अनुभूति स्वतः एकांत प्रदान करती है। जहां साथ चलने के लिये किसी व्यक्ति को साथ लिया वहां भक्ति और साधना का भाव लुप्त हो जाता है और मन और तन के विकार निकालने के लिये एकाग्रता होना आवश्यक है।

Thursday, June 19, 2008

संत कबीरवाणी:तोते की तरह पढ़कर पिंजरे में बंद होने से क्या फायदा

पढि पढि और समुझावइ, खोजि न आप सरीर
आपहि संशय में पड़े, यूं कहि दास कबीर


संत शिरोमणि कबीरदास कहते हैं कि लोग लोग किताबें पढ़कर दूसरों को समझाते हैं पर अपने जीवन में सत्य को नहीं खोज पाते। ऐसे पढ़ने वाले स्वयं ही संशय में पड़े होते हैं वह भला और लोगों को क्या मार्ग दिखायेंगे।

चतुराई पोपट पढ़ी, पडि सो पिंजर मांहि
फिर परमोधे और को, आपन समुझै नांहि


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि ऐसे चतुराई का लिखना पढ़ना तो व्यर्थ ही है जो पिंजरे में बंद तोता बनना पड़े। वह तोता अन्य लोगों को उपदेश तो देता है पर अपने पिंजरे से आजाद होने का मार्ग नहीं जानता।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-जब कबीरदास जी ने यह दोहा कहा होगा तब कोई लार्ड मैकाले नहीं था जो गुलाम बनाने की शिक्षा पद्धति का निर्माण करता पर फिर भी उस समय ऐसे कथित विद्वान रहे होंगे जो चंद किताबें पढ़कर उसी तरह ज्ञान बेचने का व्यवसाय करते होंगे जैसा कि वर्तमान में कर रहे हैं। आज की तो समूची शिक्षा पद्धति ही आदमी को गुलाम बनाने वाली है। जिन्होंने शिक्षा पद्धति से शिक्षा ग्रहण की है वह सब नौकरी कर रहे हैं या उसकी तलाश में है। भजन और भक्ति में मन तो तभी लग सकता है जब आदमी अपने मस्तिष्क मेें स्वतंत्र सोच रखता हो। वैसे वर्तमान शिक्षा पद्धति से जिन लोगों ने शिक्षा नहीं ग्रहण की उनको अनपढ़ या निरक्षर कहा जाता है पर वह फिर भी अपने स्वतंत्र व्यवसाय कर भजन भक्ति कर लेते हैं। इसके विपरीत जिन लोगों ने तमाम तरह की उपाधियां प्राप्त की हैं वह तो गुलामों जैसी मानसिकता के हैं अपने से अधिक पद, प्रतिष्ठा और पैसे वाले की ऐसे ही गुलामी करते हैं जैसे उनके बिना उनके जीवन का गुजारा नहीं होता हो। यह अलग बात है कि अब ऐसे ही लोग समाज में उपदेश देने का काम करते हैं। धार्मिक ग्रंथों की अपने ढंग से व्याख्या करते हैं और जो नहीं करते वह भी बिना किसी तर्क के उपदेशों पर यकीन कर उनको अपना गुरू मान लेते हैं। कुल मिलाकर स्वतंत्र सोच और चिंतन का लोगों मे अभाव है जबकि अधिक शिक्षित व्यक्ति को अपने ढंग से स्वतंत्र चिंतन, मनन और अनुसंधान कर परिपक्व अभिव्यक्ति का परिचय देना चाहिए न कि तोते की तरह रटकर ज्ञान बांटते हुए स्वयं के मन को मोह माया के पिंजरे में बंद करना चाहिए।
यह इस ब्लाग की सौवां पाठ है-दीपक भारतदीप

