Sunday, May 7, 2017

देश में सार्वजनिक विमर्श के लिये वातावरण का शुद्ध होना जरूरी-हिन्दी लेख (Neccesary Envirment for Public Discussion-HindiArticle)

                                हम यह तो नहीं कहेंगे कि देश में असहिष्णुता की वजह से अभिव्यक्ति का संकट है पर इतना जरूर मानते हैं कि अन्मयस्कता की वजह से सार्वजनिक विमर्श बाधित जरूरी हुआ है। पहले प्रगतिशील और जनवादी बुद्धिजीवी हाशिये पर आये तो अब राष्ट्रवादी भी अपने आपको ठगा हुआ अनुभव करते हैं। इसका कारण यह है कि इन विचाराधारा के बुद्धिजीवियों ने अपने दृष्टिकोण से राजनीति क्षेत्र में सक्रिय समाजवादी, वामपंथी और हिन्दूवादी दलों के आसरे अपनी वैचारिक यात्रा की। प्रगतिशील और जनवादी तो राज्यप्रबंध में इस तरह घुसे हैं कि आज भी उनको सम्मान मिल जाता है पर राष्ट्रवादियों को जैसे भुला ही दिया गया है। हम अगर मूल भारतीय साहित्य लेखन की बात करें तो वह अब असंगठित क्षेत्र के लेखकों की जिम्मेदारी बन गया है। वैसे हमारा प्राचीन साहित्य और हिन्दी का  भक्तिकाल हमारे साहित्य की ऐसी धरोहर है जिसके सहारे हम सदियों तक असंगठित साहित्य के चल सकते हैं। अलबत्ता आपसी विचार विमर्श का जो वातवरण प्रगतिशील व जनवादियों ने जो बनाया था वह प्रदूषित हो गया है। हम दोनों से सहमत नहीं होते पर यह सच हम मानते हैं कि इनकी रचनाओं से हमें अपने अंदर एक अध्यात्मिक लेखक ढूंढने में सहायता मिलती है। हम अध्यात्मिक वादी लेखक हैं इसलिये राष्ट्रवादी विचाराधारा से थोड़ा लगाव है-हालांकि समाज पर राज्य प्रबंध से पूर्ण नियंत्रण की उनकी शैली हमें पसंद नहीं है। हमारा मानना है कि भारतीय समाज एक वैज्ञानिक आधार पर चलता रहा है जिस पर राज्य का अधिक दबाव ठीक नहीं है।  इधर राष्ट्रवादी लेखकों में भी निराशा का माहौल दिख रहा है। 
प्रगतिशील और जनवादी अनुभवी हैं और उन्हें पता है कि वह जनमानस को विमर्श के माध्यम से व्यस्त रखते हैं और राज्प प्रबंध को अपनी नाकामी के प्रचार से बचने के लिये यह अच्छा लगता है। वह सहविचारक राज्य प्रबंध के अनुयायी होते हैं पर जानते हैं कि वह उनके विचार के सहारे नहीं चलता पर जनमानस को व्यस्त रखने के लिये उन्हें जो मिलता है वही पर्याप्त है। इनके विषय व्यापक हैं इसलिये वह सदैव सक्रिय रहते हैं। इसके विपरीत राष्ट्रवादियों के पास सीमित विषय हैं। उन्हें अब अनुभव होने लगा है कि वह राज्य प्रबंध के लिये उतने ही अवांछनीय है जितने पहले थे। ऐसे में हमें तीनों विचाराधारा के लेखकों से हमदर्दी है। हमारी सलाह है कि सभी विचाराधाराओं के इंटरनेट पर सक्रिय ऐसे लेखक जो असंगठित हैं पर सक्षम हैं आपस में मिलें । कोई समागम करें जिसमें सभी अपने खर्चे पर आयें। दिल्ली में बैठे लोग किसी ऐसे उद्यान या मैदान का चयन करें जहां बैठने की व्यवस्था भर हो। संगठित क्षेत्र के बुद्धिजीवियों की तरह कोई बड़ा आयोजन तो संभव नहीं है पर एक पर्यटननुमा आयोजन किया जा सकता है जिसमें लेखक दिल्ली घूमने भी आयें और लेखक मित्रों से मिलकर कोई योजना बनायें। अभी टीवी चैनल, अखबार और इंटरनेट पर देश की मनमोहक प्रतिमओं के दम पर जनमानस को प्रायोजित रूप से व्यस्त रखा जा रहा है पर आगे एक वैचारिक शून्यता का संकट आने वाला है। सत्तर साल पुरानी राजकीय प्रबंध शैली में जरा भी सुधार न है न भविष्य में होने की संभावना है।
हमसे जो बन पड़ेगा करेंगे। मूल रूप से अध्यात्मिकवादी हैं इसलिये तो एकांतवास में ही रहना चाहिये पर स्वभाव ऐसा है कि कुछ नया करने को ढूंढता है।  हमने थोड़ा सोचा है आप ज्यादा सोचो। हम हमेशा ही तैयार हैं। 


Sunday, April 16, 2017

बड़े पदों पर बौनेचरित्र लोग पहुंच गये हें (Bade pade par baone charitra ke log)

                               एक बात समझ में नहीं आती। ऐसा क्या मजबूरी है कि योग प्रचार में शीर्ष पर पहूंचे विद्वान विश्व में जीवन जीने की इकलौती सर्वश्रेष्ठ कला कहलाने वाली इस साधना में दूसरे धर्मों की पूजा पद्धति से करने लगे हैं। बीस साल पूर्व हमने योग साधना प्रारंभ की तो अनेक ऐसी अनुभूतियां हुईं जो सामान्यतौर से नहीं हो सकतीं थीं। सबसे बड़ी बात यह कि योग साधना से आत्मविश्वास बढ़ता है।  जब देह, मन और विचार शुद्ध होते हैं तो मनुष्य की पूरे देह में उत्साह का संचार सदैव बना रहता है। अगर इसे एक पूजा पद्धति माने तो इसका रूप जिज्ञासा तथा ज्ञान की प्रकृति पर आधारित है।  हम अन्य धर्मों की ही क्या भारतीय धर्मों की ही बात करें तो अनेक प्रकार की पूजा पद्धतियां हैं पर वह सभी आर्त व अर्थार्थी भाव पर चलती हैं।  अगर हम इसे भारतीय धर्मों से अलग करके देखें तो यह इकलौती ऐसी कला है जो मनुष्य में चेतना की धारा सदैवा प्रवाहित करती है। मुख्य बात यह कि योग साधना में संकल्प का सर्वाधिक महत्व है जिसे धारण करना प्रारंभ में सहज नहीं होता पर जिसने धारण कर लिया वह कभी असहज नहीं होता। हम तो यह कहते हैं कि बाकी कोई करे या न करे पर भारतीय धर्मावलंबियों को यह अनिवार्य रूप से करना चाहिये।  बाहरी विचाराधारा वाले हमारी जीवन पद्धतियों को नहीं मानते पर हमारे विद्वान उनसे समानता बताकर आखिर कहना क्या चाहते हैं?
                          बड़ा आदमी जब छोटे पर हमला करता है तो अपना ही स्तर गिराता है। मार या गाली खाकर भी छोटा आदमी वहीं रहता है जहां था। इसके विपरीत उसे अन्य लोगों से सहानुभूति मिलती है चाहे वह स्वयं भी गलत रहा हो।
हमारे देश में यह भी एक समस्या है कि बौने चरित्र के लोग बड़े पदों पर विराजे हैं जिन्हें यह पता नहीं कि उनकी ताकत क्या है? वह तो इस चिंता में रहते हैं कि कहीं उनकी औकात सार्वजनिक न हो जाये। इस तनाव में वह ऐसी गल्तियां कर बैठते हैं जो अंततः उनके अंदर का बौना चरित्र बाहर ला देती हैं। रहता तो वह वहीं है पर लोग उसे छोटा और हल्का मानने लगते हैं।

Friday, January 13, 2017

जवानों की शिकायतों पर ध्यान देना चाहिये-हिन्दी संपादकीय(Jawan's Porblamb must solwe-HindiEditorial)

