Monday, September 12, 2011

हिन्दी दिवस से पूर्व हिन्दी पत्रिका ने पार की तीन लाख की पाठक/पाठ पठन संख्या-हिन्दी संपादकीय (hindi divas or diwas ke poorva hindi patrika ki uplabdhi-hindi editorial)

       14 सितंबर को हिन्दी दिवस है इसलिये इस दौरान इंटरनेट पर हिन्दी लेखन को चर्चा जरूरी होगी ऐसे में यह खबर अच्छी लगती है कि इस लेखक का वर्डप्रेस पर लिखा जाने वाला ‘हिन्दी पत्रिका’ ब्लाग आज तीन लाख पाठक/पाठ पठन संख्या पार कर गया। इतना बड़ा देश और इतने सारे हिन्दी भाषी हैं, जिसे देखते हुए पांच साल में यह संख्या कोई बड़ी बात नहीं होना चाहिए, मगर अपने एकल प्रयासों को देखते हुए यह कोई संख्या कम भी नहीं लगती। जब बाज़ार से समर्थन न हो, पाठक कोई अधिक महत्व न देते हों और फिर विचारों का उपयोग करते हुए बाज़ार के लेखक ब्लाग का नाम देकर अपने आपको बड़ा चिंतक साबित करने में लगे हों या फिर पूरा पाठ ही चुराने लगे हों तब अपनी स्वप्रेरणा से यह अकेला सफर दुःखदायी होने के बावजूद मजेदार अधिक लगता है। आतंकवाद को व्यापार बताने का प्रयास इस लेखक ने अपने ही ब्लागों पर शुरु किया जिसे आजकल अनेक बुद्धिमान दूसरों को बताते फिर रहे हैं। सीधी बात यह है कि आम पाठक भले ही अंतर्जाल पर सक्रिय न हों पर उनकी बुद्धि को नियंत्रित करने वाले बुद्धिजीवी यहां सक्रिय हैं और हमारे जैसे लेखकों के चिंतन को अपनी रचनाओं का हिस्सा बना रहे हैं। बाज़ार के होने के कारण उनको ‘क्रीम’ टाईप का माना जाता है।
      आज ही यह ब्लाग एक ही दिन में एक हजार की पाठक संख्या भी पार करने का कीर्तिमान बना रहा है तो एक अन्य ब्लाग दीपक बापू कहिन दो हजार के पास है। अन्य अनेक ब्लाग अपने पुराने कीर्तिमानों को तोड़ने वाले हैं। यह सब 14 सितंबर को हिन्दी दिवस के कारण है। हमने पहले ही यह साफ कर दिया है कि आम पाठक नहीं बल्कि देश की बौद्धिक क्रीम की छवि वाले लोग कुछ ढूंढ रहे हैं। यहां अगर हमारी कोई बात जंची तो वह अपने नाम से उपयोग करेंगे। उनकी नज़र में इंटरनेट लेखक आम आदमी है जिसकी बात वह बुद्धिजीवी होकर पढ़ रहे हैं। फिर जनता की आवाज को बाज़ार के प्रचार माध्यमों में इस तरह स्थान देंगे जैसे वह स्वयं उनका चिंत्तन हो। अपने पैसे से प्रकाशन करने वाला इंटरनेट  का प्रयोक्ता उनकी नज़र में लेखक नहीं है बल्कि बाज़ार के सौदागरों तथा प्रचार प्रबंधकों के पांवों के पास बैठकर लिखने वाला ही वास्तविक लेखक है। मतलब लेखक वह है जो बाज़ार में बिकता दिखे।
बाज़ार स्वामियों के वरदहस्त से इन बौद्धिक कर्मियों में इतना जबरदस्त आत्मविश्वास है कि वह इंटरनेट पर लिखी हर रचना को अपनी संपत्ति समझते हैं। यही कारण है कि इंटरनेट पर आज कोई भी समझदार लेखक लिखना नहीं चाहता। इस तरह हिन्दी के कर्णधार ही अंतर्जाल पर हिन्दी को उबरने से रोकने का काम कर रहे हैं। उससे भी बुरा यह कि बाज़ार के प्रचार माध्यमों में स्वयं के विचार व्यक्त करने वालों के पास तो शुद्ध हिन्दी का अभ्यास भी नहीं है इसलिये अंग्रेजी शब्दों का मिश्रण करते हैं।