Friday, June 13, 2008

संत कबीर वाणीःजहां हरियाली थी वहां ठूंठ खड़े रह गये

खलक मिला खाली हुआ, बहुत किया बकवाद
बांझ हिलावै पालना, तामें कौन सवाद

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि संसार के विषयों मेंं लिप्त व्यक्तियों से मुलाकात में उनसे निर्रर्थक विषयों पर वार्तालाप कर समय नष्ट करना ही है। यह तो ऐसे ही हुआ जैसे कोई बांझ स्त्री खाली पालना हिलाती रहे क्योंकि उसमें कोई सार्थकता नहीं है।

भय से भक्ति करै सबै, भय से पूजा होय
भय पारस है जीव को, निरभय होय न कोय

संत कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य भय के कारण ही भगवान की भक्ति और पूजा में लिप्त होते हैं। इस प्रकार भय तो जीवों के लिये पारसमणि होती है जो उनको सत्संग और भक्ति में लगाकर कल्याण करती है। निर्भयता से आदमी निरंकुश होकर कुमार्ग पर भटक जाता है।

राम भजो तो अब भजो, बहोरि भजोगे कब्ब
हरिया हरिया रुखड़, ईंधन हो गये सब्ब


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि भगवान की भक्ति करना है तो शुरु कर दो। फिर समय निकल जायेगा तो कब करोगे। काल की गति विचित्र है। जहां कभी हरे-भरे पेड़ थे वहां ठूंठ खड़े गये और सारा ईंधन समाप्त हो गया।

संक्षिप्त व्याख्या-अक्सर लोग कहते हैं कि भगवान भक्ति तो वृद्धावस्था में करना चाहिए जबकि यह वास्तविकता है कि जब बचपन से ही भगवान भी भक्ति या सत्संग का भाव पैदा नहीं हुआ तो फिर कभी पैदा नहीं होता। भक्ति और सत्संग के प्रति भाव पैदा करने में ही अपने अंदर की बहुत ऊर्जा का होना जरूरी है। विषयों से मन हटाकर भक्ति में मन तभी लग सकता है जब अपने अंदर धैर्य हो वह तभी संभव है जब अपने अंदर शक्ति हो। कहते हैंं न शक्तिशाली व्यक्ति बोलते कम है। जब वृद्धावस्था में सारी इंद्रियां शिथिल हो जाती हैं तब आदमी में धैर्य भी समाप्त हो जाता है और वह जरा जरा सी बात निराश और क्रोधित हो उठता है। ऐसे में उसमें भक्ति भाव बन सके यह संभव नहीं है। इसलिये जब अपने शरीर में शक्ति हो तभी अपने अंदर सत्संग और भक्ति भाव की स्थापना करना चाहिए ताकि वृद्धावस्था में उसके लिये कोई प्रयास नहीं करना पड़े।

Thursday, June 12, 2008

संत कबीर वाणीःकामना का त्याग किये बिना अहंकार से परे होना कठिन

मान तजा तो क्या भया, मन का मता न जाय
संत वचन मानै नहीं, ताको हरि न सुहाय


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपना अहंकार त्यागने से भी क्या लाभ जब मन पर नियंत्रण न हो सके। जो संतों के वचन नहीं सुनता उसे भगवान भक्ति कभी अच्छी नहीं लग सकती।

कंचन तजना सहज है, सहज तिरिया का नेह
मान बढ़ाई ईरषा, दुरलभ तजनी येह


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि सोने का त्याग करना सहज हो सकता है। स्त्री के प्रति जो मन में आकर्षण है उसका त्याग किया जा सकता है। परंतु दूसरों से सम्मान पाने का मोह त्याग करना कठिन है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अक्सर अनेक गुरु कहते हैं कि अहंकार छोड़ दो। एक नारे की तरह अनेक व्यवसायिक संत दोहराते हैं कि अहंकार छोड़ दो। वास्तव में कई लोग अहंकार छोड़ने का प्रयास भी करते हैं पर मन में जब तक कामनाओं का भाव है तब तक यह प्रयास निरर्थक है। मन में अगर किसी वस्तु की प्राप्ति का भाव पैदा होने पर मनुष्य उसके पीछे भागता तब फिर वही अहंकार का भाव उसमें पैदा होता है। अहंकार छोड़ने का मतलब यह कतई नहीं है कि कामनाओं का दास बना जाये। संसार के पदार्थों के प्रति मोह कभी अहंकार का भाव खत्म नहीं होने देगा। कुछ देर एसा लगता है कि अहंकार का भाव छोड़कर मान-अपमान से परे हुआ जाये पर मन में कामना का भाव इसमें बाधा उत्पन्न कर देता है।