                                 भक्तगणों को बिन मांगे हमारी  राय है कि जवानों की शिकायतों पर प्रतिकूल टिप्पणियां कर अपने इष्ट के प्रति उनके ही सद्भाव को समाप्त न करें। भक्तों को बता दें कि जवानों की यह शिकायतों का दौर अब इसलिये प्रारंभ हो गया है कि वह भक्तों के इष्ट को अपना समझते हैं-मतलब जो पहले उनकी जगह थे उनसे दर्द झेल रहे जवान आशा नहीं करते थे। समस्या दूसरी भी है कि भक्त यह समझें कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध उनके इष्ट का रवैया शाब्दिक रूप से आक्रामक रहा है पर भूतल पर वह दिखाई नहीं दिया।  भ्रष्टाचारियों में अब उनके इष्ट का भय नहीं रहा इसलिये वह अपने कारमाने जारी रखे हुए हैं।  जवानों का दर्द भक्तों के इष्ट की वजह से नही वरन् भ्रष्टाचारियों की बेदर्दी से उपजा है। जब तक भ्रष्टाचारियों में भक्तों के इष्ट का खौफ दोबारा नहीं आयेगा तब यह समस्या यथावत रहेगी। भक्त यह समझें कि उनके इष्ट की छवि ने जो देवता की छवि बनायी है उसी वजह से जवान अपनी समस्या उन तक पहुुंचाने के लिये आतुर हैं। जवानों की शिकायतों पर आक्षेप कर भक्तगण अपने ही इष्ट की छवि से उनके मन में पैदा हुई आशा पर प्रहार न करें।
                      देश में सुरक्षा तथा गोपनीयता के नाम सरकारी कर्मचारियों को अपनी व्यथा कथा सार्वजनिक रूप से कहने पर अघोषित प्रतिबंध है। सीमा सुरक्षा बल के जवान तेजबहादुर ने अपने खाने पीने में दाल या घी न होने की शिकायत की है-यकीनन उसने सुरक्षा बलों में उच्च स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार को सोशल मीडिया पर लाकर अपने लिये ही चुनौती मोल ली है-उच्च अधिकारी उसे अब प्रताडि़त करने का कोई अवसर नहीं छोड़ेंगे।  अतः केंद्रीय राजकीय नागरिक कर्मचारी संगठनों के राष्ट्रवादी नेताओं को चाहिये कि वह सेना तथा सीमासुरक्षा बल के जवानों की समस्याओं को पुरजोर ढंग से उठायें। सेना तथा पुलिस के जवान अनुशासन के कारण अपनी बात नहीं कहते इसलिये नागरिक कर्मचारी संगठनों को उनकी व्यथा सरकार तक पहुंचाना चाहिये। प्रगतिशील और जनवादी मजदूर नेताओं ने जबरन कर्मचारी तथा मजदूरों संगठनों की समन्वित संस्थाओं पर कब्जा कर रखा है। यह लोग केवल फिक्सिंग करते हैं। अतः राष्ट्रवादी मजदूर तथा कर्मचारी नेताओं को इन समन्वित संस्थाओं पर बनाना चाहिये।
                                    हम पुस्तक मेला 2017 देखने दिल्ली आना चाहते हैं। दिल्ली कई बार आये हैं पर ज्यादा घूमे नहीं है। प्रगति मैदान तक कैसे जायें कैसे आयें-इस पर भी जानकारी ले रहे हैं। क्या सुबह घर से निकलकर शाम तक वहां पहुंच पायेंगे। फिर रात को वहां से ग्वालियर  लौट आयें-ऐसा कार्यक्रम बनाना पड़ेगा। इधर रेलों का भी कुहरे के कारण भरोसा कम रह गया है। दिल्ली में हम अगर रुकें तो कहां? यह सवाल भी आता है। पुस्तक मेला है तो कोई साथी भी चलने के लिये नहीं मिलेगा-आज जब मोबाइल युग है कौन इस तरह बेगार का साथी बनेगा। मतलब पूरा सफर अकेले मौन से मित्रता कर बिताना पड़ेगा।
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                               पैतालीस साल पहले 1972 में हम एक बार अपने पापा के साथ प्रगति मैदान विज्ञान मेला देखने  आये थे जो भारत पाक युद्ध के बाद लगा था। तब बहुत छोटे थे तब हमारे साथ ताऊ और चाचा के लड़के भी थे।  वहां से खरीद कुछ नहीं पाये थे क्योंकि उस समय निम्न मध्यम वर्गीय परिवारें की स्थिति इस तरह की नहीं थी कि महंगे कैमरे या अन्य वस्तुऐं खरीद सकें-देखना भी धन्य माना जाता था।  अब अगर आये तो पुस्तकें तो जरूर खरीदेंगे। देखें आगे क्या विचार बनता है।

Wednesday, November 2, 2016

वैश्विक राजनीतिक परिदृश्य में बदलाव की संभावना प्रबल-हिन्दी लेख (chenge will be Posible in World Politics Sceanerio-HindiARticle)


                                   भारत-पाकिस्तान के सीमा पर जो हालत हैं वह भविष्य में किसी बड़े युद्ध का संकेत हैं।  ऐसा लगता है कि पाकिस्तान का भावी रूप क्या हो? यह तय होना शेष रह गया है।  यह बात अब बेकार हो गयी है कि पड़ौसी बदला नहीं जा सकता-अगर दम हो तो उसका मकान तो खरीदा ही जा सकता है।  पाकिस्तान का मतलब होता है केवल पंजाब-अब उसी का भविष्य तय होना है। जहां तक सीमा पर मुठभेड़ो का सवाल है वह लंबी चल सकती हैं क्योंकि भारत अपने बनाये तथा खरीदे गये हथियारों भी इस दौरान कर सकता है। जिस तरह अमेरिका अपने हथियार परीक्षण के लिये इधर उधर युद्ध करता है उसी तरह भारत भी कर सकता है।  रूस और अमेरिका ने अपने अपने हथियार अरब देशों के लड़कों को बेच हैं-दोनों के बीच हथियार तथा तेल भंडार ही युद्ध का कारण है।  सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि अब देखना यह है कि सऊदी अरब का क्या होता है? क्योंकि उसने शिया ईरान के साथ रूस से भी बैर लिया है।  अगर अमेरिका में ट्रम्प का आगमन हुआ तो सऊदी अरब पर संकट आना तय है। ऐसे में पाकिस्तान का धार्मिक आधार एकदम समाप्त हो जायेगा तब भारत के लिये वह एक आसान शिकार होगा।
             वैश्विक राजनीतिक परिदृश्य बदल सकता है तो भारत भी उससे बच नहीं सकता।  बहरहाल इस समय प्रचार माध्यमों में पाक के साथ मुठभेड़ों के समाचार छाये हुये हैं तो उन लोगों बेचैनी होती है जो रोज शाम अपना चेहरा पर्दे पर पर देखना चाहते हैं। यही कारण है कि अभिव्यक्त होने थोड़ा अवसर मिलता है तो वहां ज्यादा सक्रियता दिखाते हैं। यही कारण है कि पाक गोलाबारी में 16 नागरिकों के मारे जाने पर किसी ने दुःख नहीं जताया वरन् भोपाल में पुलिस के हाथों घोषित आतंकवादी मारे जाने पर बवाल मचाया क्योंकि प्रचार का यही एक तरीका था। उसके तत्काल बात एक पूर्व सैनिक की आत्महत्या पर भी उन्हें बवाल मचाने का अवसर मिला।
                                        आत्महत्या करने वाले भी नायक बनते हैं यह अब देखने को मिल रहा है। यह देश की स्थिति है कि अस्पताल में जाकर राजनीतिक अखाड़ेबाजी हो रही है। उससे बुरी बात यह कि घर के आदमी की लाश जिसका अंतिम संस्कार होना चाहिये उसका उपयोग प्रचार के लिये हो रहा है।
भोपाल मुठभेड़ के तत्काल बाद पहले पिछड़ रहे ट्रम्प अब सर्वोक्षणों में हिलेरी से आगे हो गये हैं। अब तो इस मामले पर अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण से होना चाहिये। वैसे भी अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए पर भारत में हस्तक्षेप का आरोप लगता रहा है।
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हिन्दू भलमानस हो या खलमानस उसके रक्त में ब्रह्मज्ञान सहजता से प्रवाहित रहता है
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                          जनवादियों के साथ मुश्किल यह है कि एक मरता तो उसका नाम लेकर कहते किस किसको मारोगे हर घर में पैदा होगा? अब आठ मारे गये तो किस किसका नाम लें-इसी समस्या से परेशान हैं।
                  राजकर्मी जनहित के लिये किसी भी प्राण हर सकता है, उसे कोई पाप नहीं लगता-हमारी मनुस्मृति के अनुसार राजकमी के हाथ से हत्या होना अपराध नहीं है।
                          एक प्रहरी की हत्या के बाद आतंकियों तथा पुलिस के बीच युद्ध शुरु हुआ था उसमें नागरिक कानून काम नहीं कर पाता। 
                 भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों का प्रभाव ऐसा उनके श्रवण से भी मानव मस्तिष्क में ज्ञान प्रवाह स्वतः हो ही जाता है। इसी कारण हिन्दू अपराधी हो या भलमानस कहीं न कहीं उसकी रक्तशिराओं में ब्रह्मज्ञान का तत्व बहता है।  उसमें यह भाव सहजता से रहता है कि कल जो आजादी थी वह अपराध के कारण छिन गयी।  जब अपराध का हिसाब भाग्य से पूरा हो जायेगा तब वह वापस भी मिल जायेगी। अपराध का दंड पूर्ण होने पर पुण्य के कारण अच्छे दिना स्वतः आते हैं।
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Saturday, October 15, 2016

हमें तो सब जगह क्रिकेट की तरह फिक्सिंग लगती है-हिन्दी व्यंग्य लेख ( We Feel As Fixing on All Place and Disscusion on Tv Chaianl in Public Subject-Hindi Satire Article)


                               क्रिकेट पर जब फिक्सिंग  का विवाद चला तो हम यह मानकर चले कि यहां सब फिक्स ही चल रहा है। पर्दे पर जो दिख रहा है उसकी पहले ही पटकथा लिखकर समाचार या घटना की जाती है फिर उस पर बहसें चलती है। जिस तरह फिल्म के नायकों की छवि होती है उसी तरह के पात्र की भूमिका उनको नियमित रूप से मिलती है उसी तरह समाचारों के भी नायक और खलनायक तय किये जाते हैं।  फिर उन पर बहसें होती हैं। हमने तमाम चैनल देख डाले। कभी नया विद्वान नज़र नहीं आता। वही घिसेपिटे चेहरे चले आते हैं। वही बातें दोहराते हैं।  जिस तरह फिल्म का नाम के साथ नायक नायिका का नाम देखकर उसकी पूरी पटकथा समझ में आ जाती है।  उसी तरह टीवी चैनल पर कथित विद्वानों की शक्ल देखकर अनुमान हो जाता है कि वह क्या कहेगा?