            इस बहाने हिन्दी दिवस की चर्चा कर लें। आम आदमी को ऐसे दिवस से मतलब नहीं है। अलबत्ता जिनको प्रचार सामग्री सजानी है उनके लिये यह जरूरी है कि वह घिसे पिटे सोच से अलग होकर लिखें। अब जो बाज़ार से बाहर अलग सोच रखते हैं उनको तो यह प्रचार कर्मी ढूंढ नहीं सकते। इसलिये इंटरनेट पर वह नयी सोच ढूंढ रहे हैं। एक लेखक के रूप में हमारे लिये प्रयोग का समय है। इसलिये तुकी और बेतुकी कवितायें हिन्दी दिवस पर डाल दीं यह जानते हुए कि अभी वह तीन दिन दूर है। आज देखा कि जबरदस्त हिट हो रही हैं। यही कारण है कि आज सभी बीस ब्लाग मिलकर छह हजार पाठकं/पाठ पठन संख्या पार कर जायेंगे। इसी बीच कुछ बेतुकी रचनायें डालकर हम यह भी प्रयास करेंगे कि कम से कम 13 सितंबर तक सात हजार की संख्या पार हो जाये। 14 सितंबर को कोई नहीं पूछेगा क्योंकि उस दिन तक प्रचार माध्यम अपना काम कर चुके होते हैं। आम पाठक आयेगा नहीं इसलिये यह संख्या गिरने लगेगी। वैसे यह संख्या नियमित रूप से 35 सौ हो गयी है। उसमें भी अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के कारण सर्च इंजिनों में उनसे संबंधित विषयों की खोज बढ़ना एक कारण है।
             चूंकि लिखना हमारा शौक रहा है। अगर व्यवसायिक लेखक करते तो शायद बड़े लेखक बन जाते पर स्वतंत्र रूप से लिखने की चाहत के कारण प्रबंध कौशल के अभाव में हमेशा ही एक आम आदमी बने रहे। फिर बड़े लेखक बनने के लिये यह आवश्यक है कि बाज़ार के सौदागरों और प्रचार प्रबंधकों की चाटुकारिता की जाये यह हमारे जैसे ंिचंतक के लिये कठिन था।
          बहरहाल आत्मीय जनों और मित्रों से ऐसे पाठ लिखकर अपनी बात कहने का अवसर मिलता है। इससे वह मन की बात समझ पाते हैं। अंतर्जाल पर किया जाने वाला व्यवहार कितना छद्म है कितना सत्य है, इस बात को लेकर हम अधिक विचार नहीं करते। मगर इतना तय है कि हमें चाहने वाले कुछ लोग हैंे जिनके बारे में हमारा मानना है कि उनकी वाद, संवाद और विचार का संप्रेषण कौशल हमसे अधिक प्रबल है और कहीं न कहीं हमसे पढ़कर प्रभावित होते हैं। उनकी संख्या कितनी है नहीं मालुम है पर इतना अनुमान है कि वह उंगलियों पर गिनने लायक हैं। यह लेख पाठकों तथा ब्लाग लेखक मित्रों को ही समर्पित है। यह उनसे प्रशंसा पाने के लिये नहीं बल्कि सूचनार्थ लिखा गया है उनका आभार जताने के लिये।
इस ब्लाग पर टिप्पणियां देने वाले प्रमुख लोगों के नाम नीचे   लिखे हैं।
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अशोक बजाज    322
समीर लाल 'उड़न तश्तरी वाले'    37
paramjitbali    28
दीपक भारतदीप    15
mehhekk    13
Brijmohan shrivastava    13
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sameerlal

हिन्दी पत्रिका पर हिन्दी दिवस पर लिखा गया लोकप्रिय लेख

