मनुष्य की देह का विकास स्वाभाविक रूप से होता है, उसे अपने मानसिक विकास के लिये स्वयं प्रयास करने होते हैं। उसका मन हमेशा ही तृष्णा की गोद में सोया रहता है। उनकी पूर्ति करने में ही मनुष्य अपना पूरा जीवन नष्ट कर देता है। फिर भी न तो कभी उसके मन की तृष्णायें मरती हैं न मनुष्य को कभी चैन आता है। एक वस्तु आती है तो दूसरे की तृष्णा पैदा होती है। परमात्मा के कृपा से इस संसार में विचर रहे देहधारियों की बजाय मनुष्य में स्वाजातीय बंधुओं के हाथ से निर्मित प्राणहीन वस्तुओं को पाने और संजोने की इच्छा रहती है।
इस विषय पर हमारे धर्मग्रंथो में कहा गया है कि
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तृष्णा हि सर्वपापिष्ठा नित्योद्वेगकरी स्मृता।
अधर्मबहुला चैव घोरा पापानुबंधिनी।।
‘‘मनुष्य मन में विचरने वाली तृष्णाऐं ही पाप की जन्मदात्री हैं। वही आदमी को अधर्म के लिये प्रेरित करती हैं। अतः उनका त्याग ही श्रेयस्कर है।’’
या दुस्यतजा दुर्मतिभियां न जीर्यति जीर्यतः।
योऽसि प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजतः सुखम्।।
‘‘जो बुद्धिहीन के लिये त्याग योग्य नहीं है और जो देह के जीर्ण शीर्ण होने पर ही खत्म नहीं होती वह तृष्णायें न केवल आदमी को बीमार बनाती हैं बल्कि उसके सुख का भी हरण कर लेती है। ऐसी तृष्णाओं का त्याग ही श्रेयस्कर है।
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तृष्णा हि सर्वपापिष्ठा नित्योद्वेगकरी स्मृता।
अधर्मबहुला चैव घोरा पापानुबंधिनी।।
‘‘मनुष्य मन में विचरने वाली तृष्णाऐं ही पाप की जन्मदात्री हैं। वही आदमी को अधर्म के लिये प्रेरित करती हैं। अतः उनका त्याग ही श्रेयस्कर है।’’
या दुस्यतजा दुर्मतिभियां न जीर्यति जीर्यतः।
योऽसि प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजतः सुखम्।।
‘‘जो बुद्धिहीन के लिये त्याग योग्य नहीं है और जो देह के जीर्ण शीर्ण होने पर ही खत्म नहीं होती वह तृष्णायें न केवल आदमी को बीमार बनाती हैं बल्कि उसके सुख का भी हरण कर लेती है। ऐसी तृष्णाओं का त्याग ही श्रेयस्कर है।
मनुष्य देह और मन के संयोग को नहीं जानता। मन कही भीं बिना लगाम होने पर भटक सकता है पर देह की कार्य करने की अपनी सीमाऐं हैं। अनेक लोग अपने सामर्थ्य से अधिक तृष्णाऐं पाल लेते हैं। उनको पाने के लिये वह अधिक से अधिक श्रम करते हैं पर मन कहीं भी चला जाय पर सामर्थ्य से बाहर भला किसकी देह जाकर काम सकती है। नतीजा यह होता है कि देहधारी को अंततः बीमारियों और दुर्घटनाओं का शिकार बनना पड़ता है। ऐसी तृष्णाओं का त्याग ही श्रेयस्कर है जिनकी वजह से मनुष्य स्वतंत्र होते हुए भी भौतिक वस्तुओं का दास बन जाता है। जिनसे विकार उत्पन्न होने के साथ ही जीवन का अतिशीध्र क्षय होता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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