इहु धनु करते का खेल है कदे आवै कदे जाइ।
गिआनी का धनु नामु है सद ही रहे समाइ।।
हिन्दी में भावार्थ-श्री गुरुग्रंथ साहिब के अनुसार सांसरिक धन तो ईश्वर का खेल। कभी किसी आदमी के पास आता है तो चला भी जाता है। ज्ञानी का धन तो प्रभु का नाम है जो हमेशा उसके हृदय में बना रहता है।
गिआनी का धनु नामु है सद ही रहे समाइ।।
हिन्दी में भावार्थ-श्री गुरुग्रंथ साहिब के अनुसार सांसरिक धन तो ईश्वर का खेल। कभी किसी आदमी के पास आता है तो चला भी जाता है। ज्ञानी का धन तो प्रभु का नाम है जो हमेशा उसके हृदय में बना रहता है।
दारा मीत पूत सनबंधी सगर धन सिउ लागै।
जब ही निरधन देखिउ नर कउ संगि छाडि सभ भागै।
हिन्दी में भावार्थ-श्री गुरु ग्रंथ सहिब के अनुसार पत्नी, मित्र, पुत्र और संबंधी तो धन के कारण ही साथ लगे रहते हैं। जिस दिन आदमी निर्धन हो जाता है उस दिन सब छोड़ जाते हैं।
जब ही निरधन देखिउ नर कउ संगि छाडि सभ भागै।
हिन्दी में भावार्थ-श्री गुरु ग्रंथ सहिब के अनुसार पत्नी, मित्र, पुत्र और संबंधी तो धन के कारण ही साथ लगे रहते हैं। जिस दिन आदमी निर्धन हो जाता है उस दिन सब छोड़ जाते हैं।
धन जीबन का गरबु न कीजै कागद जिउ गलि जाहिगा।
हिन्दी में भावार्थ-किसी भी मनुष्य को अपने जीवन और धन पर गर्व नहीं करना चाहिऐ। यह दोनों कागज की तरह है चाहे जब गल जायें।
हिन्दी में भावार्थ-किसी भी मनुष्य को अपने जीवन और धन पर गर्व नहीं करना चाहिऐ। यह दोनों कागज की तरह है चाहे जब गल जायें।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य जीवन की यह विचित्र माया है कि उसकी अनुभूति में धन दुनियां का सबसे बड़ा सत्य है जबकि उससे बड़ा कोई भ्रम नहीं है। आधुनिक योग में सारे देशों की मुद्रा कागज की बनी हुई है और केवल राज्य के विश्वास पर ही वह धन मानी जाती है। मजे की बात यह है कि अनेक लोगों के पास तो वह भी हाथ में न रहकर बैंकों के खातों में आंकड़ों के रूप में स्थापित होती है। अनेक लोगों के खातों में दर्ज आंकड़ें तो इतने होते हैं कि वह स्वयं सौ जीवन धारण कर भी उनको खर्च नहीं कर सकते मगर फिर भी इस कागजी और आंकड़ा रूपी धन के पीछे अपना पूरा जीवन नष्ट कर देते हैं।
हम अपने जिस शरीर के बाह्य रूप को मांस से चमकता देखते हैं अंदर वह भी कीचड़ से सना रहता है। धीरे धीरे क्षय की तरफ बढ़ता जाता है। धन या देह न रहने पर अपने सभी त्याग देते हैं तब भी मनुष्य दोनों के लेकर भ्रम पालता है। उससे भी ज्यादा बुरा तो यह भ्रम हैं कि हमारे लोग हमेशा ही निस्वार्थ भाव से हमारे साथ हैं। हर आदमी स्वार्थ के कारण ही दूसरे से जुड़ा है। अलबत्ता कुछ परम ज्ञानी तथा ध्यानी महापुरुष संसार और समाज के हित के लिए निष्काम भाव से कर्म करते हैं पर वह भी इसके फल में लिप्त नहीं होते बल्कि उनका फल तो परमात्मा की भक्ति पाना ही होते। वह जानते हैं कि कागज का धन आज हाथ में आया है कल चला जायेगा। यह केवल जीवन निर्वाह का साधन न न कि फल।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग----------------------
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sundar ,sateek !
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