       सुना है अब इंटरनेट में लैटिन के साथ ही देवनागरी में भी खोज सुगम होने वाली है। यह एक अच्छी खबर है मगर इससे हिंदी भाषा के पढ़ने और लिखने वालों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ जायेगी, यह आशा करना एकदम गलत होगा। सच तो यह है कि अगर देवनागरी में खोज सुगम हुई भी तो भी इसी मंथर गति से ही हिंदी लेखन और पठन में बढ़ोतरी होगी जैसे अब हो रही है। हिंदी को लेकर जितनी उछलकूल दिखती है उतनी वास्तविकता जमीन पर नहीं है। सच कहें तो कभी कभी तो लगता है कि हम हिंदी में इसलिये लिख पढ़े रहे हैं क्योंकि अंग्रेजी हमारे समझ में नहीं आती। हम हिंदी में लिख पढ़ते भी इसलिये भी है ताकि जैसा लेखक ने लिखा है वैसा ही समझ में आये। वरना तो जिनको थोड़ी बहुत अंग्रेजी आती है उनको तो हिंदी में लिखा दोयम दर्जे का लगता है। वैसे अंतर्जाल पर हम लोगों की अंग्रेजी देखने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे है कि लोगों की अंग्रेजी भी कोई परिपक्व है इस पर विश्वास नहीं करना चाहिए-क्योंकि बात समझ में आ गयी तो फिर कौन उसका व्याकरण देखता है और अगर दूसरे ढंग से भी समझा तो कौन परख सकता है कि उसने वैसा ही पढ़ा जैसा लिखा गया था। बहरहाल अंग्रेजी के प्रति मोह लोगों का इसलिये अधिक नहीं है कि उसमें बहुत कुछ लिखा गया है बल्कि वह दिखाते हैं ताकि लोग उनको पढ़ालिखा इंसान समझें।
       ‘आप इतना पढ़ें लिखें हैं फिर भी आपको अंग्रेजी नहीं आती-‘’हिंदी में पढ़े लिखे एक सज्जन से उनके पहचान वाले लड़के ने कहा’‘-हमें तो आती है, क्योंकि अंग्रेजी माध्यम से पढ़े हैं न!’
          मध्यम वर्ग की यह नयी पीढ़ी हिंदी के प्रति रुझान दिखाने की बजाय उसकी उपेक्षा में आधुनिकता का बोध इस तरह कराती है जैसे कि ‘नयी भारतीय सभ्यता’ का यह एक  प्रतीक हो। इनमें तो कई ऐसे हैं जिनकी हिंदी तो  गड़बड़ है साथ  ही  इंग्लिश भी कोई बहुत अच्छी  नहीं है।
       जैसे जैसे हिंदी भाषी क्षेत्रों में सरकारी क्षेत्र के विद्यालयों और महाविद्यालयों के प्रति लोगों का रुझान कम हुआ है-निजी क्षेत्र में अंग्रेजी की शिक्षा का प्रसार बढ़ा है। एक दौर था जब सरकारी विद्यालयों में प्रवेश पाना ही एक विजय समझा जाता था-उस समय निजी क्षेत्र के छात्रों को फुरसतिया समझा जाता था। उस समय के दौर के विद्यार्थियों ने हिंदी का अध्ययन अच्छी तरह किया। शायद उनमें से ही अब ऐसे लोग हैं जो हिंदी में लेखन बेहतर ढंग से करते हैं। अब अगर हिंदी अच्छे लिखेंगे तो वही लोग जिनके माता पिता फीस के कारण अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के निजी विद्यालयों में नहीं पढ़ा सकते और सरकारी विद्यालयों में ही जो अपना भविष्य बनाने जाते हैं।
       एक समय इस लेखक ने अंग्रेजी के एक प्रसिद्ध स्तंभकार श्री खुशवंत सिंह के इस बयान पर विरोध करते हुए एक अखबार में पत्र तक लिख डाला‘जिसमें उन्होंने कहा था कि हिंदी गरीब भाषा है।’
