मनुष्य में अहंकार का भाव हमेशा ही रहता है। इस देह को ही सत्य समझने वाले लोग मान और अपमान की परवाह चिंता में मरे जाते हैं। खासतौर से गृहस्थ जीवन में सामाजिक परंपराओं के निर्वाह अपने जातीय, धार्मिक, भाषाई तथा क्षेत्रीय समूहों के लोगों में सम्मान पाने के लिये किया जाता है। शादी और गमी के अवसर पर भोजन खिलाने की परंपरा इसी सम्मान पाने का मोह पालने का ही परिणाम है। जब हमारा अध्यात्मिक दर्शन कहता है कि यह देह नश्वर है और उसमें विराजमान आत्मा अजन्मा होने के साथ अमर है, तब हमारे कथित धर्म प्रेमी लोग देह के जन्म लेने और मरने के बाद भी इसे लेकर जो नाटक करते हैं उसे अज्ञान ही कहा जा सकता है न कि धर्म का प्रमाण। हमारे भारतीय धर्म में जन्म और मरण के दिनों को मनाने की परंपरा नहीं है पर विदेशी दर्शनों के आधार पर अब जन्म दिन और पुण्यतिथि मनाने का फैशन चल पड़ा है। मतलब यह कि समाज में सम्मान पाने के मोह से उपजी परंपराओं की संख्या कम तो नहीं हुई बल्कि बढ़ती जा रही है। अपने तथा परिवार के सम्मान के लिये आदमी अपना पूरा जीवन दाव पर लगा देता है।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं
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दुनिया के धोखे मुआ, चल कुटुंब की कानि
तब कुल की क्या लाज है, जब ले धरा पसानि
"यह दुनियां एक धोखा है जिसमें आदमी केवल अपने परिवार के पालन पोषण के लिये हर समय जुटा रहता है। वह इस बात का विचार नहीं करता कि जब उसका शरीर निर्जीव होकर इस धरती पर पड़ा रहेगा तब उसके कुल शान का क्या होगा?"
कुल करनी के कारनै, हंसा गया बिगोय
तब कुल काको लाजि, चारि पांव का होय
"अपने परिवार की मर्यादा के लिये आदमी ने अपने आपको बिगाड़ लिया वरना वह तो हंस था। उस कुल की मर्यादा का तब क्या होगा जब परमार्थ और सत्संग के बिना जब भविष्य में उसे पशु बनना पड़ेगा।"
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दुनिया के धोखे मुआ, चल कुटुंब की कानि
तब कुल की क्या लाज है, जब ले धरा पसानि
"यह दुनियां एक धोखा है जिसमें आदमी केवल अपने परिवार के पालन पोषण के लिये हर समय जुटा रहता है। वह इस बात का विचार नहीं करता कि जब उसका शरीर निर्जीव होकर इस धरती पर पड़ा रहेगा तब उसके कुल शान का क्या होगा?"
कुल करनी के कारनै, हंसा गया बिगोय
तब कुल काको लाजि, चारि पांव का होय
"अपने परिवार की मर्यादा के लिये आदमी ने अपने आपको बिगाड़ लिया वरना वह तो हंस था। उस कुल की मर्यादा का तब क्या होगा जब परमार्थ और सत्संग के बिना जब भविष्य में उसे पशु बनना पड़ेगा।"
दरअसल समाज के खुश करने के लिये दिखावा करने के लिये कार्यक्रम करने पर पैसा खर्च होता है जिसके संचय करने की भावना मनुष्य को पथभ्रष्ट कर देती है। फिर जिसके पास पैसा आ गया वह अपने वैभव का प्रदर्शन करने के लिये अपने कार्यक्रमों पर ढेर सारा खर्च करते हैं। उनको लगता है कि लोग ऐसा प्रदर्शन याद रखेंगे जोकि भ्रम ही है। उनकी देखा देखी दूसरे धनपति उनसे अधिक धन खर्च करते हुए उनके कथित एतिहासिक प्रदर्शन पर अपना पानी चढ़ा देते हैं।
कहने का अभिप्राय यह है कि संसार में माया के खेल में आदमी इस तरह उलझा रहता है कि उसे भक्ति और अध्यात्मिक ज्ञान संग्रह का अवसर ही नहीं मिल पाता। सृष्टि में अन्य जीवों से श्रेष्ठ माना जाने वाला मनुष्य पशुओं की तरह अपना तथा परिवार पेट पालने के साथ ही सम्मान को मोह मन में रखते हुए नष्ट कर देता है।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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