कहा जाता है कि संतोष सबसे बड़ा धन है पर आज हम जब समाज में इस सिद्धांत के
आधार पर दृष्टि डालते हैं तो आभास होता है कि लोग माया की दृष्टि से अधिक धनी जरूर
हो गये पर मानसिक रूप से बहुत दरिद्र हैं।
स्थिति यह है कि धन, पद और प्रतिष्ठा के अभाव से त्रस्त अनेक लोग
आत्महत्या कर स्वयं को जीवन से मुक्ति दिला देते हैं। नश्वर देह को समय से पहले ही नष्ट करना अने
लोगों को अच्छा लगने लगा है।
हमारे एक मित्र ने एक किस्सा सुनाया जो
हमें अत्यंत रुचिकर लगा । वह मित्र अपनी धर्मपत्नी के साथ मंडी गये
थे। वहां उनका एक परिचित दूधिया अपनी
साइकिल छायादार स्थान पर खड़ी कर गर्मी में बटी खा रहा था। उसके पास आठ दस बटियां थीं। सभी जानते हैं कि
गर्मी में बटियां खाने से पानी की कमी नहीं होती।
हमारे मित्र ने उस दूधिया से कहा-‘अरे, इतनी सारी बटियां जमा कर रखी हैं। सभी खाओगे या बचाकर घर ले जाओगे?’’
उस दूधिया ने कहा कि-‘‘सभी खाऊंगा। मेरा घर यहां से सात किलोमीटर दूर है। इस गर्मी में साइकिल चलाते
हुए यही बटियां मेरे पेट में कूलर का काम करेंगी।’’
हमारे मित्र ने उसकी आंखों में जो आत्मविश्वास देखा उससे वह आत्मविभोर हो
गये। उन्होंने अपनी पत्नी से कहा-‘‘पता नहीं यह गलतफहमी अनेक समाज सेवकों
को क्यों है कि गरीब और परिश्रमी लोग जीवन में मुश्किलों से हार जाते हैं।
ऐस लोगों को देखो तो लगता है कि गरीब होना ही दुःख का प्रमाण नहीं है। इस लड़के की आंखों में जो आत्मविश्वास था वह हम
जैसे सभ्रांत वर्ग के बच्चों के पास कहां होता है? सबसे बड़ी बात यह
कि गरीबों को भिखारी मानकर विचार नहीं करना चाहिए।’’
भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
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वयमिह परितृष्टा वल्कलैस्त्वं दुकूलैस्सभ इह परितोषे निर्विशेषो विशेषः।
स तु भवतु दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्रः।।
हिन्दी में भावार्थ-हे राजन्! हम पेड़ की छाल के वस्त्र पहनकर संतुष्ट हैं तो तुम रेशमी परिधान पहनकर प्रसन्न हो। संतोष तो हम दोनों को ही है तब विरोध वाली बात कहां है? इसमें विशेष कुछ नहीं है। दोनों ही संतुष्ट है तब अंतर नहीं है। मगर जो दरिद्र है पर जिसकी इच्छायें अधिक है उसका अगर मगर संतोष से भर जाये तो धनिक और दरिद्र में अंतर कहां रह जाता है।
आधुनिक राज्यव्यवस्थाओं में पूरे विश्व के शिखर पुरुष हमेशा ही गरीबों के
मसीहा होने का दावा करते हैं यह अलग बात है कि उनके प्रशासनिक तंत्र की नीतियां और
कार्यशैली इसके विपरीत दिखती हैं। गरीब, बेसहारा,
बूढ़े, कमजोर तथा विकलांग की
सेवा के नारे पूरे विश्व में लगते हैं। तब
ऐसा लगता है कि बस इस धरती पर देवता प्रकट होने वाले ही है। ऐसा होता नहीं क्योंकि इस तरह के नारे लगाने
वालों का उद्देश्य केवल प्रचार के माध्यम से अपना अर्थ साधने का होता है। सभी गरीब भीख नहीं मांगते और श्रम से जीने वाले
सभी लोग धनिक होने का सपना देखकर अपना समय भी नष्ट नहीं करते। अभावों में जीने वाले जिंदा हैं तो संपन्न
लोगों को अपनी रक्षा की चिंता खाये जाती है।
इसलिये किसी गरीब को देखकर उस पर हंसना नहीं चाहिये और न ही अपनी संपन्नता
के मद में रहकर जीवन बिताना चाहिये। जिसके पास मन का संतोष है वही सबसे बड़ा धनी
है। बढ़त राजरोगों के बढ़़ते प्रभाव से तो यही निष्कर्ष निकलता है।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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