                         तलाक तलाक तलाक, सर्जिकल स्ट्राइक, पाक कलाकारों के भारतीय फिल्मों में काम तथा समान नागरिक संहिता जैसे विषयों पर सप्ताह से चर्चा के दौरान सभी टीवी चैनलों का समय खूब पास हो रहा है। विद्वान सभी वेतनभोगी बुलाये जाते हैं ताकि उतना ही बोलें जितना चैनल वाले चाहते हैं। नये तर्क, विचार और  चिंत्तन का तो उनके पास सर्वथा अभाव होता है।  इससे बेहतर तर्क तो फेसबुक और ट्विटर पर आम प्रयोक्ता लिख रहे हैं जिन्हें बुलाने का खतरा यह टीवी चैनल वाले उठा नहीं सकते। यह चैनल वाले उसी को बुलाते हैं जिसकी पूंछ कहीं दबी हुई हो ताकि वह विद्वान न माने तो उसके आका को पकड़ा जाये।
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सच्चा नास्तिक वही है जो स्वयं को देहधारी ही नहीं माने
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                         हमारी दृष्टि से सच्चा नास्तिक वह है जो माने कि वह स्वयं भी है है नहीं वरन् ब्रह्मा जी के सपने में चल रहे कल्पित देह का रूप है। अपना अस्तित्व नकारने वाला ही सच्चा नास्तिक है।
                                  वैसे हम आस्तिक नास्तिक के विवाद से दूर हैं। यह भी पता नहीं कि हम क्या हैं-आस्तिक या नास्तिक। इतना जरूर मानते हैं कि जिस तरह हम रात को सपने में अनेक जीव देखते हैं पर जैसे ही निद्रा टूटती है पता लगता है कि वह सब गायब हो गये।  उसी तरह कहा जाता है कि  ब्रह्मा जी जब निद्रा में लीन होकर सपना देखते हैं तब यह संसार विभिन्न भूतों से चलता है और जैसे ही वह जागते हैं तो सब गायब हो जाते हैं।  हम सोचते हैं कि हमारे सपने वाले जीव भी अपनी निद्रा अवधि में सांस लेते हैं और जागते ही गायब हो जाते हैं। ठीक उसी तरह ब्रह्मा जी की नींद खुलते ही सारे जीव गायब  हो जायेंगे।  मतलब अगर हम यह माने कि हमारे सपने के जीव नहीं होते तो यह भी कहना चाहिये कि उसी तरह हम भी नहीं होते।  अगर वह होते हैं तो हम भी होते हैं। इसलिये हम आज तक नहीं तय कर पायें कि आस्तिक कहलायें या नास्तिक।
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Monday, September 26, 2016

टेस्ट मैचों की रैकिंग में नंबर एक होना शहीदों का बदला नहीं-हिन्दीसंपादकीय (Test match ranking no-1 is not revnege of shahid-Hinid Editorial)

                              ‘पाकिस्तान से छीना ताज, शहीदों को श्रद्धांजलि’ जैसे शीर्षक देकर हमारा मीडिया यह साबित करना चाहता है कि वह देशभक्ति भी चतुराई से बेचता है। कानपुर टेस्ट में भारत की न्यूजीलैंड पर जीत का पाकिस्तान से बस इतना ही लेनादेना है कि विश्व की टेस्टमैच रैकिंग में वह एक नंबर से दूसरे नंबर पर आ गया है। हम तो यह भी कहते हैं कि यह विजय अगर पाकिस्तान पर होती तो भी शहीदों के खून का बदला इसे नहीं माना जा सकता था। हालांकि समाचारों के अनुसार भारतीय सैनिकों ने सीमा पर हिसाब किताब बराबर करने की कार्यवाही शुरु कर दी है और सच तो यह है कि वही अपने साथियों की शहादत का बदला ले सकते हैं।  क्रिकेट या हॉकी में हराना कोई बदला नहीं होता है।

               पाकिस्तान ने यह नंबर भी अब दो चार दिन पहले इंग्लैंड को हराकर प्राप्त किया था।  इस तरह की उठापटक एकदिवसीय तथा बीसओवरीय क्रिकेट मैचों की रैकिंग में भी होती रहती है। अन्य खेलों में खिलाड़ियों की इसी तरह की रैकिंग होती है जिसमें कभी कभी बेहतर से बेहतर खिलाड़ी भी  निजी कारणों से जब अधिक मैच नहीं खेलता तब वरीयता सूची में उसका स्थान नीचे आ जाता है जिसे समय आने पर फिर प्राप्त करता है। खिलाड़ियों व उनके प्रशंसकों के लिये रैकिंग कोई महत्व नहीं होता।

                          पाकिस्तान का बौद्धिक समाज एक वर्ग चाहता था कि नवाज अपने भाषण में आतंकवाद के साथ उरी की घटना की निंदा करें पर वह केवल कश्मीर में भारत तक आरोप लगाने तक सीमित रहे। दरअसल नवाज शरीफ ने राहिल शरीफ का तैयार किया  हुआ भाषण पढ़ा। वहां के सैन्य अधिकारी देश की बजाय अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं जो केवल कश्मीर मुद्दे पर ही टिका है।  पाकिस्तानी चैनलों की बहस को देखें तो वहां बौद्धिक समाज और सेना के बीच मतभेद हैं पर वक्त डरते और शब्द चबाते हुए अपनी बात कह रहे हैं। 

Wednesday, September 21, 2016

चाहने वाले तो इतंजार करते मगर चहेते ही रास्ता बदल जाते हैं-दीपकबापूवाणी (Chahehte Rasta badal jate-Deepak Bapu Wani)


