Friday, July 22, 2011

भर्तृहरि नीति शतक से संदेश-संतों जैसे काम भी किये पर फल वैसा नहीं मिला

                      भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
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                क्षान्तं न क्षमया गृहोचितसुखं त्यक्तं न संतोषतः,
                सोढो दुस्सहश्याीततापपवनक्लेशो न तप्तं तपः।
             ध्यातं वित्तमहर्निशं नियमितप्राणैर्न शंभोः पदं
            तत्तत्कर्म कृतं यदेव मुनिभिस्तैस्तैः फलैर्वञ्चिताः।।
        ‘‘हमने क्षमा दान किया, किन्तु धर्म के अनुसार नहीं, हमने सुखों का त्याग किया पर संतोषी होकर नहीं, कष्ट तो सहे पर तप के लिये नहीं, ध्यान तो किया परंतु परमात्मा के स्मरण में नहीं। काम तो सभी संतों जैसे किये पर फल वैसे नहीं मिले।
        वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य के मन में अहंकार रहता है इसलिये वह कभी आत्मंथन नहीं करता। लोग एक दूसरे से झगड़ा करते हैं। एक दूसरे पर अभद्र टिप्पणियां करते हैं फिर अपनी कही बात भूल जाते हैं। दूसरे ने गलत बात कही तो अनेक लोग उसे भी हमेशा याद नहीं रखते हैं। एक तरह से यह क्षमा करना है पर चूंकि धर्म का आभास नहीं है इसलिये कान से सुनी गयी कटु बात का प्रभाव मन में रहता है जबकि क्षमा कर देने से विष खत्म हो जाता है। किसी को क्षमा करना है तो मन से करें। मन में दोहरायें कि मैंने उसे क्षमा किया। इस तरह हमारे प्रति किसी का अपराध उसे शांति प्रदान करता है तो हम भी चैन पाते हैं। वरना अपने साथ किया गया दूर्व्यवहार भले ही भूल जायें पर क्षमा न करने से उसका प्रभाव कभी न कभी परिलक्षित होता है।
         पंच तत्वों से बनी इस देह के हाथों से अनेक शुभ काम भी हो जाते हैं पर उनका लाभ मनुष्य मन को नहीं मिलता। यह संभव नहीं है कि कोई व्यक्ति हमेशा बुरा हो। क्रूर से क्रूर व्यक्ति भी कभी न कभी पसीज कर दूसरे का भला करता है मगर धर्म का ज्ञान न होने से वह सुखानुभूति नहीं कर पाता। हमारे यहां ध्यान की महिमा कही जाती है। कहा जाता है कि ध्यान परमात्मा में लगाया जाये तो लाभ होता है। मनोविज्ञानिक भी मानते हैं कि दिनचर्या से प्रथक होकर कहंी ध्यान लगाने से मनुष्य दृढ़ प्रवृत्ति का बनता है। इसी कारण श्रीमद्भागवत गीता में निष्काम कर्म का संदेश दिया गया है। देखा जाये तो ध्यान सभी व्यक्ति लगाते हैं पर कोई कोई परमात्मा में लगाकर बुरी प्रवृत्तियों से मुक्त होते हैं पर अधिकतर तो सांसरिक विषयों में ध्यान लगाकर जीवन नष्ट करते हैं।
       कहने का अभिप्राय यह है कि अध्यात्म ज्ञान के अभाव में जो सुख की वास्तविक अनुभूति नहीं की जा सकती। इस देह से अच्छे और बुरे दोनों ही काम होते हैं। दुःख और सुख भी आते हैं। तत्वज्ञान होने पर आदमी कभी तनाव नहीं पालता। सहज भाव से जीवन जीना एक कला है और वह भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान होने पर ही संभव है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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