भक्ति से मन का भटकाव दूर होता है यह पहला सच है। दूसरा सच यह है कि
अनियंत्रित मन हमेशा ही भटकता है। वह एक विषय से ऊबता है तो दूसरे की तरफ भागता
है। फिर दूसरे से तीसरा और तीसरे से चौथा विषय उसे अपनी तरफ खींचता है। ऐसे में
कोई सर्वशक्तिमान की भक्ति की राय देता है तो भटकता मन वहां भी उसी तरह जाता है
जैसे कि वह एक नया सांसरिक विषय है। ऐसी क्षणिक भक्ति से मन को तात्कालिक रूप से
आंनद मिलता है। लगभग वैसा नष्टप्राय होता
है जैसे एक विषय से दूसरे विषय की तरफ जाने पर मिलता है।
नवीन विषय, नई अनुभूति, नया रोमांच फिर वही उकताहट! मानव इंद्रियां बाहर सहजता से सक्रिय रहती
हैं। इसलिये ही साकार भक्ति सहज लगती
है। मन के लिये बाहर इष्ट का कोई रूप
चाहिये यह बेबसी सकाम भक्तों के लिये सदैव रहती है।
निरंकार भक्ति सहज बनाती है पर सहजता से नहीं होती। इंद्रियां देह के
पिंजरे के बाहर ही झांकना चाहती हैं। अंदर की अस्वच्छता उन्हें बाहर के विषयों में
देखने, सुनने, कहने, सूंघने और के लिये विवश करती हैं।
जहां उन्हें मौन रहना चाहिये वहां चीखती हैं और जहां बोलना चाहिये वहां डर
कर मौन हो जाती हैं।
इसका उपाय यही है कि योग साधना कर अपनी देह, मन और विचारों को नई स्फूर्ति प्रदान की
जाये। योग साधना के दौरान आसनों से देह, प्राणायाम से मन और
ध्यान से विचार शक्ति प्रखर होती है।
एक योग साधक की अपने ही एक पुराने धार्मिक गुरु से मुलाकात हुई।
गुरु ने कहा-‘‘क्या बात है? आजकल तुमने हमारे आश्रम पर आना ही बंद कर दिया है। लगता है तुम्हें हमारी
जरूरत नहीं है?
उस योग साधक ने जवाब दिया-‘तृप्त मन लेकर आपके पास कैसे आंऊ? आपकी कृपा से अब मन तृप्त रहने लगा है।’’
गुरु ने कहा-‘बताओ तो सही हमारी कृपा से तुम्हारा मन तृप्त कैसे रहने लगा है?’’
योग साधक ने कहा-‘अब मैं योग साधना में जो समय प्रातःकाल गुजारता हूं उससे मेरा मन पूरी तरह
से तृप्त हो जाता है। अक्सर में इधर उधर जाने की सोचता हूं पर जब मन की तरफ देखता
हूं तो उसे मौन पाता हूं।’’
गुरु जी ने कहा-‘‘योग साधना की सलाह तो मैंने कभी नहीं दी थी। मैं तो भक्ति की बात करता हूं।’’
योग साधक ने जवाब दिया-‘‘आपने सलाह नहीं दी, पर आपके पास आते आते कहीं से यह प्रेरणा आ ही गयी। फिर संगत भी मिली। जहां तक भक्ति का प्रश्न है वह तो मंत्र जाप से
हो ही जाती है। मुख्य बात यह कि अब अतृप्त मन नहीं जो अपनी अध्यात्मिक प्यास
बुझाने इधर उधर जांऊ।
आत्मा
मनुष्य का स्वामिनी हैं पर मन उसका प्रबंधक है। जिस तरह किसी उद्यम का स्वामी अपने
प्रबंधकों की सहायता से चलता है वैसे ही यह देह भी है। यह मन प्रबंधक अगर योग्य है तो देह का स्वामी
ज्ञान से संपन्न होता है और अकुशल हो तो भटका देता है। अकुशल मन प्रबंधक देह का समय और शक्ति इधर उधर
विनिवेश कराता है पर कहीं से लाभ प्राप्त नहीं करता। इसलिये मन को कुशल प्रबंधक का प्रशिक्षण देना चाहिये जो कि
योग साधना से ही संभव है। त कवि रैदास ने कहा भी है कि ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’। इसका तात्पर्य यही है कि अगर मन में शांति और ंसतोष तो फिर भटकाव नहीं होता।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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