अज्ञानी मनुष्यों के दूसरों के प्रति भेदभाव की
प्रवृत्ति स्वभाविक रूप से रहती है जबकि ज्ञानी लोग मनुष्य और मनुष्यों के बीच की
बात तो छोड़िये इस प्रकृत्ति के जीवों में ही भेद नहीं करते। हमारे अध्यात्मिक
दर्शन के अनुसार जीवन की 84 लाख
यौनियां होती हैं। अक्सर यह कहा भी जाता है कि जो जीव भगवान नाम का स्मरण करेगा वह
84 के चक्कर से बच जायेगा। भक्त
के सच्ची पहचान भी यही बताई गयी है कि वह किसी भी जीव को हेय न समझे। सभी को
सम्मान दे। यही कारण है कि भारत में वानर, सिंह, चूहे तथा सर्प को
भी जनमानस में भगवतस्वरूप स्थापित किया गया है। एक सामान्य भारतीय कभी भी पशु और
पक्षी तक को अपमान की दृष्टि से नहीं देखता।
यह अलग बात है कि पाश्चात्य शिक्षा के चलते हमारे देश में वहां प्रचलित
भेदभाव आ गया है। लोगों की सोच अब पूरी तरह से देसी न होकर पश्चिमी हो गयी है। इसी
कारण हमारे देश में भेदभाव बढ़ा है।
भारतीय अध्यात्मिक दर्शन में मूलतः जीव मात्र में ही
भेदभाव की प्रेरणा नहीं दी जाती। मध्यकाल के दौर में जब भारतीय समाज पर विदेशी
लोगों के हमले हुए और उस दौरान तत्कालीन समाज पर नियंत्रण के लिये उनके दलालों ने
यहां पर बौद्धिक प्रकृत्ति बदलने का प्रयास किया।
उस दौरान अनेक भारतीय चिंत्तकों ने समाज को बचाने के लिये कुछ ऐसे मार्ग
तलाश करने चाहे जो विदेशी तथा देसी सोच के साथ ही
लोगों के बीच भेद दिखाने वाले थे। उनके सिद्धांत अच्छे या बुरे थे यह अलग
से बहस का विषय है पर चिंत्तकों की नीयत पवित्र थी यह तय है।
समय के साथ भारतीय समाज परिवर्तनशील रहा है। वह केवल अपने दर्शन से तत्कालीन संदर्भों में
बेहतर संदेश ही स्वीकार करता है। उस पर रूढ़ता का आरोप नहीं लगाया जा सकता है।
विदेशी कू्रर लोगों के शासन तथा उनके बौद्धिक दलालों से संघर्ष के कारण भारतीय
अध्यात्मिक विचाराधारा का प्रवाह अवरुद्ध हुआ पर इसे रूढ़ता नहीं माना जा सकता।
बहरहाल हमारा यह मानना है कि मनुष्य ही नहीं वरन् जीव मात्र में ही भेद करना हमारे
अध्यात्मिक के सिद्धांतों के विपरीत है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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