यह विचित्र बात है कि जब भी किसी शासकीय पुरस्कार की बात आती है विवाद
प्रारंभ हो जाते हैं। देश में केंद्र तथा राज्य सरकारें साहित्य कला तथा खेल के
क्षेत्र में पुरस्कार देती रहती हैं। यह
पुरस्कार सम्मानीय लोगों को उनके क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के रूप में दे दिया
जाता है-सिद्धांतः ऐसा माना जाता है। यह अलग बात है कि बाद में उन पर अनेक प्रकार
के विवाद प्रारंभ हो जाते हैं। हमारे यहां अनेक निजी प्रतिष्ठानों की तरफ से भी
प्रदान किये जाने वाले-खासतौर से साहित्य और पत्रकारिता के पुरस्कार-विशुद्ध रूप
से प्रबंध कौशल से निर्धारित होते हैं।
सात वर्ष पूर्व हमारे अध्यात्मिक ब्लॉग पर एक बार एक ब्लॉग मित्र ने
टिप्पणी करते हुए कहा था कि मनुस्मृति पर लिखने के बाद यह आशा आप कभी न करें कि
आपका कभी सम्मान नहीं होगा। हमें हसंी आ
गयी। जब युवावस्था में लिखते थे तो सम्मान
की चाह होती थी पर अंतर्जाल पर लिखना प्रारंभ करते समय सम्मान का मोह समाप्त हो
चुका था। हम तो यही मानकर चलते हैं कि दो
लोग भी हमारा पढ़कर प्रसन्न हुए तो वही हमारा सम्मान है। स्थानीय स्तर पर हमसे सम्मान लेने के सर्शत
प्रस्ताव आये पर उनमें हमारी रुचि नहीं रही।
इधर अध्ययन चिंत्तन और मनन की सतत प्रक्रिया के साथ ही योगाभ्यास ने हमारे
इस दृष्टिकोण को मजबूत कर दिया कि हमारी अपनी सोच भी कम अनोखी नहीं है। यह लेख हम आत्मप्रवंचन के लिये नहीं लिख रहे
वरन् अभी भारत रत्न के लिये श्रीअटल बिहारी वाजपेयी और श्री मदन मोहल मालवीय का
नाम चयनित होने पर विवाद हो रहा है। इस पर
जारी चर्चाओं में अनेक लोग कुछ ऐसे महापुरुषों को भारत रत्न न देने पर प्रश्न उठा
रहे हैं जो विश्व रत्न हैं-यथा, श्रीगुरू नानक देव, संत कबीर,
कविवर रहीम, संत विवेकानद आदि। इस
पर केवल हंसा ही जा सकता है।
वैसे तो श्रीअटल बिहारी वाजपेयी और स्वर्गीय मदन मोहन मालवीय को भारत रत्न
का विरोध करना ही नहीं चाहिये अगर करना ही है तो ऐसे महापुरुषों का नाम नहीं लेना
चाहिये जिनकी छवि अध्यात्मिक रूप से इतनी उज्जवल हो कि उन्हें पूरा विश्व ही रत्न
मानता है। इस चर्चा में प्रगतिशील और
जनवादी विद्वानों का दर्द सामने आ ही गया है क्योंकि उनकी दृष्टि से यह दोनों
महानुभाव दक्षिणपंथियों के नायक हैं। उनके लिये सबसे ज्यादा दर्दनाक तो इनके साथ
जुड़े हिन्दु तत्व जुड़ा होना है जिसे दक्षिण पंथ का पर्याय माना जाता है। यही वजह है कि कथित प्रगतिशील और जनवादी
विद्वानों में मन में यह टीस तो होगी कि आगामी पांच वर्ष उन्हें अपनी विचारधारा के
लिये केंद्रीय सम्मान की आशा छोड़नी पड़ेगी। यह टीस उनके रचनाकर्म को प्रभावित कर
सकती है क्योंकि निष्काम कर्म के सिद्धांत की उनको समझ नहीं है जो कि श्रीमद्भागवत
गीता उनकी दृष्टि से अध्ययन के लिये वर्जित ग्रंथ है।
माननीय श्री अटल बिहारी वाजपेयी हमारे ग्वालियर शहर में ही जन्मे हैं इस
कारण उनसे हमारा स्वाभाविक लगाव है।
बाल्यकाल में हमने जिन दो नेताओं का नाम हमने सुना था उनमें एक थे स्वर्गीय
प्रधान मंत्री श्री जवाहर लाल नेहरु अैार जनसंघ के नेता श्री अटल बिहारी
वाजपेयी। श्री लालकृष्ण आडवाणी के हम
सहभाषी जातीय समुदाय से हैं पर उनका नाम
कम से कम दस वर्ष बाद सुना था। हमारे कुल परिवार के सभी वरिष्ठ सदस्य अटल बिहारी का
नाम श्रद्धा से लेते थे। अनेक लोगों को यह
भ्रम है कि सिंधी भाषी होने के कारण इस भाषा जाति के सदस्य इन दोनों महानुभावों की
पार्टी के समर्थक रहे हैं पर ऐसी सोच अज्ञान का प्रमाण ही है। यही कारण है कि हम
जातिवाद के आधार पर किसी समीकरण पर विचार नहीं करते जैसा कि दूसरे लोग बताते हैं।
दरअसल अटल बिहारी की भाषण शैली ऐसी रही है कि उनको किसी भी जाति या भाषा के लोग
आत्मीय समझने लगते हैं और यही गुण उनको रत्न रूप प्रदान करता है।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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