Saturday, February 26, 2011

बुरी कमाई को छोड़ देना चाहिए-हिन्दी धार्मिक संदेश (buri kamai n karen-hindi dharmik sandesh)

हर मनुष्य में स्वाभाविक रूप से यह ज्ञान रहता है कि कौनसा धन धर्म की कमाई है और कौनसा पाप की! दूसरा कोई आदमी यह नही बता सकता है आप पाप की कमाई कर रहे हो या नहीं उसी तरह किसी दूसरे को कहना भी नहीं चाहिये कि उसकी कमाई पाप की है। धन या माया तो सभी के पास आती है पर अपने परिश्रम, ज्ञान तथा कार्य के अभ्यास से कमाने वाले लोग वास्तव में धर्म का निर्वाह करते हैं जबकि झूठ, बेईमानी तथा अनाधिकारिक प्रयासों से धन कमाने वाले पाप की खाते हैं।
कहा जाता है कि जैसा आदमी खाये अन्न वैसा ही होता है उसक मन। अगर हम इसका शब्दिक अर्थ लेें तो इसका आशय यह है कि हम भोजन में मांस और मदिरा का सेवन करेंगे तो धीरे धीरे हमारी प्रकृति तामसी हो जायेगी। इसका लाक्षणिक अर्थ लें तो हमारी सेवा और व्यवसाय के प्रकार से है। जो लोग ऐसी जगहों पर काम करते हैं जहां का वातावरण अत्यंत दुर्गंधपूर्ण तथा गंदगी से भरा है तो चाहे वहा भले ही एक नंबर की कमाई करें पर उनकी देह में भरे विकार उनके अंदर सात्विक प्रवृत्तियां नहीं आने देतें। अपने कर्मस्थल से मिली पीड़ा उनका पीछा नहीं छोड़ती। इसका अगर व्यंजना विधा में अर्थ देखें तो यह स्पष्ट है कि जो धन दूसरे के शोषण, भ्रष्टाचार या अपराध से प्राप्त करते हैं वह चाहे अच्छी जगह पर रहे और शाकाहारी भोजन भी करें तब भी आसुरी प्रवृत्ति के हो जाते हैं।
इस विषय पर कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है
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दुष्यस्यादूषणार्थंचच परित्यागो महीयसः।
अर्थस्य नीतितत्वज्ञरर्थदूषणमुच्यते।।
"दुष्य तथा दूषित अर्थ का अवश्य त्याग करना चाहिये। नीती विशारदों ने अर्थ की हानि को ही अर्थदूषण बताया है।"
अतः हमें इस अपने जीवन में सतत आत्ममंथन करना चाहिए। जिंदगी तो सभी जीते हैं पर कुछ लोग ऐसे हैं जो अपने पास कुछ न होते ही हुए भी प्रसन्न रहते हैं और कुछ सब कुछ होते हुए भी दुःखी रहते हैं। जीवन जीने की कला सभी को नहीं आती इसके लिये जरूरी है कि ध्यान, चिंतन और मनन करते हुए अपनी आय के साधन तथा कार्यस्थलों में पवित्रता लाने का प्रयास करें।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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