हमारा योग दर्शन अत्यंत पुराना है और उसका मूल
स्वरूप आत्म नियंत्रण के लिये आंतरिक
क्रियाओं से जुड़ा है। उसमें आसनों साथ व्यायाम जुड़ा नहंी दिखता। हालांकि वर्तमान
काल में जब लोगों का जीवन अत्यंधिक श्रमवान नहीं है तब इन व्यायामों की आवश्यकता
है और नये योग शिक्षकों नेे इस विषय के
साथ सूर्यनमस्कार, वज्रासन
और पद्मासन जैसी प्रभावशील क्रियाओं को जोड़ा है तो अच्छा ही किया है। चूंकि देह की सक्रियता इन आसनों से दिखती है तो
करने और देखने वाले को अच्छी लगती है। यही
कारण है कि प्राचीन योग के साथ नया स्वरूप उसे लोकप्रिय बना रहा है। यह अलग बात है
कि लोग बाह्य रूप पर अधिक ध्यान दे रहे हैं पर उसके आंतरिक प्रभाव का ज्ञान उन्हें
नहीं है। दरअसल योग का मूल आशय सांसरिक विषयों से परे होकर साधना करने से है।
अभ्यास से ऐसी स्थिति हो जाती है कि आदमी संसार के विषयों में कार्यरत दिखता है पर
उसमें आसक्ति नहीं रह जाती। यह कर्मयोगी का श्रेष्ठ रूप होता है।
पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है कि
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बाह्याभ्यन्तरविषयाक्षेपी चतुर्थः।
ततः क्षीयते प्रकाशवरणाम्।।
धारणासु च योग्यता मनसः।।
स्वविषयास्प्रयोग चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां
प्रत्याहारः।
हिन्दी में भावार्थ-बाहर और भीतर के विषयों के चिन्त्तन का त्याग कर देना
अपने आप में चौथा प्राणायाम है। उससे सांसरिक प्रकाश का आवरण क्षीण हो जाता है।
ज्ञान की धारणा से मन योग्य हो जाता है। अपने विषयों से रहित हो जाने पर इंद्रियों
का चित्त से जो संपर्क होता है वही प्रत्याहार है।
हमने देखा है कि अनेक लोग प्रचार माध्यमों में
योग के बारे में पढ़ और सुनकर समूह बनाकर
साधना करते हैं। इस दौरान वह सांसरिक विषयों पर बातचीत करते हैं। कहीं पार्क में बैठ गये और हाथ पैर हिलाने
लगे। दावा यह कि योग कर रहे हैं। वैसे
प्रातः घर से बाहर निकलना ही अपने आप में एक अच्छी किया है जिसका लाभ अवश्य होता
है पर इस दौरान वार्तालाप में अपनी ऊर्जा नष्ट करना ठीक नहीं है। उससे ज्यादा
महत्वपूर्ण बात यह कि जिन सांसरिक विषयों से बाद में जुड़ना उनका स्मरण करना
प्रातःकाल सैर करने पर मिलने वाले मानसिक लाभ से वंचित करता है। अनेक लोग समूह में बैठकर हाथ पैर हिलाकर योग कर
का दावा अवश्य करें पर उनको यह मालुम नहीं है कि वह स्वयं को ही धोखा दे रहे हैं।
भारतीय योग संस्थान योग साधना का अभ्यास कराने
के लिये निशुल्क शिविर चलाता है। उसके शिविर में योग का जो अभ्यास कराया जाता है
पर अभी तक विधियों में अत्यंत श्रेष्ठ है। श्रीमद्भागवत में त्रिस्तरीय आसन की
चर्चा होती है। पहले कुश फिर उस पर मृगचर्म और फिर वस्त्र बिछाकर सुख से बैठना ही
आसन बताया गया है। भारतीय योग संस्थान के
शिविरों उसकी जगह प्लस्टिक की चादर,
दरी और फिर कपड़े की चादर को आसन बनाकर
योगाभ्यास कराया जाता है। इस तरह के अभ्यास से देह, मन और विचारों में शुद्धि आती है।
इस तरह के अभ्यास के बाद श्रीमद्भागवत गीता के
एक दो श्लोक का अध्ययन अवश्य करना चाहिये।
उससे यह बात समझ में आ जायेगी के वास्तव में विषयों का त्यागकर अभ्यास करना
ही योग है। अगर आसन तथा प्राणायाम के समय भी विषयों के प्रति आसक्ति बनी रहे तो
समझ लेना चाहिये कि हमें अधिक आंतरिक अभ्यास की जरूरत है।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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