जीवन चलते रहने का नाम है। आलस्य करना मनुष्य का सहज भाव है। ऐसे में ज्ञानी, चतुर और सामर्थ्यशाली लोग हमेशा सक्रिय रहकर कुछ न कुछ करते रहते हैं। वह जानते हैं कि जहां हमने अपने जीवन में सक्रियता को विराम दिया वहीं दैहिक तथा मानसिक विकार उन पर हमला कर देंगे। स्वास्थ्य विज्ञानी कहते हैं कि सामान्य आदमी अपने जीवन का केवल पांच फीसदी उपयोग करता है जबकि बुद्धिमान भी उससे थोड़ा अधिक उपयोग कर पाता है। इसे हम मानव स्वभाव की विवशता ही कह सकते हैं कि वह थोड़ा काम करने के बाद आराम चाहता है। दैहिक आराम न भी करे तो भी दिमागी रूप से चिंतन या मनन करने से परे रहता है। हर कोई मनोरंजन चाहता है पर सृजन बहुत कम लोग करते हैं। टीवी के सामने बैठकर दृश्य देखने या हाथ में अखबार पढ़ने से क्षणिक सुख मिलता है पर उससे जो बाद में तनाव आता है उसकी कल्पना कोई नहीं कर सकता। दरअसल इस तरह हम निष्क्रियता के साथ जीते हैं।
सामवेद में कहा गया है कि
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उत्तो कृपन्त धीतयो देवानां नाम विभ्रतीः।
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उत्तो कृपन्त धीतयो देवानां नाम विभ्रतीः।
‘‘ज्ञानी लोगों की उंगलियां सदैव कर्मो में लिप्त रहकर सामर्थ्यवान होती है। यह बात समझ लें ज्ञानी हमेशा सक्रिय रहता है तथा निष्क्रयता उसे स्वीकार नहीं होती।।
विष्णोः कर्माणि पश्चत यतो व्रतानि पस्पर्श।
‘‘विष्णु के पुरुषार्थ को देखो और उनका विचार कर अनुसरण करो।’
ज्ञानी लोग जानते हैं कि अपने जीवन में विश्राम शब्द केवल निष्क्रियता का पर्याय है। यही कारण है कि वह हाथ से कोई न कोई काम करते हैं। फल की चाहत कर वह कोई तनाव नहीं पालते। मुख्य बात यह है कि जिंदा रहने के लिये जिस तरह भोजन और पानी आवश्यक है उसी तरह देह को चलायमान रखना चाहिए। हमेशा ही दैहिक तथा मानसिक सक्रियता से सृजन के पथ पर चलना अच्छा है बनिस्बत के मनोरंजन या क्षणिक सुख की खातिर निष्क्रियता अपनाने के। यही जीवन का मूल मंत्र है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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