जिस तरह समाज में सभी तरह के लोग हैं उसी तरह साधु और संतों के बीच भी हैं। कुछ लोग तो साधु और संत का चोला इसलिये पहनते हैं जिससे उनको धन, सम्मान तथा शिष्यों की प्राप्ति होती रहे। एक तरह से धर्म उनका व्यापार हो जाता है। आजकल तो ऐसी खबरें भी आती हैं कि अमुक साधु संत दैहिक यौनाचार या अपराध करते हुए पकड़ा गया। हमारे समाज में अध्यात्मिक की जड़ें गहरी हैं जिसकी वजह से ऐसे लोग जिनको काम नहीं आता या वह करना नहीं चाहते वही साधु का वेश पहनते हैं। गेहुंआ या सफेद रंग का चोगा पहने अनेक साधुओं ने समाज को धोखा दिया है कई तो यौनाचार और बच्चों के अपहरण जैसे अपराध में लिप्त पाये गये हैं। इसका आशय यह कतई नहीं है कि सारे साधु या संत ऐसे हैं। कुछ लोग ऐसे भी संतों की आलोचना करते हैं जो शिष्यों का समुदाय बनाकर प्रवचन देते हैं। अनेक बुद्धिजीवियों को तो संतों पर कटाक्ष करने में मजा आता है। हमारा अध्यात्मिक दर्शन संतों या साधुओं को मानने या न मानने की पूरी छूट देता है मगर उनकी निंदा करने वालों को बुरी तरह फटकारता भी है।
इस विषय पर कबीर कहते हैं कि
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जो कोय निन्दै साधु को, संकट आवै सोय।
नरक जाय जनमै भरे, मुक्ति कबहु नहिं होय।।
‘जो आदमी साधु और संतों की निंदा करता है वह अतिशीघ्र नष्ट हो जाता हे। वह नरक में जाता है और फिर उसे नारकीय यौनि में जन्म लेना पड़ता है। उसकी कभी मुक्ति नहीं होती।’’
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जो कोय निन्दै साधु को, संकट आवै सोय।
नरक जाय जनमै भरे, मुक्ति कबहु नहिं होय।।
‘जो आदमी साधु और संतों की निंदा करता है वह अतिशीघ्र नष्ट हो जाता हे। वह नरक में जाता है और फिर उसे नारकीय यौनि में जन्म लेना पड़ता है। उसकी कभी मुक्ति नहीं होती।’’
दरअसल हमारी वर्तमान शिक्षा पद्धति ऐसी है जिसमें नकारात्मक सोच का निर्माण होता है। दूसरे की निंदा या आलोचना करने वाले इस तरह प्रदर्शन करते हैं जैसे कि वह श्रेष्ठ हैं। हर कोई दूसरे के दोष गिनाकर यह प्रमाणित करता है कि वह उसमें नहीं है। अपने अंदर जो गुण है उसकी जानकारी कोई नहीं देता। फिर निंदा और आलोचना में अभ्यस्त लोगों के पास इतना समय भी कहां रहता है कि वह आत्ममंथन कर अपने गुणों की तलाश करें। ऐसे लोग न स्वयं सुखी रहते हैं न दूसरे को देख पाते हैं। अतः जिन लोगों को अपने अंदर सकारात्मक भाव बनाये रखना है वह किसी दूसरे की निंदा या आलोचना न करें, खासतौर से साधु और संतों की तो बिल्कुल नहीं। अगर कोई साधु ठीक नहीं लगता तो उसके पास न जायें। उसको अपना गुरु न माने पर सार्वजनिक रूप उसे उसकी निंदा न करे। वैसे भी हमारा भारतीय अध्यात्म दर्शन निरंकार की निष्काम भक्ति का संदेश देता है। परनिंदा से बचने पर मन में सकारात्मक विचार पैदा होते हैं उससे जीवन में स्वमेव प्रसन्नता आती है।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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