सोना चांदी और अन्य संपत्तियों का त्याग किया जा सकता है, स्त्री के प्रति जो स्वाभाविक भाव है उससे दूर हुआ जा सकता है पर सम्मान पाने का मोह छोड़ पाना तो सिद्ध संतों और योगियों के लिये ही संभव है। हमारे समाज का एक सत्य तो यह है कि लोग साधू और संतों का चोगा केवल भोजन और सम्मान पाने के लिये धारण करत हैं। वही कहते रहते हैं कि अहंकार छोड़ दो पर सबसे अधिक अहंकार उनको ही होता है। अपने प्रवचनों में मैं-मैं रट लगाने वाले यह संत भी माया के वश में इस तरह जकड़े रहते हैं कि उनकी मुक्ति संभव नहीं लगती है। अनेक लोगों ने बड़े-बड़े आश्रम बना लिये हैं। करोड़ों रुपये व्याज पर चला रहे हैं और लोगों से कहते हैं कि माया का त्याग करो। इसके लिये जिस तप की आवश्यकता है वह विरले ही कर पाते हैं और फिर वह आकर अपनी सफलता का ढिंढोरा नहीं पीटते न ही शिष्यों को दीक्षा देने के लिये दौरे करते हैं। भक्त गण उनके पास जाकर उनके दर्शन कर अपने को धन्य समझते हैं।

Wednesday, June 11, 2008

संत कबीर वाणीःसांसरिक कार्यों में केवल समय नष्ट करना मूर्खता

या मन गहि जो थिर रहे, गहरी धूनि गाडि़
चलती बिरियां उठि चला, हस्ती घोड़ा छाडि़
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो अपने मन को स्थिर कर ज्ञान की की गहरी धूनि गाड़ता है वह वही श्रेष्ठ मनुष्य है। मरने के बाद तो सब हाथी, घोड़े और संपदा यही छोड़कर सभी खाली हाथ चले जाते हैं।

दीप गंवायो संग, दूनी न चाली हाथ
पांव कुल्हाड़ी मारिया, मूरख अपने हाथ


संत शिरोमणि कबीरदास के जिन लोगों के साथ रहते हुए आदमी अपना धर्म कर्म छोड़कर सांसरिक कामों में व्यस्त रहता है वे भी अंतकाल में काम नहीं आते। भक्ति और सत्संग छोड़कर केवल सांसरिक कामों में अपना समय बर्बाद करना अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना जैसी मूर्खता है।
संक्षिप्त व्याख्या-यह एक वास्तविकता है कि बिना भक्ति और सत्संग के मनुष्य के मन को शांति नहीं मिलती। सुबह शाम आदमी अपना समय केवल संसार के पदार्थों क संचय में व्यस्त रहता है। वैसे देखा जाये तो प्रातःकाल का समय अपने तन, मन और विचारों में विकार बाहर निकालने का है पर आदमी सुबह से ही सांसरिक कार्यों में लिप्त होकर या उनकी चर्चा कर उसमें लिप्त हो जाता है। उसे लगता है कि जीवन का आनंद सुबह से उठाना चाहिए। सच तो यह है कि यह आनंद कोई लाभदायक नहीं होता। अगर ऐसा होता तो भला आजकल क्यों लोग मानसिक अवसाद की शिकायत करते हैं। जितना ही सांसरिक कार्यों में व्यस्त होंगे उतना ही मस्तिष्क में तनाव बढ़ेगा। हाड़ मांस के बने इस मस्तिष्क को रात को सोते समय भी चैन नहीं देते और सांसरिक बातों की चर्चा करते या सोचते हुए सोने का प्रयास करते हैं और निद्रा भी ठीक ने नहीं आती। इस तरह अपना पूरा जीवन केवल निरर्थक होता जाता है। इसलिये अपना समय भक्ति और सत्संग में भी अवश्य लगाना चाहिये।

