भारतीय अध्यात्म में राजधर्म का बहुत ही व्यापक वर्णन है पर लगता है कि आधुनिक राजनीति विशारद उसकी इसलिये उपेक्षा करते हैं क्योंकि उनको लगता है कि आज के समय में सात्विक रूप से राज्य चलाना संभव नहीं है। उनकी यह सोच स्वभाविक भी है। दरअसल पहले राजतंत्र की प्रणाली थी जो कि पूरे विश्व में करीब करीब समाप्त हो चुकी है। अब या तो लोकतंत्र है या ताना शाही। राजकर्म से जुड़ने वाले लोगों से सात्विक होने की अपेक्षा करना अब संभव नहीं है। यही कारण है कि भारत में अपनी स्वदेशी सोच की बजाय विदेशी विचारधाराओं को अपनाया गया है। पहले कहा जाता था कि यथा राजा तथा प्रजा अब यह कहा जा सकता है कि यथा प्रजा तथा राजा।
हमारे समाज में न्यायिक सिद्धांतों पर उल्लंघन की प्रवृत्ति बढ़ी है। छोटा हो या बड़ा आदमी धन, बल, और उच्च पद पाने के लिये हमेशा इसलिये संघर्षरत रहता है ताकि वह समाज पर अपना प्रभाव जमा सके। अपने प्रभाव से किसी का भला करें यह भाव तो केवल विरले ही लोगों में दिखाई देता है।
हमारे समाज में न्यायिक सिद्धांतों पर उल्लंघन की प्रवृत्ति बढ़ी है। छोटा हो या बड़ा आदमी धन, बल, और उच्च पद पाने के लिये हमेशा इसलिये संघर्षरत रहता है ताकि वह समाज पर अपना प्रभाव जमा सके। अपने प्रभाव से किसी का भला करें यह भाव तो केवल विरले ही लोगों में दिखाई देता है।
योऽरक्षन्बलिमादत्ते करं शुल्कं च पार्थिवः।
प्रतिभागं च दण्डं च से सद्यो नरकं व्रजेत्।।
‘‘यदि राजा प्रजा की रक्षा नहीं करता, लेकिन बलि, कर व शुल्क के रूप में प्रजा से आय का छठा हिस्सा प्राप्त करत है तो वह राजा दंड पाने का भागी है तथा उसे शीघ्र ही नरक प्राप्त होता है।
यदधीते यद्यजते यद्ददाति यदचैति।
तस्य षड्भागभाग्राजा सम्यग्भवति रक्षणात्।।
‘‘जो राजा प्रजा को निडर बनाता है उसे अपनी प्रजा के उन लोगों के समग्र पुण्य फल का छठा भाग प्राप्त होता है जो वेदाध्ययन और यज्ञ करने के साथ ही दान दक्षिणा देते हैं।
ऐसी स्थिति में राजकर्म से परे लोग यह अपेक्षा करते हैं कि राज्य व्यवस्थायें सात्विक हों तो निरर्थक है। जब सात्विकता का प्रभाव समाज में ही नहीं है तो वहां से निकले आधुनिक राजाओं से अपेक्षा करना व्यर्थ नहीं तो और क्या है? एक तो भारतीय अध्यात्म दर्शन में वैसे ही राजधर्म का निर्वाह अत्यंत कठोर बताया गया है उस स्थिति यह है कि आज का समाज अपने प्राचीन ग्रंथों से दूर हो गया है। जिन वेदों में जीवन का सार है उनको कलंक बताया जाता है। जो श्रीमद्भागवत गीता जीवन रहस्य उजागर करते हुए मनुष्य को सत्कर्म में लिप्त रहने का उपदेश देती है उसे सन्यासियों के लिये उपयुक्त बताकर उपेक्षित कर दिया गया है। ऐसे में राजकर्म में श्रेष्ठ आचरण की आशा करना अजीब लगता है। संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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