आधुनिक शिक्षा जगत में पश्चिम की विचारधारा के पोषक तत्वों का बोलबाला है। आजकल के माता पिता यह अपेक्षा करते हैं कि उनके बच्चे स्कूल से संपूर्ण व्यक्तित्व के स्वामी बनकर बाहर आयें। स्वयं कोई अपने बच्चों में न संस्कार डालना चाहता है न उनमें इतनी शक्ति है कि वह स्वयं ही भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन कर स्वयं ज्ञान अर्जित करने के साथ ही अपने परिवार को सुसंस्कृत बना सकें। सभी अर्थोपर्जान में यह सोचकर लगे हैं कि उससे ही बुद्धि, संस्कार और ज्ञान स्वतः आ जाता है। न भी आये तो समाज तो वैसे ही धनिकों को सम्मान मिलता है। इसके अलावा पालकगण बच्चों को बड़े और महंगे स्कूल भेजकर अपनी जिम्मेदारी से स्वयं को मुक्त समझते हैं। उधर स्कूलों के प्रबंधक भी अपनी छवि बनाये रखने के लिये कभी पिकनिक तो कभी पर्यटन के कार्यक्रम आयोजित कर जहां यह साबित करते है कि वह अपने यहां पढ़ रहे छात्र छात्राओं को शैक्षणिकेत्तर गतिविधियों में संलिप्त कर उनको पूर्ण व्यक्त्तिव का स्वामी बना रहे है वहीं उनको अतिरिक्त आय भी अर्जित करते हैं। शिक्षा के व्यवसायीकरण ने उसे भारतीय अध्यात्म ज्ञान से परे कर दिया है।
चाणक्य नीति में कहा गया है कि
गृहाऽऽसक्त्तस्य नो विद्या नो दया मांसभोजिनः।
द्रव्यलुब्धस्य नो सत्यं स्त्रेणस्य न पवित्रता।।
‘‘घर में आसक्ति रखने वाले को कभी विद्या नहीं मिलती। मांस का सेवन करने वाले में कभी दया नहीं होती। धन के लोभी में सत्य का भाव नहीं आता और दुराचार, व्याभिचार तथा भोगविलास में लिप्त मनुष्य में शुद्धता नहीं होती।’’
कामं क्रोधं तथा लोभं स्वादं श्रृ्ङ्गारकौतुके।
अतिनिद्राऽतिसेवे च विद्यार्थी ह्याष्ट वर्जयेत्।।
‘‘कामुकता, क्रोध और लालसा, बिना परिश्रम के चीजों के मिलने की आशा, स्वादिष्ट भोजन के खाने की इच्छा, सजना संवरना, खेल तमाशे, तथा मन बहलाने के लिये खेलना, बहुत सोना तथा किसी दूसरे की अत्यधिक सेवा या चाटुकारिता करना इन आठ विषयों से छात्रों को बचना चाहिये।
विद्यालयों में अतिरिक्त गतिविधियों तो भी हों तो भी ठीक है मगर अब तो स्कूल या कॉलिज के नाम पर छात्र छात्रायें अपनी मैत्री को भी एक आनंद के रूप में फलीभूत होते देखना चाहते है। इसी कारण अनेक ऐसी अप्रिय वारदातों सामने आती है जिनसे अतंतः पालकों अपमानित होना ही पड़ता है। महाविद्यालयों में अनेक छात्र छात्रायें मैत्री और प्यार के नाम पर ऐसे संबंध बनाते हैं जो उनके लिये ऐसे संकट का कारण बनता है जिससे उनका पूरा जीवन ही तबाह हुआ लगता है।
दरअसल शैक्षणिक जीवन केवल अध्ययन के लिये है। विद्यालयों और महाविद्यालयों में जीवन के अनुभव सीखने या सिखाने की अपेक्षा करना माता पिता का अपनी जिम्मेदारी से भागना है तो शिक्षकों के लिये एक अतिरिक्त बोझ हो जाता है। जहां तक खेलों का प्रश्न है तो उनको घरेलू विषय मानना चाहिए। जिससे बच्चे अपने आसपास के बच्चों के साथ खेलते हुए सीख सकते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि छात्र जीवन में ऐसे विषयों से दूर रहना चाहिए जो उसमें बाधा डालते हैं।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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