विश्व समाज में
अधिकतर लोगों की सहनशीलता कम ही होती है। इसका कारण मनुष्य में व्याप्त
अहंकार का भाव है जिससे वह कहीं अपने को कमतर रूप में नहीं देखना चाहता।
अनेक लोग कोई बड़ा लक्ष्य अपने हाथ में लेते हैं पर उसमें समय अधिक लगता
है। इस दौरान उन्हें अन्य लोगों के मुख से निकलने वाले व्यंग्य बाणों का
सामना करना पड़ता है। दूसरी बात यह कि लक्ष्य मिलने तक मनुष्य की उज्जवल
छवि नहीं बन पाती इस कारण लोग मजाक भी बनाते है। तब कुछ हल्की प्रवृत्ति
के लोग आत्मप्रवंचना कर अपना लक्ष्य, उसकी प्राप्ति के साधन तथा सहायकों के
नाम दूसरों को बताकर यह आशा करते हैं कि उनका काम पूरा होने तक सभी चुप
रहेंगे। वह इस बात का अनुमान नहीं कर पाते कि अपनी योजना जब दूसरों को बता
देंगे तो फिर कोई भी उनकी लक्ष्य प्राप्ति में संकट उत्पन्न कर सकता है।
होता यही है और अधिकतर लोग अपनी नाकामी झेलते हैं।
दूसरी बात यह कि कुछ लोग अपने लक्ष्य तो ऊंचे बनाते हैं पर साथ ही दूसरों
का धन, रूप, पराक्रम, सुख और कुल देखकर अपने अंदर ईर्ष्या का भाव पाल लेते
हैं। यह ईर्ष्या का भाव मनुष्य की पराक्रम क्षमता के साथ ही मस्तिष्क की
एकाग्रता को नष्ट करता है। जिससे मनुष्य अपने लक्ष्य के पास तक नहीं पहुंच
पाता है। ईर्ष्या और आत्मप्रवंचना दोनों तरह की स्थिति मनुष्य को पतन की
तरफ ढकेलती है।
विदुर नीति में कहा गया है कि
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य ईर्षुः परवित्तेषु रूपे वीर्य कुलान्वये।
सुखभौभाग्यसतकरि तस्य व्याधिरन्नतकः।।
हिन्दी में भावार्थ-जिस मनुष्य में दूसरे का धन, रूप, पराक्रम, सुख और कुल देखकर ईर्ष्या होती है उसका कोई इलाज नहीं हो सकता।----------------------
य ईर्षुः परवित्तेषु रूपे वीर्य कुलान्वये।
सुखभौभाग्यसतकरि तस्य व्याधिरन्नतकः।।
अकार्यकरणाद् भीतःकार्यालणां च विवर्जनात्।
अकाले मन्त्रभेदाच्च येन माद्येत ततफ पिवेत्।।
अकाले मन्त्रभेदाच्च येन माद्येत ततफ पिवेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-न करने योग्य काम करना, करने योग्य काम में
प्रमाद का प्रदर्शन और कार्य को सिद्ध करने से पहले ही उसका मंत्र दूसरों
का बताने से डरना चाहिए।
हम जब समाज की स्थिति को देखते हैं तो हास्यास्पद दृश्य सामने आता है। लोग अपने दुःख से कम दूसरे के सुख से अधिक दुःखी लगते हैं। अपने अंदर कोई गुण न होने की कुंठा उन्हें दूसरे की निंदा करने के लिये प्रेरित करती है। इसका मुख्य कारण यह है कि लोग अपने ही अध्यात्मिक ज्ञान से परे हैं। अशांत मन लेकर मस्तिष्क को सहज मार्ग पर चलाना कठिन है। असहज मार्ग पर चलते हुए मनुष्य के विचार नकारात्मक हो जाते हैं। ऐसे में धन, वैभव और प्रतिष्ठा के अधिक होने का सुख भोगना भी असहज हों जाता है। बड़े पद पर बड़ी जिम्मेदारी निभाना तो दूर छोटे पद की छोटी जिम्मेदारी निभाना भी मुश्किल लगता है। ईर्ष्या से प्रतिस्पर्घा और प्रतिस्पर्धा से वैमनस्य पैदा होता है। यही वैमनस्य हमारे समाज के बिखराव का कारण है। इसका समाधान यही है कि हम अपने अंदर भारतीय अध्यात्मिक दर्शन के सिद्धांतों को समझें।
हम जब समाज की स्थिति को देखते हैं तो हास्यास्पद दृश्य सामने आता है। लोग अपने दुःख से कम दूसरे के सुख से अधिक दुःखी लगते हैं। अपने अंदर कोई गुण न होने की कुंठा उन्हें दूसरे की निंदा करने के लिये प्रेरित करती है। इसका मुख्य कारण यह है कि लोग अपने ही अध्यात्मिक ज्ञान से परे हैं। अशांत मन लेकर मस्तिष्क को सहज मार्ग पर चलाना कठिन है। असहज मार्ग पर चलते हुए मनुष्य के विचार नकारात्मक हो जाते हैं। ऐसे में धन, वैभव और प्रतिष्ठा के अधिक होने का सुख भोगना भी असहज हों जाता है। बड़े पद पर बड़ी जिम्मेदारी निभाना तो दूर छोटे पद की छोटी जिम्मेदारी निभाना भी मुश्किल लगता है। ईर्ष्या से प्रतिस्पर्घा और प्रतिस्पर्धा से वैमनस्य पैदा होता है। यही वैमनस्य हमारे समाज के बिखराव का कारण है। इसका समाधान यही है कि हम अपने अंदर भारतीय अध्यात्मिक दर्शन के सिद्धांतों को समझें।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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