हमारे देश के अनेक अर्थशास्त्री हैं जिन्होंने आधुनिक शिक्षा पद्धति के आधार पर अध्ययन कर उपाधियां प्राप्त की हैं। हमारे देश में अर्थशास्त्र विषय के अंतर्गत अधिकतर पश्चिमी विद्वानों के सिद्धांतों का अध्ययन करते हैं जबकि हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों में केवल भक्ति ही नहीं वरन् अर्थशास्त्र के सिद्धांतों का भी प्रतिपादन किया गया है। इसमें राज्य व्यवस्था को किस तरह प्रजा के लिये संचालित करते हुए उससे कर वसूल किया जाय यह बताया गया है। हम देख रहे हैं कि पूरे विश्व में कर की वसूली और मुद्रा प्रचलन के जो नियम हैं वह अपूर्ण हैं और इसी कारण अनेक देश संकटों का सामना करते हैं तो अनेक जगह प्रजा त्रस्त और गरीब रहती है। राज्य कर्म के लिये पद पाने के मोह में लोग राजनीति के अर्थशास्त्र के नियमों का अध्ययन नहंी करते। इसके विपरीत हमारे प्राचीन विद्वान मनु, कौटिल्य तथा चाणक्य ने राजनीति और अर्थशास्त्र के सिद्धांतों की जो व्याख्या की है वह आज भी प्रासंगिक है।
हमारे महान मनीषी मनु की रचित मनुस्मृति में कहा गया है कि
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अष्टौमासान्यथादित्रूतोयं रश्मिभिः।
तथा हरेत्करंराष्ट्रान्नित्यर्कव्रतं हि तत्।।
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अष्टौमासान्यथादित्रूतोयं रश्मिभिः।
तथा हरेत्करंराष्ट्रान्नित्यर्कव्रतं हि तत्।।
‘‘राज्य प्रमुख को प्रजा से वैसे ही कर प्राप्त करना चाहिए जैसे सूर्य धरती से आठ माह तक अपनी किरणों के माध्यम से जल प्राप्त करता है।
प्रविश्य सर्वभूतानि यथा चरति मारुतः।
तथा हरेत्करंराष्ट्रान्नित्यमर्क हि तत्।।
तथा हरेत्करंराष्ट्रान्नित्यमर्क हि तत्।।
‘‘राज्य प्रमुख को अपने गुप्तचरों के माध्यम से प्रजा की मनोवृत्ति की जानकारी उसी प्रकार रखनी चाहिए जिस प्रकार हवा सभी जीवों में प्रविष्ट होकर घूमती रहती है।’’
प्रतापयुक्तस्तेजस्वी नित्यं स्वात्पापकमेंसु।
दुष्टसामन्तहिंस्त्रश्च तदाग्नेयं व्रतं स्मृतम्।।
दुष्टसामन्तहिंस्त्रश्च तदाग्नेयं व्रतं स्मृतम्।।
‘‘राज्य प्रमुख का आग्नेय व्रत यही है वह अपराधियों को दंड देने के लिये प्रतापयुक्त रहे तथा दुष्ट संपन्न लोगों के लिये हिंसक।’
पूरे विश्व में यह देखा जा रहा है कि धनपति तथा अपराधी अपनी शक्ति के बल पर राज्य व्यवस्था को आतंकित किये रहते हैं। इसका कारण है कि राज्य कर्म के लिये पद पाने वाले न तो राजनीतिक सिद्धांतों का जानते हैं और न ही अर्थशास्त्र के नियमों का उनको ज्ञान होता है। किसी भी राज्य प्रमुख का सिंहासन प्रजा की प्रसन्नता से ही स्थिर रहता है। राज्य कर्म राजस भाव वाले लोग करते हैं उनसे सात्विकता की आशा तो नहीं करना चाहिए पर उनको भी अच्छे काम करने पर ही प्रजा से सम्मान की इच्छा करना चाहिए। राजसवृत्ति के लोग फल की आशा में ही अपना काम करते है अतः उनके लिये अपने कर्म फल का भी विचार करना आवश्यक है इतना ही नहीं जनता पर कर लगाते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उसका आर्थिक आधार समाप्त न हो। राज्य व्यवस्था के लिये होने वाले व्यय में मितव्ययता का प्रदर्शन करे। एक बात याद रखना चाहिए कि राज्य धर्म का पालन करने वाले ही राज्य प्रमुख को जनता भगवत् स्वरूप मानती है अन्यथा उसकी दृष्टता से दुःखी होकर उसके अनिष्ट की कामना करती है। संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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