भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों के ज्ञान से सुसज्जित ज्ञान और सात्विक पुरुष राजनीति नहीं करते क्योंकि राजकर्म हमेशा राजस भाव के लोगों का शौक रहा है। हमारे देश में समाज की निज गतिविधियों पर भी राज्य का हस्तक्षेप हो गया है इससे राजनीति में रुचि रखने वाले लोगों की संख्या बहुत अधिक होती जा रही है। यह अलग बात है कि अब राजनीति एक व्यवसाय हो गयी है इसलिये अनेक युवक युवतियां इससे विमुख भी रहे हैं। हालांकि आधुनिक लोकतंत्र में आम लोगों की भागीदारी बढ़नी चाहिए थी पर हो उल्टा रहा है। लोग राजनीति में सक्रिय लोगों को संदेह से देखने लगे हैं। खर्चीली चुनाव पद्धति के कारण आम आदमी चुनाव लड़ने की सोच भी नहीं सकता। यही कारण है कि जिसके धन, पद और बाहुबल है वह समाज पर नियंत्रण करने के लिये राजनीति में सक्रिय हो जाता है। राजनीति केवल व्यक्तिगत हित साधना का साधन बन गयी है। बहुत कम लोग जानते हैं कि राजनीति के अर्थ और उद्देश्य अत्यंत व्यापक हैं।
मनु महाराज कहते हैं कि
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अध्यक्षान्विविधानकुर्यात्तत्र त़ विपश्चितः।
तैऽस्य सर्वाण्यवेक्षेरनृणां कार्याणि कृर्वाताम्।।
‘‘राज्य प्रमुख को जनता की भलाई से संबंधित कार्यों को करने वाले कर्मचारियों पर दृष्टि रखने के लिये विद्वानो को नियुक्त करना चाहिए। उनको यह आदेश देना चाहिए कि वह राज्य कर्मियों के कार्यों पर हमेशा दृष्टि रखें।’’
सांवत्सरिकमाप्तैश्च राष्ट्रादाहारववेद् बलिम्।
स्वयाच्याययम्नाय परो लोके वर्तत पितृवन्नृषु।।
‘‘राज्य प्रमुख को चाहिए कि वह करों की उगाही के लिये ऐसे कर्मचारियों को नियुक्त करे जिनकी ईमानदारी प्रमाणिक हो। राजा को अपनी प्रजा का पालन संतान की तरह करना चाहिए।’’
राजनीति से समाज हित किया जाता है न कि उस पर नियंत्रण कर अपना घर भरा जाता है। हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों में राजनीति की विशद व्याख्या है पर उसे शायद ही कोई समझना चाहता है। समझना भी क्यों चाहे क्योंकि भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथ जनता को अपनी संतान की तरह समझने की बात कहते हैं और स्थिति यह है कि व्यवसायिक राजनीतिज्ञ अपनी संतान को ही प्रजा समझते है। इसी कारण राजकर्मियों पर उनका नियंत्रण नहीं रहता और उनमें से कुछ लोग चाहे जैसा काम करते हैं। जनहित हो या न हो वह राजनीतिज्ञों को भ्रमित कर उनका तथा अपना घर भर भरते हैं। हालांकि अनेक राजनीतिज्ञ विशारद होते हैें पर कुछ लोग तो केवल पद पर इसलिये बैठते हैं कि उनका रुतवा समाज पर बना रहे। ऐसे राजनीतिज्ञों से जनता को कोई लाभ नहीं होता। वह ईमानदार राजकर्मियों का उपयोग न कर चालाक तथा भ्रष्ट कर्मचारियों को ऐसे पदों पर नियुक्त कर देते हैं जो जनहित करने के लिये सृजित किये जाते है। कार्यकुशलता तथा राजनीतिक ज्ञान का अभाव उनकी स्वयं की ईमानदारी भी संदेह उत्पन्न कर देता है। जिन लोगों को राजनीति में आना है या सक्रिय हैं उनको राजनीति के सिद्धांतों का अध्ययन अवश्य करना चाहिए।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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