हम अपने जीवन में तनाव इतना अपने सिर पर लेते हैं कि इसका आभास ही नहीं रहता कि शांति पूर्ण जीवन होता क्या है? अनेक लोग तो तनावरहित जीवन को अरुचिकर मानते हैं। उनका कहना होता है कि ‘अगर जीवन में तनाव नहीं है तो फिर मजा ही किस बात का?’
यह एक खोखला विचार है। दरअसल जीवन का आनंद कर्म है और उसका आशय यह कतई नहीं है कि हर कर्म तनाव का कारण हो। कर्म हमारी देह और मन को व्यस्त रखता है पर उसे तनाव का प्रतीक मानना ठीक नहीं है। तनाव हर स्थिति में शरीर के नाश का कारण बनता है। यह तनाव जब हम अनिच्छा से कोई काम करते हैं या फिर हमारा काम किसी दूसरे पर निर्भर होता है तब बढ़ जाता है। यह स्थितियां कभी सुखद नहीं मानी जाती हैं।
इस विषय पर मनुस्मृति में कहा गया है कि
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यद्यत्परवशं कर्म तत्तद्यलेन वर्जयेत्।
यद्यदात्मवशं तु स्यात्तत्तत्सेवेत यत्नतः।
"जिस काम के लिये दूसरे पर निर्भर रहना पड़ता है उनका त्याग कर देना चाहिये तथा अपने हाथ से ही संपन्न होने वाले अनुष्ठान करना चाहिए।"
यत्कर्मकुर्वतोऽस्य स्यात्परितोषोऽन्तरात्म्न्ः।
तत्प्रयत्नेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत्।।
"जिस कार्य से मन को शांति तथा अंतरात्मा को खुशी हो वही करना चाहिये। जिस काम से मन को अशांति हो उसे न ही करें तो अच्छा।"
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यद्यत्परवशं कर्म तत्तद्यलेन वर्जयेत्।
यद्यदात्मवशं तु स्यात्तत्तत्सेवेत यत्नतः।
"जिस काम के लिये दूसरे पर निर्भर रहना पड़ता है उनका त्याग कर देना चाहिये तथा अपने हाथ से ही संपन्न होने वाले अनुष्ठान करना चाहिए।"
यत्कर्मकुर्वतोऽस्य स्यात्परितोषोऽन्तरात्म्न्ः।
तत्प्रयत्नेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत्।।
"जिस कार्य से मन को शांति तथा अंतरात्मा को खुशी हो वही करना चाहिये। जिस काम से मन को अशांति हो उसे न ही करें तो अच्छा।"
जीवन का आनंद सहजता के साथ उठना ही ठीक है। तनाव अंततः हमारी मानसिकता तथा स्वास्थ्य में विकार पैदा करता है। वर्तमान भौतिक जीवन ने लोगों की सुख सुविधाओं में वृद्धि की है जिससे लोग विलासी जीवन को अधिक महत्व देने लगे हैं। दैहिक सक्रियता के अभाव में शरीर स्थूल हो जाते हैं जिससे विकार पैदा होते हैं। उनसे मानसिक तनाव बढ़ता है जो कि अब हमारे जीवन का एक नकारात्मक पक्ष बन रहा है। लोगों ने अपनी आवश्यकतायें इतनी बढ़ा ली हैं कि उनकी पूर्णता दूसरे पर निर्भर हो गयी है। अगर दूसरा काम न करे तो हम लाचार हो जाते हैं। ऐसे में खिसियाहट तो आती है। इसके अलावा लोग अपनी ताकत से अधिक का लक्ष्य तय कर उसके पीछे लग जाते हैं जिसके न मिलने से उनमें हताशा आती है।
इस प्रकार के तनाव से बचने का एकमात्र उपाय यही है कि हम अपनी आवश्यकतायें सीमित रखें। इसके अलावा अपने जीवन का आधार अपने ऊपर ही बनायें जिससे दूसरे की निष्क्रितयता हमारे संकट और तनाव का कारण न बने।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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