सम्मान पाने की चाह हर मनुष्य में होती है पर परोपकार करने का भाव तो विरले ही लोगों के होता है। सच तो यह है कि हृदय से ईश्वर भक्ति करने वाले ही परोपकार का काम करते हैं पर मान पाने का विचार तक नहीं करते। इसके विपरीत अपने स्वार्थ पूर्ति में ही जीवन गुज़ारने वाले कुछ लोग अपने मुंह से ही अपनी प्रशंसा करते हैं। अपनी व्यक्तिगत उपलब्धियों का बिना पूछे ही गुणगान करने लगते हैं भले ही उससे कोई दूसरा प्रभावित नहीं होता। एक बात निश्चित है कि अपनी प्रशंसा स्वयं तो कदापि नहीं करना चाहिए और कोई अन्य व्यक्ति करता है तो समझ लीजिए उसने ऐसा कोई काम नहीं किया जिसकी सराहना दूसरे लोग करें।
नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि
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पर-प्रोक्तगुणो वस्तु निर्गृणऽपि गुणी भवेत्।
इन्द्रोऽ लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गृणैः।।
"चाहे कोई मनुष्य कम ज्ञानी हो पर अगर दूसरे उसके गुणों की प्रशंसा करते हैं तो वह गुणवान माना जायेगा किन्तु जो पूर्ण ज्ञानी है और स्वयं अपना गुणगान करता है तो भी वह प्रशंसनीय नहीं माना जा सकता चाहे भले ही स्वयं देवराज इंद्र हो।"
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पर-प्रोक्तगुणो वस्तु निर्गृणऽपि गुणी भवेत्।
इन्द्रोऽ लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गृणैः।।
"चाहे कोई मनुष्य कम ज्ञानी हो पर अगर दूसरे उसके गुणों की प्रशंसा करते हैं तो वह गुणवान माना जायेगा किन्तु जो पूर्ण ज्ञानी है और स्वयं अपना गुणगान करता है तो भी वह प्रशंसनीय नहीं माना जा सकता चाहे भले ही स्वयं देवराज इंद्र हो।"
अपने मुंह से अपनी प्रशंसा करने की बजाय बेहतर यह है कि हम स्वयं भी कोई अच्छा काम करें। जिंदगी के फुरसत के क्षणों अध्यात्मिक ज्ञान संग्रह तथा परमार्थ में लगायें। अपनी स्वार्थपूर्ति के लिये जीवन गुजारना सहज तो है पर कहीं न कहीं आत्मिक शांति का अभाव सभी को खलता है। वह तभी संभव है जब परमार्थ करने के साथ ही ईश्वर की भक्ति की जाये।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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