पाश्चात्य संस्कृति तथा शिक्षा के प्रभाव में हमारे
यहां समाज सेवा करना एक फैशन बन गया है। जहां पहले लोग दान आदि जैसे काम धार्मिक
भावना से ओतप्रोत होकर स्वभाविक रूप से करते थे वहीं अब स्थिति यह है कि समाज सेवा
करने वाले एक हाथ से चंदा लेते हैं तो दूसरे हाथ से गरीबों और असहायों की मदद का
दावा करते हैं। एक तरह से पूर्णकालिक पेशेवर समाज सेवकों की जमात बन गयी है जिनका
दावा यह होता है कि वह निष्काम भाव से परमार्थ कर रहे हैं। इतना ही नहीं यह समाज सेवक अपनी छवि एक
देवपूरुष की बनाकर सम्मान भी प्राप्त करते हैं।
अपनी छवि के लिये चंदे के रूप में प्राप्त धन का उपयोग वह प्रचार माध्यमों
में बनाये रखने के लिये भी करते हैं। इतना
ही नहीं उनका कोई व्यवसाय नहीं होता इसलिये वह इसी चंदे से अपना घर भी चलाते हैं।
कविवर रहीम कहते हैं
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दिव्य दीनता के रसहि, का जाने जग अंधु
भली बिचारी दीनता, दीनबंधु से बंधु
हिंदी में भावार्थ-भगवान की भक्ति दीन भाव से करने पर जो रस और आनंद मिलता है उसे अहंकार में अंधे लोग नहीं समझ सकते। दीनता में जो सोंदर्य है उससे ही दीनबंधु आकर्षित होते हैं।
दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय
जो रहीम दीनहि लखै, दीनबंधु सम होय
हिंदी में भावार्थ-जो दीन है वह सबकी तरफ देखता है पर उसे कोई नहीं देखता। जो दीन की ओर देखकर उस पर दया करता है उसके लिये वह भगवान तुल्य हो जाता है।
पहले समाज की एक स्वचालित
व्यवस्था थी जिसमें धनी व्यक्ति के लिये दान का कर्तव्य निश्चित किया गया ताकि जिनके पास धन
नहीं है उन्हें प्राप्त होता रहे और समाज में समरसता का भाव बना रहे मगर अब लोग दान के नाम पर नाक भौं सिकोड़ते हैं या फिर
ढिंढोरा पीटकर देते हें जिससे उनको आर्थिक लाभ और सामाजिक प्रतिष्ठा मिले।
कुछ धनिक और उनकी संतानों के
लिये तो माया शक्ति प्रदर्शन का एक हथियार बन गयी है। जिनके पास धन है उनको समाज में दीन और दरिद्र की तकलीफों का ख्याल
नहीं होता और न ही इस बात का विचार होता है कि वह उनकी तरफ अपेक्षित भाव से देख रहे हैं। माया
उनको अंधा बना देती हैं और फिर इन्हीं दीनों में से कोई अपराधी बनकर उनकी इसी माया का
हरण तो कर ही लेता है और कहीं न कहीं तो शारीरिक हानि भी पहुंचा देता हैं।
एक बात धनिकों को याद रखना चाहिये कि दीन उनको
देखते हैं और उनके व्यवहार से ही उन पर अच्छा या बुरा प्रभाव पड़ता है। ऐसे में अगर
वह स्वयं ही उन पर दया करें तो उनके लिये भगवान बन जायेंगे क्योंकि दीन तो बिचारे सभी तरफ देखते हैं पर उनकी तरफ
अगर कोई देखे तो उनका मन प्रसन्न हो जाता है।
दान करने से आशय यह नहीं है कि कहीं भिखारियों को
खाना खिलाया जाये या किसी मंदिर में दान डाला जाये। यह अपने आसपास ही निर्धन और जरूरतमंद लोगों लोगों की सहायत कर भी
किया जा सकता है। किसी मजदूर से काम कराकर उसके मांगे गये मेहनताने से थोड़ा अधिक देकर या अपने घर
की अनावश्यक पड़ी वस्तु उनको देखकर भी उनका मन जीता जा सकता है। यह संदेश साफ है कि
अगर आप धनी है तो आप अपने आसपास के निर्धन लोगों पर कृपा करते रहें तभी आप भी अमन से रह पायेंगे वरन आपको स्वयं
ही अकेलापन और असुरक्षा का अनुभव होगा। मतलब यह कि आप दीनबंधु बने तभी आप दीनबंधु को पा सकते
हैं। दान देते समय भी अपने अंदर दीन भाव रखना चाहिये और भक्ति करते समय भी। तभी
परमानंद की प्राप्त हो सकती है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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