अगर हम शिक्षा या अध्यात्मिक ज्ञान से संबंधित किताबें पढ़कर यह सोचें कि कोई भारी ज्ञानी बन गये हैं तो यह हमारी ही मूर्खता का प्रमाण होता है। उसी तरह जब कोई कथित ज्ञानी इन्हीं किताबों से रटा रटाया ज्ञान हमारे सामने उसे बघारता है तो समझ लेना भी मूर्खता है कि वह कोई भारी ज्ञानी है। इसके अलावा अगर कोई तोता रटंत कथित ज्ञानी के पास ढेर सारे शिष्य हैं तो उसे भी कोई भारी सिद्ध नहीं समझ लेना चाहिए क्योंकि अपने नीरस जीवन से उकताये लोग लोग थोड़ा ज्ञान की बातें सुनकर प्रभावित हो जाते हैं पर आचरण कोई नहीं देखता। ज्ञान का प्रमाण तो व्यक्ति का आचरण है। ज्ञानी उसकी अनुभूति दूसरों को कराते हैं कि अपनी प्रशंसा करते हुए सुनाते हुए हैं। कोई भी ज्ञानी यह दावा नहीं कर सकता कि वह सिद्ध है क्योंकि वह जानता है कि ज्ञान की सीमा भी परमात्मा के रूप की तरह अनंत है।
इस विषय पर भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि
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यदा किंचिज्ज्ञोऽहं द्विप मदान्धः समभवम्
तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवहनश्प्तं मम मनः।
यदाकिंचत्किंचिद् बुधजनसकाशादवगतम्
तदामूर्खोऽस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः।।
‘‘जब मुझे कुछ ज्ञान हुआ तो हाथी की तरह मस्त होकर अपने ज्ञानी होने का अहंकार पालने लगा। मुझे लगा कि मैं ‘सर्वज्ञ’ हूं। लेकिन जब विद्वानों के बीच बैठा तो यथार्थ का ज्ञान हुआ और मेरा मद कम हो गया है। तब लगा कि मैं तो निपट मूर्ख हूं।’’
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यदा किंचिज्ज्ञोऽहं द्विप मदान्धः समभवम्
तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवहनश्प्तं मम मनः।
यदाकिंचत्किंचिद् बुधजनसकाशादवगतम्
तदामूर्खोऽस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः।।
‘‘जब मुझे कुछ ज्ञान हुआ तो हाथी की तरह मस्त होकर अपने ज्ञानी होने का अहंकार पालने लगा। मुझे लगा कि मैं ‘सर्वज्ञ’ हूं। लेकिन जब विद्वानों के बीच बैठा तो यथार्थ का ज्ञान हुआ और मेरा मद कम हो गया है। तब लगा कि मैं तो निपट मूर्ख हूं।’’
श्रीमद्भागवत गीता में ज्ञान का प्रमाण मनुष्य का ‘स्थिरप्रज्ञ’ होना है। जो माने अपमान से परे हो, समदर्शी हो तथा निष्काम भाव से कार्य करने के साथ निष्प्रयोजन दया करने वाला हो। ऐसे में कोई ज्ञानी है या नहीं या उसके आचरण से तय करना चाहिए। उसी तरह अपने ज्ञानी होने का भ्रम तो कभी पालना ही नहीं चाहिए क्योंकि तब हम कोई नई बात नहीं सीख सकते।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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