इस संसार में चार तरह के के भक्त पाये जाते हैं-आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी। श्रीमद्भागवत् गीता में श्रीकृष्ण ने स्पष्ट
कहा है कि उन्हें ज्ञानी भक्त ही प्रिय है।
यह सभी मानते हैं कि श्रीगीता हमारी धार्मिक विचाराधारा का आधार ग्रंथ है पर
आधुनिक संदर्भ में उसको समझ पाने की क्षमता उन लोगों में नहीं हो सकती जो धर्म से
ही भौतिक समृद्धि की आशा करते हैं। इस तरह की भौतिक समृद्धि आर्ती तथा अर्थार्थी
भाव वाले भक्त से धन मिलने पर ही संभव है जिनके लिये अध्यात्मिक तत्वज्ञान केवल
सन्यासियों का विषय है। उनके लिये अंदर के
प्राणों से अधिक बाह्य विषयों की तरफ आकर्षित मन ही स्वामी होता है। आर्त भाव से
अपनी समस्याओं के निराकरण तो अर्थार्थी अपनी भौतिक सिद्धि के लिये देव मूर्तियों
पर धन चढ़ाते हैं। वह चमत्कारों तथा दुआओं
पर यकीन करते हैं। उन्हें यह समझाना कठिन
है कि सांसरिक विषयों का संचालन माया से स्वतः ही होता है। अध्यात्मिक ज्ञान से प्रत्यक्षः समृद्धि नहीं
आती पर देह, मन और पवित्रता की वजह से जो आनंद प्राप्त होता है उसका मूल्य मुद्रा से आंका नहीं जा सकता। मगर
समाज का अधिकांश वर्ग पश्चिमी प्रभाव के कारण प्रत्यक्ष प्रभुता में ही आनंद ढूंढ
रहा है ऐसे में किसी से ज्ञान चर्चा भी व्यर्थ लगती है।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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निरालोके हि लोकेऽस्मिन्नासते तत्रपण्डिताः।
जात्यस्य हि मणेर्यत्र काचेन समता मता।।
हिंदी में भावार्थ- अज्ञान के अंधेरे में रहने वाले अज्ञानी के पास विद्वान रहना पसंद नहीं करते। जहां मणि हो वहां कांच का काम नहीं होता उसी तरह विद्वान के पास अज्ञानी के लिये कोई स्थान नहीं है।
हम अक्सर समाचारों में यह सुनते हैं कि दक्षिण के एक मंदिर तथा महाराष्ट्र
के मुख्य संाई बाबा पर करोड़ों का चढ़ावा
आता है। वहां सोने के मुकुट और सिंहासन
चढ़ाये जाते हैं। एक बात निश्चित है कि
छोटी रकम का चढ़ावा कोई सामान्य इंसान कर सकता है पर अगर भारी भरकम की बात हो तो
यकीनन ईमानदारी की आय से यह संभव नहीं है। हम देख रहे हैं जैसे जैसे देश में काले
धन की मात्रा बढ़ रही है वैसे वैसे ही चढ़ावा भी बढ़ रहा है। हम यह कह सकते हैं कि जिस तरह नैतिकता का
पैमाना नीचे जा रहा है वैसे ही पाखंड का स्तर ऊंचा जा रहा है। अध्यात्मिक ज्ञान से
प्रत्यक्षः समृद्धि नहीं आती पर देह, मन और पवित्रता की वजह
से जो आनंद प्राप्त होता है उसका मूल्य
मुद्रा से आंका नहीं जा सकता। मगर समाज का अधिकांश वर्ग पश्चिती प्रभाव के कारण
प्रत्यक्ष प्रभुता में ही आनंद ढूंढ रहा है ऐसे में किसी से ज्ञान चर्चा भी व्यर्थ
लगती है।
अध्यात्मिक ज्ञान साधकों के लिये धर्म के नाम पर कर्मकांडों का तमाशा अधिक
महत्व नहीं रखता पर अपने मन की बात सार्वजनिक रूप से कहते भी नहीं है क्योंकि
श्रीमद्भागवत गीता में स्पष्टतः कहा गया है कि ज्ञानी कभी भी अज्ञानियों को अपनी
भक्ति से विमुख करने का प्रयास न करे। न
ही वह उनकी राय का अनुमन करे।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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