अच्छी खबर का इंतजार रहता, बुरी भी हो तो भी इंसान सहता।
‘दीपकबापू’ जिंदगी में रहते मस्त, वही जो सहज धारा में बहता।।
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तख्त पर जो जमा मस्त हैं, लाचार खड़े देखने वाला पस्त हैं।
‘दीपकबापू’ मतवाले बने पहरेदार, नैतिकता का सूर्य अब अस्त है।।
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सभी ने रख लिये अपने वेश, पता न लगे कौन सेठ कौन दरवेश।
‘दीपकबापू’ कहां बनायें नया निवास, मायावी हड़प चुके सभी देश।।
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चिंताओं मेें थमी जिंदगी वादों पर मरने के लिये बेकरार है।
सपनों का सफर थमता नहीं, सच की राह में बड़ी दरार है।
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खतरा घर में तो बाहर भी है, कब तक किससे जान बचायेंगे।
चिंताये जब तक पीछा करेगी कैसे जिंदगी का जश्न मनायेंगे।।
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आंख और कान बंद कर देखा, खामोशी भी खूबसूरत लगी थी।
याद नहीं रहीं वह सूरत और सीरते जो कभी बदसूरत लगी थी।
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जिंदगी के अर्थ से लोग हार जाते हैं, तब शब्द उनका मन मार जाते हैं।
 ज्ञान पथ पर जब चलना लगे कठिन लोग साथ अपने तलवार लाते हैं।
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चाहने वाले तो इतंजार करते मगर चहेते ही रास्ता बदल जाते हैं।
दिल से सोचने वाले लोग दिमाग के खेल में कभी नहीं चल  पाते हैं।
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अपने लिखे पर बहुत इतराते हैं, चार शब्द ही कागज पर छितराते हैं।
‘दीपकबापू’ अमन के बने फरिश्ते, कातिलों का नाम फरिश्ता दिखाते हैं।।
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अपने सत्य से सभी लोग मुंह चुराते, झूठ का झंडा हाथ में लेकर झुलाते।
दीपकबापू ख्याली पुलाव रोज पकाते, जलाकर हाथ फिर मददगार बुलाते।।
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तमाम उम्र गुजारते अपनों को संभालते, कूड़ेदान में पड़े सपनों को खंगालते।
‘दीपकबापू’ सबकी खुशी की करें कामना, बहाने से अपना मतलब संभालते।।
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दिल में जगह नहीं घर बुलाते, स्वागत में सिर अहंकार में झूलाते।
‘दीपकबापू’ खुश होना भूल गये, बेदर्द लोग अपना दर्द यूं सुलाते।।
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पराये दर्द में खुशी तलाश करते, अपने दिल में लोग नाश भरते।
दीपकबापू अपना अस्तित्व भूले, स्वय को नाकाम निराश करते।।
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किसी का साथ छूटने की चिंता ने इतना कभी नहीं डराया।
इंतजार से नाता टूटने की खबर से जितना दिल थर्राथर्राया।।
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जिंदगी का दर्शन हर कोई अपने ढंग से सुनाता है।
कोई होता है दिलवाला जो जिंदा गीत गुनगनाता है।।
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जिंदा के दर्द का इलाज नहीं, लाशों को दवा बांटते हैं।
भरोसा  बेचने वाले सौदागर धोखे में फायदा छांटते हैं।
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हमने तोे हंसते हुए शब्द कहे, गलत अर्थ लेकर वह रोने लगे।
हमदर्दी जताना अब है महंगा, दिल की भाषा लोग खोने लगे।
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सेवकों के अभिनय से बनते समाचार, बहसों पर कुतर्कों का भार।
गंभीर लगते सारे विषय, हास्य रस का बंटता साथ में अचार।।
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हम तो दर्द बांटने गये उन्होंने समझा मजाक उड़ाने आये हैं।
कैसे समझाते उनके साथ हम सच्ची हमदर्दी जुड़ाने आये हैं।
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कटी पतंग की तरह हो गये लोग, राख चमकाये चेहरा अंदर पलें रोग।
‘दीपकबापू’ कृत्रिम सौंदर्य पर फिदा, अमृत छाप विष का करें भोग।।
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अपनी वाणी की करें तीखी धार, बेइज्जत लफ्ज का होता वार।
दीपकबापू अब ढूंढ रहे हमदर्दी, अपने दिल के जज़्बात दिये मार।।
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हंसी की भंगिमा भी बनी व्यापार, ठिठोली बना देती बड़ा कलाकार।
‘दीपकबापू’ विषय समझते नहीं, अपनी पीठ थपथपाकर करें बेड़ा पार।।
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सच कहो तो लोग बुरा माने, झूठ बोलना हम नहीं जाने।
बोलो तो शब्द का अर्थ समझें नहीं खामोशी में मिलें ताने।
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Sunday, September 4, 2016

जिंदगी के सफर में गुज़र जाते हैं जो मुकाम, वो फिर नहीं आते (Zindagi ke Safar mein Gujar jate hain jo Mukam-Hindi Article)

                     आनंद फिल्म का एक गाना है-जिंदगी है एक पहेली, कभी हंसाये तो कभी रुलाये।’  एक दूसरा गाना भी याद आ रहा है-‘जिदगी के सफर में गुज़र जाते हैं मुकाम वो फिर नहीं आते।’ एक दौर था जब  हमारी हिन्दी फिल्मों के गाने मनोरंजन के साथ ही दर्शन से भी भरे होते थे। यह ऐसे गाने थे जो गीत संगीत प्रेमी होने के साथ ही दिमाग मेें दर्शन तत्व भी स्थापित करते थे। कहते हैं कि जिंदगी के उम्र की दृष्टि से रुचिया बदलती हैं या बदल देना चाहिये।  हमें लगता है कि यह नियम उन लोगों पर लागू होता है जो जिंदगी में अभिव्यक्त होने के शौक नहीं पालते।  बहुत कम लोग होते हैं कि उनकी इंद्रियां ग्रहण करने के साथ ही त्याग के लिये भी लालायित रहती हैं।  जिस तरह हम मुख से ग्रहण वस्तुओं को पेट में अधिक नहीं रख पाते। उसी तरह स्वर, शब्द तथा दृश्य के संपर्क में आयी इंद्रियां भी गेय अर्थ का विसर्जन करना चाहती है।  मुश्किल यह है कि ग्रहण तथा विसर्जन के मध्य एक चिंतन की प्रक्रिया है जिसमें कोई भी अपनी बुद्धि खर्च नहीं करता चाहता।  ऐसा नहीं है कि लोग देखने, सुनने तथा बोलने की क्रिया से दूर रहते हैं पर उनके शब्द, व्यवहार तथा अन्य क्रियायें आंतरिक शोध के अभाव में अस्त व्यस्त दिखाईं देती हैं।
                समय के साथ जीवन शैली भी बदली है।  लोग आज प्रकृत्ति से अधिक आधुनिक साधनों के कृत्रिम आनंद से इस तरह जुड़े हैं कि उनका बौद्धिक अभ्यास न्यूनतम स्तर पर आ गया है।  परिणाम यह है कि मानसिक तनाव से पैदा बीमारियां बढ़ रही हैं।  हम कभी देखते थे कि नये सिनेमाघर बनते थे तो लोग उन्हें देखने जाते थे।  अब स्थिति यह है कि बड़े बड़े सिनेमाघर बंद हो रहे हैं और नये अस्पताल बाहर से ऐसे लगते हैं जैसे कि सिनेमाघर बना हो।  गीत संगीत के प्रेमी तो आज कम ही देखने को मिलते हैं।  हमारा अनुभव तो यह रहा है कि जिसे कोई अतिरिक्त शौक नहीं है उसमेें सोच की शक्ति भी कम ही रहती है। एक तरह से व्यक्ति रूखा होता है भले ही वह रुचिवान होने का दावा करता हो। जिंदगी के दौर में यह बदलाव सभी देखते हैं पर इस पर सोच पायें इसका कष्ट कम ही लोग उठाते हैं।
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Saturday, July 30, 2016

राज्य प्रबंध की भूमिका समाज के सुचारु संचालन तक ही होना चाहिये-हिन्दी लेख (Stete And socity-HindiEditorial)


                              शराब, सिगरेट तथा मादकद्रव्य पदार्थों का सेवन देह के लिये खतरनाक है पर हमारा मानना है कि राज्य को इन पर पर प्रतिबंध लगाने का प्रयास नहीं करना चाहिये।  इनके प्रयोग से मनुष्य शारीरिक, मानसिक तथा वैचारिक रूप से कमजोर होता है। उससे भी ज्यादा कड़ी बात तो यह है कि इनके नियमित सेवन करने वाले व्यक्तियों से समय पड़ने पर दृढ़ सहयोग की आशा भी करना मूर्खता है चाहे वह कितने भी निजी क्यों न हों?
इसके बावजूद स्वतंत्र लेखक के रूप में हमारी मान्यता है कि राज्य प्रबंध को समाज सुधार के काम में ज्यादा हस्तक्षेप करने की बजाय उनकी ठेकेदारी करने वालो लोगों पर ही छोड़ना चाहिये। अपने जिस कृत्य से व्यक्ति अगर किसी की हानि नहीं कर रहा हो उसके विरुद्ध केवल इसलिये कार्यवाही नहीं की जा सकती कि वह अपना स्वास्थ्य बिगाड़ रहा है।  शराब पर प्रतिबंध लगाना आसान है पर प्रश्न यह है कि क्या उसका राजकीय औचित्य कैसे प्रमाणित किया जायेगा-खासतौर से जब शराब से अधिक खतरनाक तंबाकू पाउच, अफीम तथा कोकीन अन्य खतरनाक मादकपदार्थ अवैध रूप से बिना राजकीय अनुमति के बिक रहे हैं और जिनका शिकार भारत का युवा वर्ग बुरी तरह से हो रहा है।  हालांकि साधारण तंबाकू चुने से मिलाकर खाना स्वास्थ्य के लिये ठीक नहीं है पर इनका सेवन पारंपरिक रूप से होता है और इससे इतने लोग कैंसर का शिकार नहीं होते जितना पैक पाउच से होते हैं। यह पैक पाउच सामान्य तंबाकू से कई गुना खतरनाक है पर जब प्रतिबंध की बात आती है तो परंपरागत तंबाकू सेवन पर भी लागू करने की बात की जाती है ।
बहरहाल हम किसी प्रतिबंध का विरोध या समर्थन नहीं कर रहे। हम तो यहां तक कहते हैं कि व्यसन मनुष्य को अकर्मण्य तथा कायर बनाते हैं। हमारा प्रश्न तो यह है कि राज्य प्रबंध को समाज के सुचारु संचालन तक अपनी भूमिका रखना चाहिये।  सुधार करने का जिम्मा समाज पर ही छोड़ना चाहिये। समय समय पर हमारे देश में समाज सुधारक अपना काम करते रहें हैं।
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Sunday, July 17, 2016

पति पत्नी के प्रसन्न रहने पर ही परिवार का सुखी होना संभव-मनुस्मृति के आधार पर चिंत्तन लेख (Wifr Hasband And Family-A Hindi Article based on Manu Smruti)

