अहंकार का मनुष्य को मूर्खता के मार्ग पर ले जाता है। खासतौर से जब किसी आदमी को यह आभास होने लगता है कि उसके पास संसार का पूरा ज्ञान आ गया है तो वह विक्षिप्तता की स्थिति में आ जाता है। उससे भी बड़ी मूर्खता तब होती है जब कोई आदमी अल्पज्ञानी को अपना गुरु बना लेता है। अनेक बाद ऐसे लोगों को भी गुरु मान लिया जाता है क्योंकि वह ज्ञान का रटा लगाकर उपदेशक की भूमिका में आ जाते हैं। सच बात तो यह है कि ज्ञान का रटा लगाकर बने उपदेशक मूर्ख नहीं होते बल्कि अपने शिष्यों और श्रोताओं को बनाते हैं। ज्ञान के व्यापारियों के लिये भारतीय अध्यात्म का संदेश वैसा ही जैसे किताबें बेचने वालों के लिये किताबें। वह किताबें बेचते हैं पर उसका ज्ञान अपने पास नहीं रखते। जब लोग इन ज्ञान के व्यापारियों की संगत करते हैं तो उनको लगता है कि वह स्वयं भी ज्ञानी हो रहे हैं। उसके बाद वह उनके प्रचारक के रूप में दूसरों को भी शिष्य बनने के लिये उकसाते हैं जैसे कि स्वयं बहुत बड़े ज्ञानी हो रहे हैं।
इस विषय पर भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि
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यदा किंचिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवम्
तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिपतं मम मनः।
यदा किञ्चित्किाञ्चिद् बुधजनसकाशादवगतम्
तदा मूर्खोऽस्मीति जवन इव मदो में व्यपगतः।।
"जब मुझे कुछ ज्ञान हुआ तो मैं हाथी की तरह मदांध होकर उस पर गर्व करने लगा और अपने को विद्वान समझने लगा पर जब विद्वानों की संगत में बैठा और यथार्थ का ज्ञान हुआ तो वह अहंकार ज्वर की तरह उतर गया तब अनुभव हुआ कि मेरे समान तो कोई मूर्ख ही नहीं है।"
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यदा किंचिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवम्
तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिपतं मम मनः।
यदा किञ्चित्किाञ्चिद् बुधजनसकाशादवगतम्
तदा मूर्खोऽस्मीति जवन इव मदो में व्यपगतः।।
"जब मुझे कुछ ज्ञान हुआ तो मैं हाथी की तरह मदांध होकर उस पर गर्व करने लगा और अपने को विद्वान समझने लगा पर जब विद्वानों की संगत में बैठा और यथार्थ का ज्ञान हुआ तो वह अहंकार ज्वर की तरह उतर गया तब अनुभव हुआ कि मेरे समान तो कोई मूर्ख ही नहीं है।"
मनुष्य का मन कभी संसार के कार्यों से उकता जाता है तब वह अध्यात्मिक शांति चाहता है। ऐसे में वह ज्ञानी लोगों की संगत ढूंढता है। सत्संग का व्यापार करने वाले लोग उसे सकाम और साकार भक्ति का संदेश देते हुए उसे गुरु पूजा और सेवा के लिये प्रेरित करते हैं ताकि उनकी स्वयं की सेवा हो जाये। ऐसे लोगों के इर्दगिर्द घूमता आदमी कभी ज्ञानी नहीं बन पाता। यह अलग बात है कि उसे लगता है कि वह अच्छा कर रहा है। ऐसे में जब उसकी संगत कहीं ज्ञानियों के बीच होती है तो पता लगता है कि वह अभी उस ज्ञान से दूर है जिसे भारतीय अध्यात्म भरा हुआ है। योग साधना, ध्यान तथा मंत्रजाप के साथ ही सत्संग से प्राप्त ज्ञान से ही यह जाना जा सकता है कि वास्तव में तत्वज्ञान क्या है? दूसरी बात यह है कि इस संसार में सर्वज्ञानी कोई नहंी बन सकता। इसलिये ज्ञानी लोगों की भूख कभी नहीं मिटती। वह निरंतर ज्ञान संग्रह में लगे रहते हैं और दूसरों के सामने व्यर्थ बघार कर न व्यापार करते हैं और न ही उनके अंदर इस बात का अहंकार आता है कि वह ज्ञानी हैं।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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