Tuesday, June 10, 2008

मनुस्मृतिःधर्म देह त्यागने के बाद भी साथ चलता है

धर्म एवं हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नोधर्मेहत्तोऽवधीत्


हिंदी में भावार्थ-जो मनुष्य धर्म की हत्या करता है धर्म उसका संपूर्ण नाश कर देता है। जो धर्म की रक्षा करता है धर्म उसकी रक्षा करता है। इसलिये अपने धर्म की रक्षा करना चाहिए तभी हमारी रक्षा हो पाती है।

एक एव सहृद्धर्मो निधनेऽष्यनुयाति यः
शरीरेण समं नाशं सर्वमन्यद्धि गच्छति

हिंदी में भावार्थ-एक मात्र धर्म ही ऐसा मित्र है जो मरने के बाद भी साथ चलता है, वरना इस देह के त्याग करने के बाद यहां कुछ भी नहीं रह जाता।

संक्षिप्त व्याख्या-मनुष्य का धर्म है इस प्रकृति की अपने सामथर्यानुसार सेवा करना, समस्त जीवों पर दया करना तथा अपना सांसरिक कर्म करते हुए भगवान भक्ति एवं सत्संग करना। हमारे अध्यात्म में निरंकार की निष्काम भक्ति की प्रधानता है पर सकाम भक्ति भी स्वीकार्य है पर वह हृदय से की जाना चाहिए। ऐसा लोग करते नहीं है। अधिकतर लोग दिखावे की भक्ति करते हैं और सकाम भक्तों द्वारा थोपे कर्मकांडों की आलोचना कर अपने धर्म पर ही आक्षेप करते हैं। देख जाये तो लोग अपने धर्म से परे हो गये हैं और इसलिये पूरे विश्व में अशांति और प्राकृतिक प्रकोप का बोलबाला है। हमारे धर्म के अनुसार विश्व के सभी जीवन समान है पर अब मानव की प्रधानता वाली विचारों की स्थापना कर यह साबित किया जा रहा है कि यह प्रथ्वी उनके लिये हैं। वन सपंदा और पशु संपदा का दोहन निर्ममता से किया गया है। धर्म से परे होगये तो अब वह रक्षा करने में भी समर्थ नहीं है।

ऐसे में अपने धर्म के मूल तत्वों को अपने हृदय में धारण कर उसके अनुसार ही जीवन व्यतीत करना ही श्रेयस्कर है।

Monday, June 9, 2008

संत कबीर वाणी:नाव में जल और घर में धन बढ़ने लगे तो दोनों हाथ से निकालो


बाले जैसी किरकिरी, ऊजल जैसी धूप
ऐसी मीठी कछु नहीं, जैसी मीठी चूप


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि रेत के समान किसी अन्य वस्तु में किरकिराहट (चिकनाहट)नही है। धूप के समान कोई अन्य वस्तु उजली नहीं है। ऐसे ही चुप या मौन रहने से अधिक कोई अन्य वस्तु मीठी नहीं है।

जो जल बाढ़े नाव में, घर में बाढ़ै दाम
दोनों हाथ उलीचिये, यही सयानों का काम

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते है। कि जब नाव में जल और घर में धर बढ़ने लगे तो उसे दोनों हाथ से बाहर निकालना ही सयानों का काम है।

रितु बसंत याचक भया, हरखि दिया द्रुम पात
ताते नव पल्लव भया, दिया दूर नहिं जात


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि बसंतु ऋतु जब याचना करता है तब वृक्ष अपने पत्ते खुशी से देता है और फिर उसमें शीघ्र ही नये और ताजे हरे पत्ते आ जाते हैं। अतः यह सत्य बात है कि कभी किसी को कुछ निष्फल नहीं जाता।

