जैसे जैसे विश्व में विकास हो रहा है वैसे वैसे ही लोगों के पास शारीरिक सुख के भौतिक साधनों एकत्रित होते जा रहे हैं। लोगों के लिये विलासिता ही सुख का पर्याय बन गयी है। शारीरिक श्रम के अभाव में अनेक तरह की बीमारियां जन्म लेती हैं। रुग्णता से ही मानसिक विकृति पनपती है।
विश्व के अनेक स्वास्थ्य संगठन तथा विशेषज्ञ इस बात की ओर संकेत कर चुके हैं कि अनेक देशों में चालीस प्रतिशत से अधिक लोग मनोरोगों से ग्रसित हैं पर वह न स्वयं न जानते हैं न दूसरों को ही आभास होता है। हम लोग यह समझते हैं कि मनोरोग होने का मतलब पागलपन से है। दरअसल हम विक्षिप्ता की चरम स्थित जिसे पागलपन कहा जाता है मनोरोग मान लेते हैं। वैसे मनोरोग की चरमस्थिति विक्षिप्पता ही है पर इसके अलावा भी ऐसी स्थितियां हैं जब कोई आदमी विक्षिप्त न हो पर मानसिक रूप से उसका मस्तिष्क तनाव से ग्रस्त होता है पर सामान्य दैहिक व्यवहार के चलते न उसे आभास होता है न दूसरे ही इस बात को समझते हैं। वह भी मनोरोग का शिकार हैं भले ही उनके सामान्य दैहिक क्रियाओं से यह लगता न हो। खासतौर से वर्तमान काल में जो लोग शारीरिक श्रम से बच रहे हैं उनका व्यवहार तो अनेक बार बेतुका हो जाता है और बातचीत में इसका आभास वही लोग कर सकते हैं जो परिश्रम करते हुए अपना मानसिक स्तर सामान्य बनाये हुए हैं।
इस विषय पर भर्तृहरि महाराज कहते हैं
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पुण्यैर्मूलफलैस्तथा प्रणयिनीं वृत्तिं कुरुष्वाधुना
भूश्ययां नवपल्लवैरकृपणैरुत्तिष्ठ यावो वनम्।
क्षधद्राणामविवेकमूढ़मनसां यन्नश्वाराणां सदा
वित्तव्याधिविकार विह्व्लगिरां नामापि न श्रूयते।।
"भर्तृहरि महाराज अपने प्रजाजनों से कहते हैं कि अब तुम लोग पवित्र फल फूलों खाकर जीवन यापन करो। सजे हुए बिस्तर छोड़कर प्रकृति की बनाई शय्या यानि धरती पर ही शयन करो। वृक्ष की छाल को ही वस्त्र बना लो लो। अब यहां से चले चलो क्योंकि वहां उन मूर्ख और संकीर्ण मानसिकता वाले लोगों का नाम भी सुनाई नहीं देगा जो अपनी वाणी और संपत्ति से रोगी होने के कारण अपने वश में नहीं है।"
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पुण्यैर्मूलफलैस्तथा प्रणयिनीं वृत्तिं कुरुष्वाधुना
भूश्ययां नवपल्लवैरकृपणैरुत्तिष्ठ यावो वनम्।
क्षधद्राणामविवेकमूढ़मनसां यन्नश्वाराणां सदा
वित्तव्याधिविकार विह्व्लगिरां नामापि न श्रूयते।।
"भर्तृहरि महाराज अपने प्रजाजनों से कहते हैं कि अब तुम लोग पवित्र फल फूलों खाकर जीवन यापन करो। सजे हुए बिस्तर छोड़कर प्रकृति की बनाई शय्या यानि धरती पर ही शयन करो। वृक्ष की छाल को ही वस्त्र बना लो लो। अब यहां से चले चलो क्योंकि वहां उन मूर्ख और संकीर्ण मानसिकता वाले लोगों का नाम भी सुनाई नहीं देगा जो अपनी वाणी और संपत्ति से रोगी होने के कारण अपने वश में नहीं है।"
जहां अमीरों और सम्मानित लोगों की महफिल होती है वहां उपस्थित होने वाले सभी एक तरह के होते हैं। इसलिये उन्हें आभास नहीं हो सकता कि कौन मनोरोगी हैं और कौन नहीं। कोई छोटा आदमी वहां मौजूद हो तो वह सोचता है कि यह तो बड़े लोग हैं पर जो ज्ञानी और मानसिक रूप से स्वस्थ हैं वह जानते हैं कि ‘गुण ही गुणों को बरतते हैं’। मतलब यह कि देह जैसे कर्म में लिप्त है वैसे ही मन की स्थिति हो जाती है। देह अगर अधिक परिश्रम करने वाली नहीं है तो बुद्धि भी अधिक चिंतन नहीं कर सकती। आदमी भले ही अपने वाहनों से लंबी लंबी यात्रायें करता हो पर उसका मन, बुद्धि और अहंकार उसे संकीर्ण दायरों में कैद कर देता है। ऐसे लोग न स्वयं कष्ट भोगते हैं बल्कि दूसरे को भी अपनी वाणी और व्यवहार से कष्ट देते हैं। ऐसे लोगों की पहचान कर उनसे दूर रहना ही बेहतर है।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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