                        एक वर्ष पूर्व की रचभावनाओं के सौदागर अनेक स्वांग रचकर आम मनुष्य का हृदय विभिन्न रसों में बहलाकर अपनी हित साधते हैं क्योंकि वह जानते हैं मनुष्य का मन बुद्धु है। मनुष्य का मन अगर बुद्धू न होता तो भावनाओं के खिलाड़ी फिल्म, क्रिकेट, साहित्य, चित्रकारी तथा नाटक के खेलों में रस भरकर कमाई नहीं कर पाते। मनुष्य का मन जहां  बुद्धू हो जाता है वहीं से भावनाओं के व्यापारियों का ऐसा खेल प्रारंभ होता है जिसे सामान्य भाषा में मनोरंजन कहा जाता है।
मनुस्मृति न पढ़ना है मत पढ़ो। कार्ल मार्क्स की पूंजी किताब व लेनिन के भाषण पढ़कर कौन तीर मार लिये? मनुस्मृति पढ़ने से फिर भी धर्म व अधर्म की पहचान हो जाती है जबकि विदेशी विचार तो केवल स्वर्ग का मार्ग दिखाते हैं। कार्लमार्क्स के शिष्य शायद मनुस्मृति का विरोध इसलिये करते हैं क्योंकि अज्ञान फैलाकर स्वयं नायक बनना है। मनुस्मृति के विरोधी अंधेरे में प्रकाश के लिये राज्य की तरफ ताकते हैं जबकि मनुस्मृति स्वयं दिया जलाने की प्रेरणा देती हैं।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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संतुष्टोभार्वथा भर्त्ता भत्री भायी तथैव च।
यस्मिनैव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वैधुवम्।।
हिन्दी में भावार्थ-जिस परिवार में पति पत्नी एक दूसरे से प्रसन्न रहते हैं वह सदैव प्रसन्न तथा सुखी रहता है।
मनुस्मृति के विरोधी तो यह मानते हैं कि सभी पुरुष तो परमात्मा से हमेशा प्रसन्न रहने का वरदान लेकर पैदा हुए हैं जबकि महिलायें कष्ट पाने के लिये शापित हैं।  जबकि सच यह है कि हमारा अध्यात्मिक दर्शन मानता है कि स्त्री पुरुष अगर दोनों ही प्रसन्न रहेंगे तभी परिवार व समाज में शांति से रह सकता है। 

Saturday, June 25, 2016

स्वाध्याय तथा नाम स्मरण क्रिया योग है-पतंजलि योग साहित्य के आधार पर चिंत्तन लेख(A Hindu Article Based on PatanjaliYogaLiterature)


पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है कि
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तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः।
समाधि भावनार्थ क्लेशतनूकरणार्थश्च।
        हिन्दी में भावार्थ-तप, स्वाध्याय व ईश्वर की शरण लेना तीनों क्रिया योग हैं। इससे समाधि की सिद्धि होने पर क्लेश क्षीण हो जाते हैं।
        लेखकीय व्याख्या-‘योग साधना के व्यापक संदर्भ हैं। आसन, प्राणायम तथा ध्यान से जहां देह, मन व विचारों के विकार नष्ट होते हैं वहीं तप स्वध्याय तथा परमात्मा के स्मरण से ज्ञान के साथ ही जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण बनता है। मुख व मन में परमात्मा के नाम का स्मरण, ज्ञानार्जन के लिये ग्रंथों  अध्ययन तथा चिंत्तन करना भी क्रिया योग हैं जिससे मनुष्य के अध्यात्मिक तत्व का विकास होता है। कहने का अभिप्राय यह है कि हम अपने जीवन की हर क्रिया को योग दृष्टि से देखें तथा यह विचार करते रहें कि हमारे किस कर्म से कैसा परिणाम मिलेगा। इस तरह हम सदैव योगवृत्ति में स्थित रहते हुए जीवन का आनंद उठा सकते हैं।
        हमारे यहां गुरु शिष्य पंरपरा का इस तरह प्रचार किया जाता है जैसे कि कोई मनुष्य ही इस पद पर हो सकता है जबकि हमारे अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार कोई ग्रंथ, प्रतिमा अथवा पक्षी भी गुरु हो सकता है। याद कीजिये महर्षि बाल्मीकि को एक क्रोंच पक्षी की मृत्यु से ऐसी प्रेरणा मिली कि उन्होंने महान ग्रंथ रामायण की रचना कर डाली।  महाकवि तुलसीदास की पत्नी के वियोग से ऐसी प्रेरणा मिली कि उन्होंने रामचरित मानस जैसी अनुपम रचना भारतीय समाज को दी। अतः अगर योग्य दैहिक गुरु न मिले तो अध्यात्मिक ग्रंथों को ही अपना गुरु मानना चाहिये। कहा जाता है कि ‘करत करत अभ्यास मूरख भये सुजान’, अतः स्वाध्याय के साथ ही परमात्मा नाम का आसरा लेना चाहिये।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
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Sunday, May 29, 2016

वायुतत्व पर विजय से साधक तेजस्वी बनता है-पतंजलियोगदर्शन (Air Control in men Body nececesary by Yoga-Patanjali Yoga Darshan)

पतंजलि योग दर्शन में कहा गया है कि
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‘उदानजयाज्वलपङ्कण्टकादिष्वसङ्गउत्क्रान्तिश्च।’
हिन्दी में भावार्थ-‘उदानवायु को जीत लेने से जल, कीचड़ व कण्टकादि का शरीर से संपर्क नहीं रहता जिससे उसकी ऊर्ध्वगति भी होती है।’
व्याख्या-देह में वायु तत्व के पांच रूप है।
1. प्राणवायु जो नासिका से प्रविष्ट होता है।
2. अपानवायु जो नाभि से पांव तक विचरण करता है
3. समानवायु जो हृदय से नाभि तक रहता है।
4. व्यानवायु शरीर की समस्त नाड़ियों में विचरण करता है।
5. उदानवायु जो कंठ में रहता है। अंत समय में सूक्ष्म तत्व का इसी के सहारे बाहर गमन होता है।
  आजकल समाज में रोजरोग की प्रधानता है। इसका मुख्य कारण यह है कि मनुष्य ने श्रमसाधना से किनारा कर लिया है।  अनेक लोगों में गैस, अपच तथा उच्चरक्तचाप व मधुमेह जैसे रोगों से ग्रसित हैं।  यह सब रोग वायुतत्व के बाधित होने से होते हैं। योगसाधना के नियमित अभ्यास से वायुतत्व के समस्त तत्वों पर नियंत्रण हो जाता है। वायुतत्व पर नियंत्रण से मन का भटकाव भी समाप्त होता है।
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Saturday, May 7, 2016

स्वाध्याय से भी इष्ट की प्राप्ति संभव-पंतजलि योग दर्शन के आधार पर चिंत्तन लेख (A Hindi Article based on PatanjaliYogaDarshan)

            कहा जाता है कि ‘करत करत अभ्यास से मूरख भये सुजान।’ हमारे भारतीय अध्यात्मिक दर्शन में अनेक ग्रंथ हैं। इन ग्रंथों नियमित अध्ययन से ही हृदय में भक्ति तथा ज्ञानार्जन के प्रति रुचि पैदा होती है। श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा भी है कि श्रद्धा व भक्ति से उसका अध्ययन करने वाला केवल संसार में आनंद भोगता है वरन् पापों से भी मुक्त हो जाता है।
पतञ्जलि योग दर्शन में कहा गया है कि
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‘स्वाध्यायादिष्टदेवतासम्प्रयोगः।’
हिन्दी में भावार्थ-स्वाध्याय से इष्टदेवता की प्राप्ति हो जाती है ।’
व्याख्या-हमारे देश में गुरुशिष्य पंरपरा का बहुत प्रचार होता है। पेशेवर धार्मिक लोग गुरु बनकर अपने लिये अधिक से अधिक शिष्य संग्रह करना चाहते हैं। उनके राजसी कर्मों से अनेक धर्मभीरु लोग भ्रमित हो जाते हैं तब उन्हें लगता है इस संसार में योग्य गुरु मिलना कठिन है।  योग सूत्र के अनुसार स्वाध्याय से भी अपने इष्ट का स्मरण कर जीवन सार्थक किया जा सकता है।
श्रीमद्भागवत गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण ने स्पष्ट किया है कि उनके स्मरण मात्र से ही साधक योगपद पर प्रतिष्ठत हो सकता है। इतना ही नहीं उन्होंने गीता के अध्ययन से भी सीखने की प्रेरणा दी है। अतः योग्य या वांछित गुरु न मिले तो स्वध्याय से अपने अंतर्मन में शुद्धि लाने का प्रयास करना भी ठीक है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
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Saturday, April 30, 2016

दिल के सुराग लाश की खाक में ढूंढते हैं-हिन्दी क्षणिकायें (Dil ke Surag lash ki Khak Mein Dhoodhte hain-HindiShortpoem)

किसी की हमारे घर पर
नज़र लगी है
आओ मुट्ठी भींचे
डर से बचने का
यह भी एक उपाय है।
...............
वह कौन है
जो हमारा आशियाना हिला रहा है।
सतर्क रहना
अपना चेहरा छिपा रहा
मुखौटे के पीछे
जुबान स्वयं हिला रहा है।
--------------