संक्षिप्त व्याख्या-मनुष्य में संचय की प्रवृत्ति अधिक होती है और वही उसके दुःख का कारण भी है। इस संसार में वही व्यक्ति सुखी है जो किसी को कुछ देता है। देने मं एक सुख है उसे वही अनुभव कर पाता है जो दान करता है। यह कई लोगों का मतिभ्रम होता है कि किसी को कुछ देने से धन कम हो जाता है। पाने का मोह आदमी को अंसयमित बनाता है। धन आ भी जाता है तो मन की शांति नहीं आती। क्योंकि जिस धन को हम कमा रहे हैं उसकी कोई उपयोगिता अधिक नहीं रह जाती। उससे हम उतनी ही खुशी पा सकते हैं जितने से हमारी आवश्यकताएं पूरी होती हैं। बाकी बचा हुआ धन सड़ता है और उसकी अनुयोगिता हमारा मन त्रस्त करती है। अगर उसमें से सुपात्र को धन दिया जाये तो मन में एक अजीब प्रकार की सुखद अनुभूति होती है। सयाने लोग इसलिये ही दान की महिमा का बखान करते है।

Sunday, June 8, 2008

संत कबीर वाणीःबैल बनाते हुए पुरुष बना डाला

बैल गढन्त पर गढ़ा, चूका सींग न पूंछ
एकहि गुरु के नाम बिनु, धिक दाढ़ी धिक मूंछ


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि परमात्मा ने बैल को रचते हुए ही पुरुष की रचना कर डाली बस उसने सींग व पूंछ न लगाने की गलती की। सद्गुरु के ज्ञान के बिना उसकी दाढ़ी मूंछ को धिक्कार है।

संक्षिप्त व्याख्या-यहां कबीरदास जी पुरुष के अहंकार को चुनौती देते हुए कहते हैं कि वह सोचता है कि उसका परिवार उसकी शक्ति पर ही चल रहा है और वह इसलिये हमेशा केवल अपने व्यवसाय और नौकरी में जुटा रहकर भक्ति भाव से परे रहने की गलती करते हुए अपना पूरा जीवन व्यर्थ ही नष्ट कर देता है।

हे मतिहीनी माछीरी, राखि न सकी शरीर
सो सरवर सेवा नहीं, जाल काल नहिं कीर


संत शिरोमणि कबीरदासजी कहते हैं कि बुद्धिहीन मछली अपनी देह की रक्षा नहीं कर सकी क्योंकि उसने गहरे सरोवर का सेवन नहीं किया और जहां जाल रूपी काल उसके पास नहीं पहुंच सकता था। वह तो ऊपर ही तैरती रही और शिकारी के जाल में फंस गयी।

संक्षिप्त व्याख्या-सद्गुरु के ज्ञान के अभाव में मनुष्य सदैव ही मोह माया में चक्कर में फंसा रहता है और परमात्मा का स्मरण नहीं करता और जब अंतकाल आता है तो पछताता है। आदमी अपने जीवन को अक्षुण्ण मानकर भौतिक वस्तुओं का संग्रह करता है पर भक्ति करने के नाम पर नाकभौ सिकोड़ता है। अपना पूरा जीवन ऐसे ही व्यर्थ नष्ट कर देता है। ज्ञान के अभाव में वह जीवन के रहस्यों से अनभिज्ञ रहते हुए ही अपना शरीर त्याग देता है।

Saturday, June 7, 2008

भृतहरि शतकःकामदेव का शिकार हुए बिना युवावस्था निकल जाये तो धन्य समझें

श्रृङगारद्रुमनीरदे प्रचुरतः क्रीडारसस्त्रोतसि
प्रद्युम्नप्रियन्धवे चतुरवाङ्मुक्ताफलोदन्वति।
तन्वीनेत्रयचकोरवनविधौ सौभाग्यलक्ष्मीनिधौ
धन्यः कोऽपि न विक्रियां कलयति प्राप्ते नवे यौवने


