राजनीति एक बहुत महत्वपूर्ण विषय है। आधुनिक राजनीतिक शास्त्रों का तो पता नहीं पर ऐसा लगता है कि उनमें राजनीति के विषय में इतना सबकुछ लिखा गया होगा जितना कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है। मूलतः कौटिल्य का अर्थशास्त्र केवल आर्थिक विषय पर ही नहीं बल्कि राजधर्म की भी स्पष्ट व्याख्या करता है। पूरे विश्व में आज एक ऐसे प्रकार का लोकतंत्र है जो चुनावों पर आधारित है। भारत में पुराने समय में यह प्रथा नहीं थी जिसका आज पालन किया गया जा रहा है। यह प्रणाली बुरी नहीं है पर ऐसा लगता है कि इससे जहां आम लोगों को राजनीति में आने का अवसर मिला वहीं है ऐसे लोगों भी राजनीति करने लगे हैं जो केवल पद पाकर उसकी सुविधाओं का उपयोग करने तथा समाज में प्रतिष्ठित रहने के लिये प्रयत्नशील रहते हैं। इसके अलावा विश्व के समस्त देशों में-ऐसे देश भी जहां तानाशाही या राजशाही हो-व्यवस्था में नौकरशाही की एक स्वचालित मशीनरी का निर्माण किया गया है।
ऐसे में राजनीति के माध्यम से उच्च पदों पर रहने वाले लोगों के लिये करने को कुछ नहीं रहता। सभी को राजनीति विषय का ज्ञान हो यह जरूरी नहीं है और अगर किसी ने पढ़ा हो तो उसे धारण करता हो यह भी आवश्यक नहीं है। ऐसे में राजनीति के सिद्धांतों के अनुरूप कितने चलते हैं यह अलग चर्चा का विषय है। अलबत्ता ऐसे में अब यह दिखने लगा है कि पूरे विश्व में पूंजीपतियों, बाहूबलियों तथा प्रतिष्ठित लोगों का अनेक देशों की सरकारों पर प्रभाव हो गया है यही कारण है कि अनेक देश असंतोष की आग में झुलस रहे हैं। इसके लिये जिम्मेदार सामान्य लोग भी कम नहीं है क्योंकि न वह स्वयं राजनीति के विषय का अध्ययन करते हैं न बच्चों को कराते हैं। यही कारण है कि जहां कुछ शुद्ध विचार से लोग राजनीति में आते हैं उससे अधिक तो संख्या उन लोगों की है जो इसे उपभोग के लिये अपनाते हैं।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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आयुक्तकेभ्यश्चौरेभ्यः परेभ्यो राजवल्भात्ै
पृवितवीपतिलोभाच्व प्रजानां पंवधा भयम्।।
‘‘राज कर्मचारी, चोर, शत्रु, राजा के प्रियजनों और लोभी राजा इन पांचों से जनता को हमेशा भय रहता है।’’
आस्रावयेदुपचितान् साधु दुष्टत्रणनिव।
आमुक्तास्ते च वतेंरन् वाह्य् महीपती।।
‘‘दुष्टव्रणों या कांटों के समान धन से पके हुए समृद्ध दुष्ट लोगों को राज्य निचोड़ ले तो ठीक है अन्यथा वह आग के समान राज्य में अपने व्यवहार का प्रदर्शन करते हैं।
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आयुक्तकेभ्यश्चौरेभ्यः परेभ्यो राजवल्भात्ै
पृवितवीपतिलोभाच्व प्रजानां पंवधा भयम्।।
‘‘राज कर्मचारी, चोर, शत्रु, राजा के प्रियजनों और लोभी राजा इन पांचों से जनता को हमेशा भय रहता है।’’
आस्रावयेदुपचितान् साधु दुष्टत्रणनिव।
आमुक्तास्ते च वतेंरन् वाह्य् महीपती।।
‘‘दुष्टव्रणों या कांटों के समान धन से पके हुए समृद्ध दुष्ट लोगों को राज्य निचोड़ ले तो ठीक है अन्यथा वह आग के समान राज्य में अपने व्यवहार का प्रदर्शन करते हैं।
अगर देखा जाये तो राजनीति का कार्य ही राजस भाव से किया जाता है। उसमें सात्विकता या निष्कर्मता को बोध तो रह ही नहीं जाता। भारत में कौटिल्य का अर्थशास्त्र चर्चित बहुत है पर इसे पढ़ते कम ही लोग हैं। राजधर्म का सबसे बड़ा कर्तव्य है समाज, धर्म, व्यापार तथा अपने अनुचरों की रक्षा करना। जिन नये लोगों को राजनीति में आना है उन्हें यह समझना चाहिए कि जिस तरह जल में बड़ी मछली हमेशा ही छोटी मछली का शिकार करती है वैसे ही समाज में शक्तिशाली वर्ग हमेशा ही कमजोर वर्ग को कुचला रहता है। यहीं से राजधर्म निभाने वालों की भूमिका प्रारंभ होती है। प्रजा को हमेशा ही राज्य के लिये काम करने वालों कर्मचारियों, अपराधियों, शत्रुओं और राज्य प्रमुख के करीबी लोगों से भय रहता है। जो राज्य प्रमुख जनता को भयमुक्त रखता है वही श्रेष्ठ कहलाता है। जो अपने कर्तव्य को निर्वाह नहीं करता उसकी निंदा होती है। इसलिये राजधर्म का अध्ययन करने के बाद ही राजनीति में कदम रखना चाहिए।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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