Tuesday, June 22, 2010

विदुर नीति-स्वयं पर नियंत्रण न हो तो धन किसी काम का नहीं

अर्थानामीश्वरो यः स्यादिन्द्रियाणामनीश्वरः।
इंन्द्रियाणामनैश्वर्यदैश्वर्याद भ्रश्यते हि सः।।
हिन्दी में भावार्थ-
आर्थिक रूप से संपन्न होने पर भी जो अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण नहीं रख पाता वह जल्दी अपने ऐश्वर्य से भ्रष्ट हो जाता है।
क्षुद्राक्षेणेव जालेन झषावपिहितावुरू।
कामश्च राजन् क्रोधश्च ती प्रज्ञानं विलुपयतः।।
हिन्दी में भावार्थ-
जैसे दो मछलियां मिलकर छोटे छिद्र वाले जाल को काट डालती हैं उसी तरह काम क्रोध मिलकर विशिष्ट ज्ञान को नष्ट कर डालते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-धन का मद सर्वाधिक कष्टकारक है। इसके मद में मनुष्य नैतिकता तथा अनैतिकता का अंतर तक नहीं देख पाता। आजकल तो समाज में धन का असमान वितरण इतना विकराल है कि जिनके पास धन अल्प मात्रा में है उनको धनवान लोग पशुओं से भी अधिक बदतर समझते हैं। परिणाम यह है कि समाज में वैमनस्य बढ़ रहा है। देश में अपराध और आतंक का बढ़ना केवल सामाजिक मुद्दों के कारण ही नहीं बल्कि उसके लिये अर्थिक शिखर पुरुषों की उदासीनता भी इसके लिये जिम्मेदार है। पहले जो लोग धनवान होते थे वह समाज में समरसता बनाये रखने का जिम्मा भी लेते थे पर आजकल वही लोग शक्ति प्रदर्शन करते हैं और यह दिखाते हैं कि किस तरह वह धन के बल पर कानून तथा उसके रखवालों को खरीद कर सकते हैं-इतना ही नहीं कुछ लोग तो अपने यहां अपराधियों तथा आतंकियों को भी प्रश्रय देते हैं। यही कारण है कि आजकल धनियों का समाज में कोई सम्मान नहीं रह गया। इसके विपरीत उनकी छबि क्रूर, लालची तथा भ्रष्ट व्यक्ति की बन जाती है। जिस प्रतिष्ठा के लिये वह धन कमाते हैं वह दूर दूर तक नज़र नहीं आती।
इतना ही नहीं अनेक भारतीयों ने विदेश में जाकर धन कमाया है पर उनको सामाजिक सम्मान वहां भी नहीं मिल पाता क्योंकि विदेशी लोग जानते हैं कि यह लोग अपने समाज के काम के नहीं हैं तो हमारे क्या होंगे? ऐसे धनपति भले ही धन के ऐश्वर्य को पा लेते हैं पर सामाजिक सम्मान उनको नहीं मिलता भले ही वह धन खर्च कर उसका प्रचार स्वयं करते हों।
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संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
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