हिंदी में भावार्थ’- जैसे श्रृंगार रस के पौधे को मेघ सींचकर उसको वृक्ष का रूप प्रदान करते हैं वैसे ही युवावस्था में अपने कदम रख रहे युवकों के हृदय में कामदेव उत्तेजना और काम भावना उत्पन्न करते हैं। उनका इष्ट तो कामदेव ही होता हे। वह अपनी वाणी से ऐसी भाषा का उपयोग करते हैं जिससे कि नवयुवतियां का हृदय जीतकर उसमें अपना स्थान बनायें। नवयुवतियां भी पूनम के चंद्रमा की तरह दृष्टिगोचर होती हैं और वह उन युवकों को एकटक देखकर आनंद विभोर होती हैं। इस युवावस्था में जो नहीं बहके उस तो धन्य ही समझना चाहिए।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-प्राचीन काल में जब समाज इतना खुला नहीं था तब संभवतः भृतहरि के इस श्लोक को इतना महत्व नहीं मिला होगा जितना अब खुलेपन की राह पर चलते हुए समाज को देखते हुए लग रहा है। भारत के उष्ण जलवायु के चलते वैसे भी लोगों में काम भावना अधिक होती है। हम लोग अक्सर ऐसे समाचार सुंनते हैं जिसमें अनैतिक अथवा विवाहेत्तर संबंधों का दुष्परिणाम सामने आता है। कहा जाता है कि बुराई का अंत भी बुरा ही होता है। कामदेव के क्षणिक प्रभाव में आकर कई लोग अनेक गल्तियां कर जाते हैं और फिर उसका दुष्परिणाम उनको जीवन भर भोगना पड़ता है। आजकल जिनके पास पैसा, पद और प्रतिष्ठा है वह अनैतिक या विवाहेत्तर संबंध बनाने में कोई संकोच नहीं करते। एक नहीं ऐसे हजारांे उदाहरण है जब ऐसे गलत संबंधों के कारण लोग अपराध में लिप्त हो जाते हैं। जो युवक-युवतियां अपने परिवार से मिली छूट का लाभ उठाकर खुलेपन से यौन संबंध तो बना लेते हैं पर बाद में जब जीवन संजीदगी से गुजारने का विचार आता है तो स्वयं को उसके लिये तैयार नहीं कर पाते। कहीं युवतियां तो कहीं युवक इस कामदेव के शिकार होकर अपनी देहलीला तक समाप्त कर लेते हैं। कुछ युवतियां को युवकों की हिंसा का शिकार भी होना पड़ता है। हालांकि आजकल प्रचार माध्यमों में इसे कथित रूप से प्यार कहा जाता है पर यह एक भ्रम है। आजकल के नवयुवक नवयुवतियों को आकर्षित करने के लिए उनको शायरी और गीत सुनाने प्रभावित करने का प्रयास करते हैं जो उन्होंने कहीं से उठा ली होती हैं। वह इस तरह का प्रयास करते हैं कि उनको एक कवि या शायर समझकर नवयुवतियां प्रभावित हो जायें।

यह तो कामदेव की माया है। हमारे देश में प्यार या प्रेम के अर्थ बहुत व्यापक होते हैं पर पश्चिम की संस्कृति को अपनाने के कारण यह केवल युवक-युवतियों के संबंधों तक ही सीमित रह गया हैं। ऐसे में जो नवयुवक और नवयुवतियां इस अवस्था से सुरक्षित निकल जाते हैं वह स्वयं अपने को धन्य ही समझें कि उन्होंने कोई ऐसी गलती नहीं की जिससे उनको जीवन भर पछताना पड़े।