       बाद में पता लगा कि उन्होंने ऐसा नहीं कहा बल्कि उनका आशय था कि ‘हिन्दुस्तान में हिंदी गरीबों की भाषा है’। तब अखबार वालों पर भरोसा था इसलिये मानते थे कि उन्होंने ऐसा कहा होगा पर अब जब अपनी आंखों के सामने बयानों की तोड़मोड़ देख रहे हैं तो मानना पड़ता है कि ऐसा ही हुआ होगा। बहरहाल यह लेखक उनकी आलोचना के लिये अब क्षमाप्रार्थी है क्योंकि अब यह लगने लगा है कि वाकई हिंदी गरीबों की भाषा है। इन्हीं अल्पधनी परिवारों में ही हिंदी का अब भविष्य निर्भर है इसमें संदेह नहीं और यह आशा करना भी बुरा नहीं कि आगे इसका प्रसार अंतर्जाल पर बढ़ेगा, क्योंकि यही वर्ग हमारे देश में सबसे बड़ा है।

       समस्या यह है कि इस समय कितने लोग हैं जो अब तक विलासिता की शय समझे जा रहे अंतर्जाल पर सक्रिय होंगे या उसका खर्च वहन कर सकते हैं। इस समय तो धनी, उच्च मध्यम, सामान्य मध्यम वर्ग तथा निम्न मध्यम वर्ग के लोगों के लिये ही यह एक ऐसी सुविधा है जिसका वह प्रयोग कर रहे हैं और इनमें अधिकतर की नयी पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम से शिक्षित है। जब हम अंतर्जाल की बात करते हैं तो इन्हीं वर्गों में सक्रिय प्रयोक्ताओं से अभी वास्ता पड़ता है और उनके लिये अभी भी अंग्रेजी पढ़ना ही एक ‘फैशनेबल’ बात है। ऐसे में भले ही सर्च इंजिनों में भले ही देवनागरी करण हो जाये पर लोगों की आदत ऐसे नहीं जायेगी। अभी क्या गूगल हिंदी के लिये कम सुविधा दे रहा है। उसके ईमेल पर भी हिंदी की सुविधा है। ब्लाग स्पाट पर हिंदी लिखने की सुविधा का उपयेाग करते हुए अनेक लोगों को तीन साल का समय हो गया है। अगर हिंदी में लिखने की इच्छा वाले पूरा समाज होता तो क्या इतने कम ब्लाग लेखक होते? पढ़ने वालों का आंकड़ा भी कोई गुणात्मक वुद्धि नहीं दर्शा रहा।
       गूगल के ईमेल पर हिंदी लिखने की सुविधा की चर्चा करने पर एक नवयौवना का जवाब बड़ा अच्छा था-‘अंकल हम उसका यूज (उपयोग) नहीं करते, हमारे मोस्टली (अधिकतर) फ्रैंड्स हिंदी नहीं समझते। हिंदी भी उनको इंग्लिश (रोमन लिपि) में लिखना पसंद है। सभी अंग्रेजी माध्यम से पढ़े हैं। जो हिंदी वाले भी हैं वह भी इससे नहीं लिखते।’
ऐसे लोगों को समझाना कठिन है। कहने का तात्पर्य यह है कि हिंदी की कितनी भी सुविधा अंतर्जाल पर आ जाये उसका लाभ तब तक नहीं है जब तक उसे सामान्य समाज की आदत नहीं बनाया जाता। इसका दूसरा मार्ग यह है कि इंटरनेट कनेक्शन सस्ते हो जायें तो अल्प धन वाला वर्ग भी इससे जुड़े  जिसके बच्चों को हिंदी माध्यम में शिक्षा मजबूरीवश लेनी पड़ रही है। यकीनन इसी वर्ग के हिंदी भाषा का भविष्य को समृद्ध करेगा। ऐसा नहीं कि उच्च वर्ग में हिंदी प्रेम करने वाले नहीं है-अगर ऐसा होता तो इस समय इतने लिखने वाले नहीं होते-पर उनकी संख्या कम है। ऐसा लिखने वाले निरंकार भाव से लिख रहे हैं पर उनके सामने जो समाज है वह अहंकार भाव से फैशन की राह पर चलकर अपने को श्रेष्ठ समझता है जिसमे हिंदी से मुंह   फेरना एक प्रतीक माना जाता है।
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