हम यह कहते हैं कि आज समय खराब आ गया है पर जब प्राचीन कवियों और संतों की रचनाओं का अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि हमारे समाज में पाखंडी और ढोंगियों की कभी वर्तमान में क्या प्राचीन काल में भी कमी नहीं रही। इसका कारण यह है कि हमारे अध्यात्मिक ज्ञान और दर्शन में गजब का प्रभाव है। उसमें सकाम तथा निष्काम भक्ति को समान मान्यता दी गयी है। साकार तथा निराकार भक्ति के आपसी विरोध की बजाय सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया गया है। हालांकि निराकार परमात्मा के साथ ही निष्काम भक्ति को श्रेष्ठ माना गया है पर सकाम तथा साकार भक्ति का प्रचार अधिक होता है। कथित गुरु हमारे अवतारों की कहानियों के आड़ में मनोरंजन करते हैं। अनेक सत्संग तो फिल्मी ढंग से मनोरंजन, दुःख, खुशी तथा नृत्य के साथ गीत संगीत के शोरशराबे के साथ मिश्रित रस बिखेरने वाले होते हैं। अनेक लोग तो प्रमाद भी करते हुए हास्य का भाव भी भरना उसी तरह नही भूलते जैसे कि फिल्म में एक मजाकिया पात्र रखा जाता है। उस समय यह बात ध्यान में नहीं रखी जाती है कि अध्यात्मिक चर्चा अत्यंत शांति से हृदय में एकाग्रता के भाव से लाभदायक होती है। सत्संगों में संगीत और गीत के माध्यम से भक्तों को बहलाया जाता है। हम व्यवसायिक संतों को ढोंगी या पाखंडी न भी माने पर इतना तय है कि उनका लक्ष्य भारतीय अध्यात्म दर्शन की आड़ में आत्मप्रचार करना ही होता है। अधिकतर धार्मिक स्थानों पर गीत संगीत बजता है जबकि भक्ति या साधना के लिये शांत वातावरण होना आवश्यक है।
निर्गुण भक्ति के उपासक कवि दादू दयाल कहते हैं कि
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झूठे अंधे गुर घणें, भरम दिढावै।
‘दादू’ साचा गुर मिलैं, जीव ब्रह्म ह्वै जाइ।।
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झूठे अंधे गुर घणें, भरम दिढावै।
‘दादू’ साचा गुर मिलैं, जीव ब्रह्म ह्वै जाइ।।
‘‘अंधे गुरुओं की संख्या बहुत ज्यादा होती है जो लोगों को भ्रम में डालते हैं। इस संसार में अगर सच्चा गुरु मिल जाये तो समझ लो साक्षात् ईश्वर के दर्शन हो गये।’’
‘दादू’ वैद बिचारा क्या करै, जै रोगी रहैं न साच।
मीठा खारा चरपरा, मांगै मेरा वाछ।।
मीठा खारा चरपरा, मांगै मेरा वाछ।।
‘‘वेद शास्त्रों का ज्ञान क्या कर सकता है जब उसका अध्ययन करने वाले में धारणा शक्ति का अभाव है। उस रोगी का क्या इलाज हो सकता है जो सावधानी नहीं बरतता। अगर रोगी मीठा, खारा, चटपटा खाना चाहता है तो कोई औषधि उस पर प्रभाव नहीं डाल सकती।
व्यवसायिक संतों के प्रवचनों का प्रभाव भी क्षणिक रहता है। लोग तीर्थ स्थानों या गुरुओं के आश्रमों पर पर्यटन करने की दृष्टि से जाते हैं। उनका लक्ष्य भक्ति से अधिक मन बहलाना होता है। स्थान परिवर्तन से मन को ताजगी का यह भाव कहीं भी भक्ति का प्रतीक नहीं है। ऐसे में अगर कुछ सत्य मार्ग का संदेश तो उसका प्रभाव नहीं रहता। यही कारण है कि हम विश्व में जैसे जैसे संचार के क्षेत्र में आधुनिक साधनों का उपयोग होते देख रहे हैं वैसे वैसे भारतीय अध्यात्मिक की चर्चा अधिक हो रही है। कभी कभी तो यह लगता है कि जैसे पूरा देश ही धर्मवादी हो रहा है पर यह सच नहीं है। लोगों की भीड़ धार्मिक चर्चाओं में व्यस्त दिखती है पर उनमें उस अध्यात्मिक ज्ञान का अभाव है जो जीवन को सहज बनाता है।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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