परमं यत्नमतिष्ठेत्सतेनानां निग्रहे नृपः
सोनानां निग्रहाददस्ययशो राष्ट्रं च वर्धते।
हिन्दी में भावार्थ-चोरों को पकड़ने के लिये राजा या राज्यप्रमुख को पूरी तरह से कोशिश करना चाहिए। अगर वह ऐसा करता है तो राष्ट्र विकास करता है और प्रजा प्रसन्न होती है।
सोनानां निग्रहाददस्ययशो राष्ट्रं च वर्धते।
हिन्दी में भावार्थ-चोरों को पकड़ने के लिये राजा या राज्यप्रमुख को पूरी तरह से कोशिश करना चाहिए। अगर वह ऐसा करता है तो राष्ट्र विकास करता है और प्रजा प्रसन्न होती है।
सर्वतो धर्मः षड्भागो राज्ञो भवति रक्षतः।
अधर्मादपि षड्भागो भवत्यस्य हयऽरक्षतः।।
हिन्दी में भावार्थ-जो राजा या राज्य प्रमुख चोरों से अपनी प्रजा की रक्षा करता उसे समग्र प्रजा के पुण्य का उठा भाग प्राप्त होता है और जो ऐसा नहीं करता उसे प्रजा के पापों का छठा भाग दंड के रूप में प्राप्त होता है।
अधर्मादपि षड्भागो भवत्यस्य हयऽरक्षतः।।
हिन्दी में भावार्थ-जो राजा या राज्य प्रमुख चोरों से अपनी प्रजा की रक्षा करता उसे समग्र प्रजा के पुण्य का उठा भाग प्राप्त होता है और जो ऐसा नहीं करता उसे प्रजा के पापों का छठा भाग दंड के रूप में प्राप्त होता है।
वर्तमान संदर्भ में सम्पादकीय व्याख्या-राजा और राज्य प्रमुख के कर्तव्यों का मनुस्मृति में व्यापक रूप से वर्णन किया गया है। राजा या राज्य प्रमुख के दायित्वों का निर्वहन एक धर्म के पालन की तरह होता है। जब कोई मनुष्य राजा या राज्य प्रमुख के पद पर प्रतिष्ठित होता है तब उसे राज्य धर्म का पालन करते हुए अपने प्रजाजनों की चोरों, अपराधियों तथा बेईमानों से रक्षा करना चाहिए। मज़ेदार बात यह है कि मनृस्मृति के जाति तथा स्त्री संबंधी अनेक संदेशों को समझ के अभाव में बुद्धिमान लोग अनर्थ के रूप में लेते हैं। आज के अनेक पश्चिमी शिक्षा से अभिप्रेरित विद्वान तथा वहीं की विचाराधारा के अनुगामी बुद्धिजीवी इन्हीं संदेशों के कारण पूरी मनृस्मुति को ही अपठनीय मानते हैं। निश्चित रूप से ऐसे बुद्धिजीवी सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक शिखर पुरुषों से प्रायोजित और संरक्षित हैं। आज के हमारे शिखर पुरुष कैसें हैं यह सभी जानते हैं। भारतीय अध्यात्म तथा दर्शन में वर्णित पाप पुण्य को अंधविश्वास इसलिये नहीं कहा जाता है कि हमारे बुद्धिजीवी कोई प्रशिक्षित ज्ञानी हैं बल्कि वह मनुस्मृति के अध्ययन से विरक्त होकर शुतुरमुर्ग की तरह अपने मन में मौजूद अपराध भावना से स्वयं छिपकर ऐसी ही सुविधा अपने आकाओं को भी देते हैं। जो राजा या राज्य प्रमुख अपनी प्रजा की चोरों, अपरािधयों तथा बेईमानों से रक्षा नहीं करता वह पाप का भागी बनता है, मगर मनु महाराज ने कभी यह सोचा भी नहीं था कि इस भारतवर्ष जैसी देवभूमि पर ही राज्य से संबंधित कुछ लोग असामाजिक, अपराधी तथा भ्रष्ट तत्वों से अपनी जनता की रक्षा बजाय उनको ही संरक्षण देकर महापाप करेंगे। जब कोई मनुस्मृति के संदेशों का विरोध करता है तो वह यकीनन ऐसे राज्य का समर्थन कर रहा है जो प्रजा की रक्षा ऐसे दुष्ट तत्वों से बचाने में नाकाम रहता है। स्पष्टतः आज के अनेक प्रसिद्ध बुद्धिजीवी इसलिये ही संदेह के दायरे में आते हैं क्योंकि वह किसी न किसी ऐसे व्यक्ति का समर्थन करते हैं जो राज्य धर्म का पालन नहीं करता।
ऐसा लगता है कि असामाजिक, अराजक, चोरी कर्म तथा अन्य अपराध के कार्यों और उनको संरक्षण देने में लगे लोग पाप पुण्य की स्थापित विचारधारा की चर्चा से अपने को दूर रखना चाहते हैं इसलिये ही वह भारतीय अध्यात्म की चर्चा सार्वजनिक होने से घबड़ाते हैं ताकि कहीं उनका मन सुविचारों की गिरफ्त में न आ जाये। वह अपने ही कुविचारों में सत्य पक्ष ढूंढते हैं। उनका नारा है कि ‘आजकल की दुनियां में चालाकी के बिना काम नहीं चलता।’ अपने पाप को चालाकी कहने से उनका मन संतुष्ट होता है और सामने सत्य कहने वाला कोई होता नहीं है और लिख तो कोई नहीं सकता क्योंकि प्रचार कर्म से जुड़े लोग उनके धन से प्रायोजित है। यही कारण है कि राम राज्य की बात करने वाले बहुत हैं पर वह आता इसलिये नहीं क्योंकि वह एक नारा भर है न कि एक दर्शन।
-----------------------------------------संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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