भलाई का सौदागर
दोपहर में कर रहा
साथ निभाने की बात
रात्रि में करेगा पीठ पर घात
यकीन करो आदर्शवाद में
खंजर की सोच वह मिला रहा है।
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फटेहाल गरीबों के
बने चित्र
यूं ही नहीं महंगे
बिक जाते हैं।

क्योंकि अमीर के घर की
चमकदार दीवारों पर
मजबूती से टिक पाते हैं।
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शहर में सन्नाटा है
हैरानी है
यह अमन किसने बांटा है।

शायद सपनों की राख से
किसी ने
प्यार का पैगाम छांटा है।
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दिल के सुराग
लाश की राख में
ढूंढते हैं।

टूटे सपनों के टुकड़े
बिखरे ख्याल की खाक में
ढूंढते हैं।

जिंदा इंसान से बेरुखी
मुर्दे में वीरगाथा
ढूंढते हैं।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
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Thursday, April 14, 2016

कभी डरा भी देती यही जिंदगी-दीपकबापूवाणी (DeepakBapuWani)

स्वयं भटके वही पथप्रदर्शक बन जाते, मसखरी में ज्ञान देते गुरु तन जाते।
‘दीपकबापू’ गुरुकुल बनाये पंचसितारा, धवल चेहरा रखकर काला धन पाते।।
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कभी हसीन पल साथ लाती जिंदगी, कभी डरा भी देती यही जिंदगी।
धोखे भरोसे का सौदा रहेगा जारी, ‘दीपकबापू’ चलचित्र माने जिंदगी।।
----------------
दिल की बात जुबान पर नहीं लाते, धवल छवि काली नीयत में नहलाते।
‘दीपकबापू’ शब्द के सौदागर ठहरे, अनर्थ के अपने ही रंग से बहलाते।।
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बाह्य आक्रमण का भय रहता है, चोट दे अंदर वाला इतिहास कहता है।
‘दीपकबापू’ सामने खंजर झेल लेते, पीछे के साथी का वार कौन सहता है।।
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भजन आमंत्रण में चार लोग नहीं आते, व्यसन के मेले सभी को भाते।
‘दीपकबापू मन के खेल में ऐसे फंसे, बदन में स्वाद के लिये विष लाते।।
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माया के मद में अर्थहीन शब्द कहें, भ्रम में फंसे बुद्धिमान अहंकार में बहें।
‘दीपकबापू’ ऊंचे लोगों से बचे रहें, बोल अनुसना करें तो मौन भी न सहें।।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
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Thursday, March 24, 2016

बंदरिया बहुत भोली है-होली पर तीन कवितायें (Three ShortHindiPoem on Holi)

बंदरिया बहुत भोली है।
बंदर दिन में ही
वाइन पीकर
पराई बंदरियाओं पर
गरिया रहा है
वह समझती 
यही सचमुच की होली है।
-----------
कवि पी रहा
सुबह सुबह वाइन
घर में ही हिम्मत से
बोतल खोली है।

चेले ने कहा
‘गुरु हर पैग के साथ
लिखते भी जाओ
साल भर में एक ही बार
आती होली है।
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रंग भी नकली हुए
गंध हुई भ्रष्ट
स्पर्श से देह को सताते
बीमार बोली है।

आनंद में सराबोर
होने को तैयार मन
डरते हुए कहे
इससे तो बेहतर सूखी होली है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
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Saturday, March 12, 2016

जनवाद व परिवाद छात्रों की शिक्षा में बाधक-चाणक्य नीति के आधार पर चिंत्तन लेख (JanWad va Pratiwad destroyed Student Mind-A Hindi Thought Article based on Chankyapolicy)

                        हमारे देश में कार्ल मार्क्स के अनुयायी स्वयं को जनवादी कहते हैं। इनके संगठन छात्रों में अपने विचारों का प्रचार कर उन्हें समाज सेवक के रूप में तैयार करने का काम करते हैं। इनका मानना है कि छात्रों को चुनावी राजनीति की शिक्षा शैक्षणिक काल के दौरान ही दी जानी चाहिये। वैसे हमारे अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार हर मनुष्य में राजसी चतुराई स्वाभाविक रूप से होती है पर जनवादी मानते हैं कि वह भी पशु पक्षियों की तरह होता है जिसे आधुनिक ज्ञान देना जरूरी है।  छात्रों को ज्ञानी बनाने के क्रम में यह विमर्श नीति के  क्रियान्वयन में यह संवाद कार्यक्रम करते हैं-जिसमें वाद प्रतिवाद या कहें परिवाद  होता है। इसमें समाज के उच्च वर्ग व वर्णों के कथित रूप से एतिहासिक अत्याचारों का वर्णन कर कमजोर वर्ग के छात्रों को सशक्त बनने की प्रेरणा दी जाती है।
चाणक्य नीति में कहा गया है कि
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द्यूतं च जनवादं च परिवादं तथाऽनुतम्।
स्त्रीणां च प्रेक्षणालम्भावपघातं परस्व च।।
                        हिन्दी में भावार्थ-विद्यार्थी को जुआ, जनवाद (दूसरों से विवाद करने), परिवाद(दूसरे की निंदा व बुराई करने), झूठ बोलने, स्त्रियों से परिहास व किसी को भी हानि पहुंचाने को दोषों से दूर रहना चाहिये।
                        चाणक्य नीति के अनुसार तो जनवाद दूसरों से विवाद व परिवाद निंदा करना ही होता है।  इस तरह तो जनवाद व उनका परिवाद कार्यक्रम छात्रों की शिक्षा में व्यवधान उत्पन्न करता है। अब धीरे धीरे यह बात समझ में आने लगी है कि जनवादी भारतीय अध्यात्मिक दर्शन का विरोध करते हुए आक्रामक क्यों हो जाते हैं? दरअसल भारतीय अध्यात्मिक दर्शन में सहज जीवन बिताने की प्रेरणा दी जाती है जबकि विदेशी विचारधारा के प्रवाहक मनुष्य में सहजता का भाव पैदा कर उसकी बुद्धि अपने अधीन कर लेते हैं। वह छात्रों को अपना अनुयायी बनाकर उनके सामने आधुनिक विद्वान की छवि बनाते हैं।  विदेशी विचाराधारा के विद्वान भारतीय पूजा पद्धति कर जरूर विरोध करते हैं पर अपने सम्मान के कार्यक्रमों में पूज्यनीय बनकर प्रस्तुत होते हैं।
                        इसलिये हमारी राय है कि समस्त लोगों को हमारे प्राचीन ग्रंथों के साथ ही चाणक्य तथा विदुर नीति का अध्ययन अवश्य करना चाहिये।
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Monday, February 22, 2016

संत रविदास भारतीय अध्यात्मिक परंपरा के महान संवाहक-रैदास जयंती पर हिन्दी लेख(Special HindiArticle on BirthDay on sant Ravidas or Raidas)


भारतीय अध्यात्म दर्शन में श्रीमद्भागवत गीता के बाद भी अनेक संतों ने भी श्रीवृद्धि प्रदान की है-इनमें संत रविदास (रैदास) का नाम भी अत्यंत सम्मानीय है। कहा जाता है कि संतों की जात नहीं पूछी जाना चाहिये। हम जैसे लोग कभी संतों की जात जानना भी नहीं चाहते  पर हैरानी इस बात पर हो रही है कि अब संतों की जाति भी बताई जा रही है। एक बार इस लेखक ने अपने एक मित्र से रविदास पर चर्चा करते हुए उनपर किताब न होने की बात कही तो उसने तत्काल अपने घर रखी किताब देने का वादा किया।  उसने अगले दिन रविदास पर लिखी किताब प्रदान कर दी। यह उल्लेख करते हुए बुरा लग रहा है कि वह दलित वर्ग से था।  उस किताब में रविदास के दलित वर्ग में चेतना लाने के प्रयासों का उल्लेख था। लेखकगणों ने बड़े परिश्रम से उस पर रचनायें लिखीं जो कि साधुवाद के पात्र हैं। अलबत्ता एक बात लगी कि लेखकगण भी जातिवाद से मुक्त नहीं हो पाये। ऐसा लिखा गया कि लगे कि रविदास की भूमिका केवल दलित चेतना तक ही सीमित थी।  हम जैसे योग व अध्यात्मिक साधक के लिये यह स्वीकार करना कठिन है कि उन जैसे संत को किसी समाज तक सीमित रखा जाये।
संत रविदास कहते हैं कि

