हमारी देह में स्थित इंद्रियों का अत्यंत महत्व हैं। इसमें कान, नाक, मुख, आंख तथा बुद्धि अत्यंत चंचल तथा विलासिताप्रिय होती हैं। उनमें उपभोग की प्रवृत्ति तो होती है पर रचनात्मक कार्यों के प्रति आलस्य का भाव रहता है। इसे समझना जरूरी है। हम लोग भले ही यह
सोचते हैं कि यह संसार ईश्वर के अनुसार चलता है पर सच यह है कि हमारे
संकल्पों के अनुसार ही हमारा जीवन क्रम निर्मित होता है। जैसे हमारा विचार
या संकल्प है वैसा ही हमारे सामने दृश्य घटित होता है। अगर दृश्य हमारे
प्रतिकूल है तो हम दूसरों को दोष देते हैं। कभी भाग्य तो कभी भगवान की
मर्जी बताकर आत्ममंथन से बचने का प्रयास करते हैं। कभी मित्र, कभी
रिश्तेदार तो कभी परिवार के सदस्यों पर दोषारोपण कर यह मानते हैं कि हम और
हमारा संकल्प तो हमेशा ही पवित्र रहता है। यह अज्ञान का प्रमाण है।
आत्ममंथन की प्रक्रिया से दूर अज्ञानी लोग इसी कारण ही अपने जीवन में भारी
कष्ट उठाते हैं।
अथर्ववेद में कहा गया है कि
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सुश्रतौ कर्णो भद्रश्रतौ कर्णो भद्र श्लोकं श्रुयासम्।
‘‘हमारे दोनो कान उत्तम विचार सुने। कल्याणकारी वचन तथा कल्याणकारी प्रशंसा सुनने को मिले।’’
बृहसपतिर्म आत्मा तृमणा यनाम हृद्यः।।
‘‘हमारी आत्मा ज्ञान युक्त हो और मनुष्य में मनन करने वाला हृदय पवित्र हो।’’
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सुश्रतौ कर्णो भद्रश्रतौ कर्णो भद्र श्लोकं श्रुयासम्।
‘‘हमारे दोनो कान उत्तम विचार सुने। कल्याणकारी वचन तथा कल्याणकारी प्रशंसा सुनने को मिले।’’
बृहसपतिर्म आत्मा तृमणा यनाम हृद्यः।।
‘‘हमारी आत्मा ज्ञान युक्त हो और मनुष्य में मनन करने वाला हृदय पवित्र हो।’’
जब हम परमात्मा का स्मरण करते हैं तो उससे सांसरिक विषयों में सफलता की ही
मांग करते हैं जबकि यह संसार कर्म और फल के सिद्धांत के आधार पर यंत्रवत
चलता है। आम बोयेंगे तो आम पैदा होगा और बबूल बोने पर कांटों का झाड़ हमारे
सामने खड़ा होगा। ज्ञानी लोग यह जानते हैं पर अज्ञानियों का झुंड इससे
बेखबर होकर सुख में प्रसन्न हेता है और दुःख में विलाप करता है। अपने मुख
से अच्छी वाणी बोलना चाहिए तो अपने कानों से ऐसी बातें सुनना चाहिए जो सुख
देने के साथ ही मन स्वच्छ करने वाली हो। अपनी आंखों से किसी के संताप का
दृश्य देखने की चाहत की बजाय प्रकृति और संसार के विषयों में विराजमान
सौंदर्य की तरफ अपनी दृष्टि रखना चाहिए। दूसरों की निंदा या दोष का अध्ययन
करने की बजाय सभी के गुण देखकर उसकी प्रशंसा करने से मन पवित्र होता है।
कहने का अभिप्राय यह है कि जैसी कल्पना और हमारा विचार होता है वैसी ही
हमारे सामने घटनायें होती हैं। इसलिये जहां तक हो सके अच्छा देखो, अच्छा
खाओ और अच्छा सोचो।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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