अच्छी खबर का इंतजार रहता, बुरी भी हो तो भी इंसान सहता।
‘दीपकबापू’ जिंदगी में रहते मस्त, वही जो सहज धारा में बहता।।
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तख्त पर जो जमा मस्त हैं, लाचार खड़े देखने वाला पस्त हैं।
‘दीपकबापू’ मतवाले बने पहरेदार, नैतिकता का सूर्य अब अस्त है।।
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सभी ने रख लिये अपने वेश, पता न लगे कौन सेठ कौन दरवेश।
‘दीपकबापू’ कहां बनायें नया निवास, मायावी हड़प चुके सभी देश।।
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चिंताओं मेें थमी जिंदगी वादों पर मरने के लिये बेकरार है।
सपनों का सफर थमता नहीं, सच की राह में बड़ी दरार है।
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खतरा घर में तो बाहर भी है, कब तक किससे जान बचायेंगे।
चिंताये जब तक पीछा करेगी कैसे जिंदगी का जश्न मनायेंगे।।
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आंख और कान बंद कर देखा, खामोशी भी खूबसूरत लगी थी।
याद नहीं रहीं वह सूरत और सीरते जो कभी बदसूरत लगी थी।
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जिंदगी के अर्थ से लोग हार जाते हैं, तब शब्द उनका मन मार जाते हैं।
ज्ञान पथ पर जब चलना लगे कठिन लोग साथ अपने तलवार लाते हैं।
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चाहने वाले तो इतंजार करते मगर चहेते ही रास्ता बदल जाते हैं।
दिल से सोचने वाले लोग दिमाग के खेल में कभी नहीं चल पाते हैं।
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अपने लिखे पर बहुत इतराते हैं, चार शब्द ही कागज पर छितराते हैं।
‘दीपकबापू’ अमन के बने फरिश्ते, कातिलों का नाम फरिश्ता दिखाते हैं।।
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अपने सत्य से सभी लोग मुंह चुराते, झूठ का झंडा हाथ में लेकर झुलाते।
दीपकबापू ख्याली पुलाव रोज पकाते, जलाकर हाथ फिर मददगार बुलाते।।
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तमाम उम्र गुजारते अपनों को संभालते, कूड़ेदान में पड़े सपनों को खंगालते।
‘दीपकबापू’ सबकी खुशी की करें कामना, बहाने से अपना मतलब संभालते।।
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दिल में जगह नहीं घर बुलाते, स्वागत में सिर अहंकार में झूलाते।
‘दीपकबापू’ खुश होना भूल गये, बेदर्द लोग अपना दर्द यूं सुलाते।।
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पराये दर्द में खुशी तलाश करते, अपने दिल में लोग नाश भरते।
दीपकबापू अपना अस्तित्व भूले, स्वय को नाकाम निराश करते।।
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किसी का साथ छूटने की चिंता ने इतना कभी नहीं डराया।
इंतजार से नाता टूटने की खबर से जितना दिल थर्राथर्राया।।
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जिंदगी का दर्शन हर कोई अपने ढंग से सुनाता है।
कोई होता है दिलवाला जो जिंदा गीत गुनगनाता है।।
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जिंदा के दर्द का इलाज नहीं, लाशों को दवा बांटते हैं।
भरोसा बेचने वाले सौदागर धोखे में फायदा छांटते हैं।
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हमने तोे हंसते हुए शब्द कहे, गलत अर्थ लेकर वह रोने लगे।
हमदर्दी जताना अब है महंगा, दिल की भाषा लोग खोने लगे।
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सेवकों के अभिनय से बनते समाचार, बहसों पर कुतर्कों का भार।
गंभीर लगते सारे विषय, हास्य रस का बंटता साथ में अचार।।
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हम तो दर्द बांटने गये उन्होंने समझा मजाक उड़ाने आये हैं।
कैसे समझाते उनके साथ हम सच्ची हमदर्दी जुड़ाने आये हैं।
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कटी पतंग की तरह हो गये लोग, राख चमकाये चेहरा अंदर पलें रोग।
‘दीपकबापू’ कृत्रिम सौंदर्य पर फिदा, अमृत छाप विष का करें भोग।।
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अपनी वाणी की करें तीखी धार, बेइज्जत लफ्ज का होता वार।
दीपकबापू अब ढूंढ रहे हमदर्दी, अपने दिल के जज़्बात दिये मार।।
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हंसी की भंगिमा भी बनी व्यापार, ठिठोली बना देती बड़ा कलाकार।
‘दीपकबापू’ विषय समझते नहीं, अपनी पीठ थपथपाकर करें बेड़ा पार।।
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सच कहो तो लोग बुरा माने, झूठ बोलना हम नहीं जाने।
बोलो तो शब्द का अर्थ समझें नहीं खामोशी में मिलें ताने।
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