Friday, June 6, 2008

भृतहरि शतकःअकारण बैर लेना दुष्टता का प्रतीक

मृगमीनसज्जनानां तृणजलसन्तोष विहितवृत्तीनाम्।
लुब्धकधीवरपिशुना निश्कारणवैरिणोजगति


हिंदी में भावार्थ मृग वन में घास खाकर और मछली जल में उसका सेवन का अपना जीवन शांति के साथ बिताते हैं पर शिकारी और बहेलिये फिर भी उनसे बैर कर उनका जीवन नष्ट करते हैं। ऐसे ही दुष्ट लोगों का स्वभाव होता है कि वह अकारण ही दूसरों से बैर लेकर उनको कष्ट पहुंचाते हैं।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-आजकल हम पूरे विश्व में आतंकवाद का प्रकोप देख रहे हैं उसका कारण यह है कि उन लोगों की मानसिकता है कि वह अकारण ही दूसरों पर हमला करते हैं। ऐसे दुष्ट लोग स्वयं भी जल्दी नष्ट होते हैं पर जब तक देह धारण करते हैं तब तक दूसरों को कष्ट देते हैं। वैसे हर जगह ऐसे लोगों की बहुतायत है जो दूसरों से बैर लेते हैं पर कई ऐसे लोग भी हैं जो अकारण ही मन में दूसरों के प्रति द्वेष रखते हैं। कई बार कई सामान्य मनुष्यों के मन में भी दूसरे की हानि होते देखने की इच्छा पैदा होती है। ऐसे में सभी लोगों को यह देखना चाहिए कि उनके मन में भी किसी के प्रति द्वेषभाव पैदा न हो। यह ठीक है कि मन में आने से कोई किसी को हानि नहीं पहुंचाता पर आखिर किसी की हानि का भाव मन में भी लाना तो दुष्टता का ही प्रतीक है।

Thursday, June 5, 2008

भृतहरि शतक:नौकर का धर्म निभाना होता है कठिन


मौनान्मूकः प्रवचनपटूर्वातुलो जल्पको वा
धृष्टः पाश्र्वे वसति च सदा दूरतश्र्चाऽप्रगल्भ
क्षान्त्या भीरुर्यदि न सहते प्रायशो नाभिजातः
सेवाधर्मः परमगहना योगिनामप्यगम्यः


हिंदी में भावार्थ-इस संसार में सेवा का धर्म अत्यंत कठिन है। यदि सेवाक मौन रहे तो उसे गूंगा और बात करे तो बकवादी कहेंगे। अगर हमेशा ही अपने पास बैठा रहे तो ढीठ और दूर रहे तो मूर्ख माना जायेगा। क्षमाशील होता भीरु और अगर कोई बात सहन न करे तो निम्न कोटि का कहा जायेगा। इस बात को तो योगीजन भी समझ नहीं पाते।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-यहां सेवा से आशय परमार्थ के लिए की जाने वाली सेवा नहीं है वरन् जो अपने पेट पालने के लिए दूसरों की नौकरी करने से है। आज हमारे देश के सभी शिक्षित लोग नोकरी के पीछे भाग रहे हैं और जो नौकरी कर रहे हैं वह सब ऐसी हालत का सामना करते हैं जिसमें उन्हें अपनी स्थिति समझ मेे नहीं आती। कुल मिलाकर अगर हम कहीं नौकरी कर रहे हैं तो अपने आत्म सम्मान की बात आजकल तो भूल ही जाना चाहिए। नौकरी चाहे निजी हो या सरकारी उसमें आदमी के लिऐ तनाव तो रहता ही है। यहां बोस के ऊपर बोस है पर हैं सभी नौकरी करने वाले। नौकरी करते हुए किसी को प्रसन्न नहीं किया जा सकता हैं। इसलिये निश्चिंत होकर नौकरी करें तो ही ठीक है। उसमें अगर आत्म सम्मान बचाने का विचार किया तो वह संभव नहीं है।