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धरम की कोइ जाति नाहि, न जाति धर्म के मांहि।
रैदास सो चले धर्म पर, करेंगे धर्म सहाय।।
                     हिन्दी में भावार्थ-धर्म की जाति नहीं है और न जाति धर्म मे है। धर्म पथ पर जो चलेगा उसकी धर्म ही सहायता करेगा।
भारतीय प्राचीन ग्रंथों में-वेद, उपनिषद रामायण व मनुस्मृत्ति-दोष देखने वाले अनेक बुद्धिमान लोग रविदास को भले ही दलित चेतना तक ही सीमित रखें पर हमारा मानना है कि उन जैसे संत भारत की उसी अध्यात्मिक परंपरा के संवाहक थे जो कि निरंतर अन्वेषण के साथ ही परिवर्तन की पोषक है।  भारतीय अध्यात्मिक परंपरा में रूढ़ता के साथ बना रहना स्वीकार्य नहीं है वरन् समय के साथ मनुष्य को अपना जीवन बिताने के संदेश भी वह देती है।  यही कारण है कि अंधविश्वास व अंधभक्ति के विरुद्ध यहां सतत अभियान ऐसे ही महान संत चलाते हैं। समाज भी उन्हें अपना ही मानता है। वेदों के बारे में तो कहा जाता है कि उनकी रचना का न आदि है न अंत-अर्थात समय के साथ अन्वेषण से प्राप्त कोई निष्कर्ष उन्हीं वेदों का हिस्सा है जिन्हें हम पूर्ण मानकर चलते हैं।
ऐसे ही महान संत रविदास को हमारा कोटि कोटि प्रणाम!
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Wednesday, January 27, 2016

ट्विटर पर शनि शिंगणापुर में मंदिर में नारी प्रवेश आंदोलन-गर्व से कहो हम लोकतांत्रिक भी हैं-ट्विटर पर वाक्यांश (subject of women Entry in ShaniShingnapur)


             शनि शिंगणापुर मंदिर में महिलाओं को प्रवेश मिलना चाहिये पर अगर वहां के पुजारी यह नहीं चाहते तो उसके विरुद्ध सार्वजनिक आंदोलन करना भी ठीक नहीं हैं। मूलतः हिन्दू अध्यात्मिक ज्ञान स्त्री पुरुष की किसी प्रकार की पूजा निषेध नहीं करता पर ज्ञानी का यह काम नहीं है कि वह दूसरे के कर्मकांडों पर प्रतिकूल टिप्पणी करे। वैसे शनिशिंगणापुर मंदिर में प्रवेश के लिये हो रहे महिला आंदोलन से हिन्दू धर्म की प्रतिष्ठा बढ़ ही रही है।  यह इस बात का प्रमाण है कि हमारे समुदाय में नारियों के लिये भी स्वाभाविक लोकतंत्र है। शनिशिंगणापुर  में नारी प्रवेश के लिये आंदोलन से हिन्दू को विचलित न हों। खुश हों कि हमारे समुदाय में दूसरों की अपेक्षा ज्यादा जागरुकता है। हिन्दू समुदाय में नारियां अपने धार्मिक भेदभाव के विरुद्ध आंदोलन भी कर सकती हैं। अन्य समुदायों से श्रेष्ठ होने का यह एक बड़ा प्रमाण है। अध्यात्मिक योग व ज्ञान साधक के रूप में हमारी राय है कि शनिशिंगणापुर में हेलीकाप्टर से प्रवेश का नाटक रोके नहीं। हमारी धार्मिक सहिष्णुता का प्रमाण होगा। हिन्दू धर्म अपने प्राचीन तत्वज्ञान के कारण इतना शक्तिशाली है कि वह मंदिर में प्रवेश करने या न करने के नाटकों से खतरे में नहीं आता।

हिन्दू समुदाय की महिलायें अपने दायरे में ही तो आंदोलन करेंगी उन्हें दूसरे समुदायों के अंधविश्वासों के विरुद्ध लड़ने के लिये कहना ठीक नहीं। हमें दूसरे समुदायों के अंधविश्वासों पर टिप्पणी करने की बजाय स्वयं अपने ज्ञान के प्रति विश्वास जगाना चाहिये। शनिशिंगणापुर में नारी प्रवेश के लिये आंदोलन करने वालों को दूसरे समुदायों के उदाहरण बताकर मौन रहने के लिये कहना गलत। दिलचस्प! शनिशिंगणपुर में  नयी व पुरानी विचाराधारा की हिन्दू समुदाय की महिलाओं के बीच वाक्युद्ध! गर्व से कहो हम लोकतांत्रिक भी हैं। शनिशिंगणापुर में नारी प्रवेश के आंदोलन को धर्म पर हमला नहीं वरन् अपने लोकतांत्रिक होने का प्रमाण समझकर गर्व करें। प्रगतिशील व जनवादी विद्वान शनिशिंगणापुर में नारी प्रवेश आंदोलन पर न फुदकें क्योंकि उनके प्रिय  धर्म के प्रमुख स्थान में तो महिलायें जाने की सोचती भी नहीं।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Saturday, January 2, 2016

पठानकोट हमले के बाद पाकिस्तान से सद्भाव की आशा नहीं (Pathatkot Attack proof Pakistan Terrorist country)


                           आज पठानकोट में पाकिस्तान  प्रायोजित आतंकवादी हमला होने का मतलब यह है कि  पाकिस्तान पर बाहर से नहीं वरन् अंदर घुसकर कूटनीतिक प्रयासों से उस नियंत्रण करना होगा। इसका आशय युद्ध करने से न लें। इस हमले के बाद निष्कर्ष यह समझ में आता है कि पाकिस्तान के अंदर कूटनीति से विभाजन कर उस पर नियंत्रण किया जाये। पाकिस्तान विभिन्न जातीय, भाषाई तथा सांस्कृतिक समूहों में बंटा है जिसे जबरन धर्म की छत के नीचे लाया गया है-कूटनीति से उसे काबू करना होगा। पाकिस्तान पर पंजाब प्रांत के प्रभावशाली लोगों का कब्जा है जिसे समाप्त किये बिना भारत में शांति संभव नहीं है।
                           पाकिस्तान की केंद्र सरकार का पूरे देश पर नियंत्रण न रहा है न आगे हो सकता क्योंकि उसकी सक्रियता केवल लाहौर को ही चमकाने तक ही सीमित रहती है। पाकिस्तान सरकार  में पंजाब में भी केवल लाहौर तक ही देखती है जबकि वहां मुल्तान व बहावलपुर जैसे एतिहासिक क्षेत्र हैं जिन पर सरकार ध्यान नहीं देती। वहां विकास की अपार संभावना हमेशा रही है पर पाकिस्तान में उसकी उपेक्षा की जाती है ताकि भारत भेजने के लिये आतंकी मिल सकें। किसी समय भारत के कराची, मुल्तान, सक्खर व पेशावर शान हुआ करते थे पर पाक बनने के बाद तबाह हो गये। आज वहां आतंक के कारखाने हैं। पाकिस्तान का अभिजात्य वर्ग वहां के लोगों की गरीबी का लाभ उठाकर उन्हें आतंकी बनाकर भारत भेजता है ताकि उसका अस्तित्व बना रहे। पाक के अभिजात्य वर्ग की गरीबों को आतंकी बनाकर भेजने की नीति तब तक चलती रहेगी जब तक कूटनीति से उस पर वैसा संकट नहीं लाया जायेगा जैसा वह दूसरों के लिये बना रहा है।
                           पाकिस्तान का चार भागों में विभाजन हो जाना ही भारतीय उपमहाद्वीप क्षेत्र में शांति बनाये रखने का एकमात्र उपाय है-पाकिस्तान का सिंध, ब्लूचिस्तान व सीमाप्रांत पंजाबी प्रभाव से बाहर होने की  रणनीति सफल होने पर ही   भारत विकास कर पायेगा। धार्मिक आधार पर बने पाकिस्तान का वैमनस्य भाव कभी खत्म नहीं होगा-यह तय समझें। पाकिस्तानी समाज में भारतीय समाज के प्रति सोहार्द भाव की आशा करना ही  रेत में घी ढूंढने  के समान है। ब्लूचिस्तान, सिंध और सीमाप्रांत के लोग पंजाबी प्रभाव वाले शासन व सेना से चिढ़ते हैं जिसका भारतीय कूटनीतिज्ञ लाभ उठाकर पाकिस्तान का विभाजन करा दें तो वास्तव में हमारा देश विश्वशक्ति कहलायेगा। पाकिस्तान का 4  भागों में विभाजन इस तरह करवाना चाहिये कि सभी भाग भारत पर  अपनी आवश्यकताओं के लिये इतने आश्रित रहें कि प्रतिकूल कोई कार्यवाही का सोच भी न सकें।
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Thursday, December 24, 2015

राजसी पुरुष का आवामगमन निर्बाध होना चाहिये-कौटिल्य का अर्थशास्त्र(rajsi Purushon ki Raksha-Kautilya ka Arthshastra)