Wednesday, June 4, 2008

रहीम के दोहे:छोटे लोग इतराते हैं बहुत

बड़े पेट के भरन को, है रहीम देख बाढि
यातें हाथी हहरि कै, दया दांत द्वे काढि

कविवर रहीम कहते हैं कि जो आदमी बड़ा है वह अपना दुख अधिक दिन तक नहीं छिपा सकता क्योंकि उसकी संपन्नता लोगों ने देखी होती है जब उसके रहन सहन में गिरावट आ जाती है तब लोगों को उसके दुख का पता लग जाता है। हाथी के दो दांत इसलिये बाहर निकल आये क्योंकि वह अपनी भूख सहन नहीं कर पाया।

बड़े बड़ाई नहिं तजैं, लघु रहीम इतराइ
राइ करौंदा होत है, कटहर होत न राइ

कविवर रहीम कहते हैं कि बड़े आदमी कभी अपने मुख से स्वयं अपनी बड़ाई नहीं करते जबकि छोटे लोग अहंकार दिखाते है। करौंदा पहले राई की तरह छोटा दिखाई देता है परंतु कटहल कभी भी राई के समान छोटा नजर नहीं आता।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-कहा जाता है कि धनाढ्य व्यक्ति इतना अहंकार नहीं दिखाता जितना नव धनाढ्य दिखाते हैं। होता यह है कि जो पहले से ही धनाढ्य हैं उनको स्वाभाविक रूप से समाज में सम्मान प्राप्त होता है जबकि नव धनाढ्य उससे वंचित होते हैं इसलिये वह अपना बखान कर अपनी प्रभुता का बखान करते हैं और अपनी संपत्ति को उपयोग इस तरह करते हैं जैसे कि किसी अन्य के पास न हो।

वैसे बड़ा आदमी तो उसी को ही माना जाता है कि जिसका आचरण समाज के हित श्रेयस्कर हो। इसके अलावा वह दूसरों की सहायता करता हो। लोग हृदय से उसी का सम्मान करते हैं जो उनके काम आता है पर धन, पद और बाहुबल से संपन्न लोगों को दिखावटी सम्मान भी मिल जाता है और वह उसे पाकर अहंकार में आ जाते हैं। आज तो सभी जगह यह हालत है कि धन और समाज के शिखर पर जो लोग बैठे हैं वह बौने चरित्र के हैं। वह इस योग्य नहीं है कि उस मायावी शिखर पर बैठें पर जब उस पर विराजमान होते हैं तो अपनी शक्ति का अहंकार उन्हें हो ही जाता है। जिन लोगों का चरित्र और व्यवसाय ईमानदारी का है वह कहीं भी पहुंच जायें उनको अहंकार नहीं आता क्योंकि उनको अपने गुणों के कारण वैसे भी सब जगह सम्मान मिलता है।

Tuesday, June 3, 2008

संत कबीर वाणी:पतंगे की तरह माया के आगे न मंडराएं

माया सेती मति मिली, जो सोबरिया देहि
नारद से मुनिवर गले, क्याहि भरोसा तेहि


संता शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि कभी माया के चक्कर में मत पड़ो चाहे वह कितनी भी आकर्षक देह वाली क्यों न हो। इसने तो मुनिश्रेष्ठ नारद तक को भी भ्रमित कर दिया था इसलिए इस पर भरोसा नहीं करना चाहिए।

माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि माहिं परन्त
कोई एक गुरु ज्ञानते, उबरे साधु सन्त


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि माया तो जलते दीपक की लौ के समान है है और मनुष्य उन पतंगों की तरह है जो उसके आसपास मंडराते रहते हैं। इसका ज्ञान तो गुरुओं को होता है और कोई संत ही हैं जो इसके मोह से बच पाते हैं।

कबीर माया डाकिनी, सब काहू को खाय
दांत उपारुं पापिनी, सन्तो नियरै जाय।


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि माया तो एक डायन की तरह है जो अपना शिकार ढूंढकर खा जाती है। यही माया जब सिद्ध संतों के पास जाती है तो वह इसके दांत उखाड़ देते है।

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