                           हमारे यहां के प्रचारकर्मी आमतौर से राजसी पदों पर प्रतिष्ठित लोगों के वाहन निकलने पर सामान्य लोगों का आवागमन रोकने का विरोध करते हैं। यह उनका अज्ञान हैै।  कहा जाता है कि राज्यप्रमुख की रक्षा पहरेदारो को उसी तरह करना चाहिये कोई पुरुष स्त्री की करता है। राज्य प्रमुख के जीवन का भय प्रजा के लिये संकट होता है। इसलिये विशिष्ट पदधारी लोगों की रक्षा पर आपत्ति होना ही नहीं चाहिये। प्रचारकर्मियों को चाहिये कि वह राजसी पदवाले लोगों की नीतियों, कार्यक्रमों तथा प्रबंध तक ही अपनी बात रखें। हमारे देश के लोग भी राजसी पुरुषों के रहन सहन व चालचलन से अधिक उनके राज्य के प्रति कर्मो पर अधिक ध्यान देते हैं।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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निर्गमे च प्रवेशो च राजमार्ग समान्ततः।
प्रोत्सारितजनम् गच्छेत्सम्यगाविष्कृतोन्नति।।
           हिन्दी में भावार्थ-राज्य प्रमुख कहीं जाये तो राजमार्ग स्वच्छ कर सामान्य लोगों का आवागमन रोककर सम्मान से गमन करे।
                           अभी दिल्ली में निजी कारों के आवागमन पर समविषम सूत्र लागू करते हुए विशिष्ट राजसी पदों वाले लोगों को उससे मुक्ति दी गयी है।  यह ठीक है इसका विरोध नहीं होना चाहिये। हां, इतना जरूर कह सकते हैं कि राजसी पदों वालों की रक्षा जहां आवश्यक है वहीं यह भी आवश्यक है कि वह सामान्य प्रजा के लिये हितैषी होकर काम करते रहें। उनके यही काम चर्चा का विषय होना चाहिये। यह चिंता की बात है कि आधुनिक लोकतंत्र से राजसी पदों पर आने वाले लोग पुरानी राजसी प्रवृत्ति का शिकार हो रहे है।

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Saturday, December 12, 2015

जापान के प्रधानमंत्री की गंगा आरती पर लिखे गये ट्विटर (Twitter on Japani primminister visit's Kashi in Ganga Aarti)


                           जापान का हर नागरिक उस बौद्धधर्म में रमा है जिसका जन्म ही हिन्दू अध्यात्मिक दर्शन से हुआ है। अतः प्रधानमंत्री नरेंद्रमोदी का उसे भारत का निजी मित्र कहना अच्छा लगा। बौद्धधर्मियों का राष्ट्र जापान विश्व में सबसे धनी है तो उसके निवासी भी पराक्रमी है। उनके प्रधानमंत्री शिंजो आबे का भारत में स्वागत है। अगर चीन भी जापान व भारत के साथ धार्मिक आधार पर एकता स्थापित करे तो पश्चिम से निर्यातित आतंक रोका जा सकता है। काशी व क्योटो के बीच सेतु की तरह अध्यात्मिक दर्शन है। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्रमोदी तथा जापान के प्रधानमंत्री शिंजो अबे का बनारस में गंगा की आरती देखने का दृश्य अच्छा लगा। हमारा मानना है कि पश्चिम के देशों से विज्ञान के आधार पर मित्रता करने से अधिक पूर्व के देशों से अध्यात्मिक एकता कायम करना ही बेहतर है।
                           जापान के प्रधानमंत्री की काशीयात्रा से अब तो यह लग रहा है कि भारत को अपनी धार्मिक अध्यात्मिक पहचान के साथ ही विश्व में आगे बढ़ना चाहिये। विश्व के एक धनी देश जापान के प्रधानमंत्री का गंगा के तट पर जाकर आरती देखना इस बात का प्रमाण है कि भारत की पहचान उसके मूल दर्शन से भी है।
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Wednesday, November 11, 2015

अनुपम खेर के सहिष्णुता मार्च पर ट्विटर (Twitter on Subject march of Anupam Kher) MarchForIndia


            अनुपमखेर के नेतृत्व में देश की प्रतिष्ठा खराब करने वालों के प्रतिकूल  किये गये प्रदर्शन को सहिष्णुता मार्च कहना चाहिये। अनुपमखेर में नेतृत्व में निकलने वाले भारत के लिये मार्च पर सकारात्मक रुख अपनाते हुए उनकी प्रशंसा करना चाहिये। अब यह सवाल तो पूछा ही जायेगा कि एक अभिनेता को देश में असहिष्णु माहौल कैसे दिखेगा जबकि दूसरा उसे नकार रहा है। देश के असहिष्णु माहौल के प्रचार का उत्तर भारत के लिये मार्च से दिया जाना इस बात का प्रमाण है कि देश लोकतांत्रिक रूप से सहिष्णु व परिपक्व है। असहिष्णु वातावरण के प्रचार का भारत के लिये मार्च से जवाब! अनुपम खेरजी की बौद्धिक योजना का जवाब नहीं! इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत के लिये मार्च में एकत्रित भीड़ ने भारत की सहिष्णुता की मर्यादित सीमा भी बता दी है। समस्या यह है कि प्रगतिशील और जनवादी शैली की रचनाओं को राज्य प्रबंध से समर्थन नहीं मिलने वाला। यह कुछ रचनाकार सहन नहीं कर पा रहे।
                                   अनुपमखेर के नेतृत्व में बुद्धिजीवियों के  सहिष्णुता मार्च से भारत की अंतर्राष्ट्रीय पटल पर प्रतिष्ठा बढ़ती है तो अच्छी बात होगी। अनुपम मार्च से  एक बात तय हो गयी कि बौद्धिक दृष्टि से भी सुविधानुसार घटनाओं पर राय कायम की जा सकती है। आपकीबात अनुपम मार्च यह ट्विटर  दिखाई दिया।

भारत में सहिष्णुता के प्रश्न उठाकर कथित बुद्धिमानों ने प्रचार में नाम जरूर पाया पर उनकी छवि देशविरोधी बन रही है। अब तो यह सवाल दिमाग में आता है कि सहिष्णुता का मसला उठाने के पीछे असली वजह क्या है? पर्दे के पीछे का राज बाहर आना चाहिये। आप जोर से चिल्लायें तो यह अभिव्यक्ति का अधिकार है, पर लोग सुनने से इंकार कर दें तो मानना पड़ेगा कि समाज सहिष्णु है। आप चिल्लाकर बोलें यह अभिव्यक्ति का अधिकार है, उसे कोई न सुने यह यह समाज की असहिष्णुता का प्रमाण नहीं हो सकता। समाज में जागरुकता बढ़ी पर चेतना कम हुई है अब कोई कहे तो कहता रहे कि  असहिष्णुता बढ़ी है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
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Monday, November 2, 2015

दक्षिणपंथी और राष्ट्रवादी लेखकों को सम्मान देना आवश्यक(Rashtrawadi Dakishinpanthi Lekhkon ko Samman Dena Awashyak)


                                   इंटरनेट पर अनेक दक्षिणंपथी राष्ट्रवादी लेखक सक्रिय हैं, इस दीपावली पर सम्मानित कर जनमानस के हृदय पटल पर स्थापित किया जाये। हम जैसे अध्यात्मिकवादी लेखक मानते हैं कि इससे सम्मान वापसी कर रहे कथित बुद्धिजीवियों के प्रचार को चुनौती दी सजा सकती है।  इनमें से अनेक तो ऐसे हैं जिनके ब्लॉग है जिनमें किसी सामान्य पुस्तक से अधिक रचनायें हैं। यह लोग निष्काम भाव से काम करते हैं। सबसे बड़ी बात यह कि उन्हें अब वैसे ही प्रोत्साहन की आवश्यकता है जैसा कि उनके अनुसार ही जनवादियों और प्रगतिशीलों को मिलता है। इनमें से कुछ लोग सम्मान मिलने पर राष्ट्रीय प्रचार पटल पर आ जायेंगे तो उन्हें अपनी बात कहने के लिये व्यापक क्षेत्र मिलेगा। इससे परंपरागत प्रकाशन जगत का महत्व भी कम होगा और वहां लिख कर सम्मानित लोगों का महत्व भी अधिक नहीं रहेगा।
                                   हम अध्यात्मिकवादी लेखक है अंतप्रेरणा से लिख लेते हैं पर दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी लेखकों राजसी समर्थन की आवश्यकता प्रतीत हो।  प्रचार माध्यमों में जो सार्वजनिक  बहस होती है वह राजसी कर्म की श्रेणी के होते हैं।  हमारा मानना है कि राजसी कर्म राजसी बुद्धि और साधनों से संपन्न होते हैं। वहां सात्विक तत्व ढूंढना या रखते हुए दिखना स्वयं को धोखा देना है। राजसी कर्म में जस की तस नीति अपनाना ही श्रेयस्कर है। इन दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी लेखकों को अपना अभियान जारी रखने के लिये राजसी समर्थन की आवश्यकता है-यह हमारा विचार है। यहां यह भी स्पष्ट कर दें कि हमारा इसमें कोई निजी स्वार्थ नहीं है। न ही हमारा सम्मान पाने के लिये कोई ऐसा लिख रहे हैं।  हां, यह सही है कि दक्षिणपंथी  राष्ट्रवादी लेखकों से अपनी रचनाओं की वजह से करीबी रही है पर इसका मतलब यह नहीं है कि हमारा  उनमें स्वार्थ है।
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