हमारे देश में कहीं भी चले जायें जहां चार लोग मिल
बैठेंगे वहां अपने अध्यात्म ज्ञान का बखान जरूर करेंगे। अगर हम इन चर्चाओं
को देखें तो लगेगा कि इस देश में भ्रष्टाचार, बेकारी, भुखमरी जैसी समस्याओं
के साथ ही समाज को नष्ट करने वाली पुरानी रूढ़िवादिता का अस्तित्व दिखना
ही नहीं चाहिए। ऐसा हो नहीं रहा है। यहां तक कि पाश्चात्य शिक्षा पद्धति
का अनुसरण भी इसलिये किया गया ताकि हमारा समाज विश्व के अन्य देशों की
बराबर कर सके। हो इसका उल्टा रहा है। पाश्चात्य प्रणाली पर आधारित शिक्षा
में नैतिक ज्ञान का अभाव है और इस कारण अधिक शिक्षित आदमी एक तरह से न तो
घर का रह जाता है न घाट का! इसके विपरीत अशिक्षित तथा अल्प शिक्षित कम से
कम अपने अध्यात्म दर्शन से तो जुड़े रहने का पाखंड तो कर ही लेते हैं। जहां
तक ज्ञान और उसके अनुसरण का प्रश्न है तो समाज की स्थिति देखकर नहीं लगता
कि हमारा नैतिक स्तर कोई ऊंचा है। भ्रष्टाचार के विषय में हमारा देश अग्रणी
देशों में गिना जाता है।
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यह ब्लाग/पत्रिका विश्व में आठवीं वरीयता प्राप्त ब्लाग पत्रिका ‘अनंत शब्दयोग’ का सहयोगी ब्लाग/पत्रिका है। ‘अनंत शब्दयोग’ को यह वरीयता 12 जुलाई 2009 को प्राप्त हुई थी। किसी हिंदी ब्लाग को इतनी गौरवपूर्ण उपलब्धि पहली बार मिली थी।
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विदुर नीति में कहा गया है कि
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असभ्यगपयुक्तं हि ज्ञानं सुकुशलैरपि।
उपलभ्यं चाविदितं विदितं चाननुष्ठिम्।।
‘‘विद्वान चाहे कितना भी प्रतिष्ठित क्यों न हो यदि उससे कर्तव्य का ज्ञान नहीं हुआ अथवा उस ज्ञान से उचित अनुष्ठान नहीं हुआ तो वह व्यर्थ ही है।
नष्टं समुद्रे पतितं नष्टं वाक्यमश्रृ्ण्वति।
अनामास्मनि श्रृतं नष्ट नष्ट हुतमनाग्निकम्।।
‘‘समुद्र में गिरी हुई कोई भी वस्तु नष्ट हो जाती है उसी तरह जो सुनता नहीं है उससे कही हुई बात भी नष्ट हो जाती है। अजितेंद्रिय पुरुष का शास्त्र ज्ञान और राख में किया हुआ हवन भी नष्ट हो जाता है।
अगर एक राष्ट्र के रूप में चिंत्तन करें तो भले ही विश्व में हमारे देश को
अध्यात्मिक गुरु माना जाता है पर जिस ज्ञान के आधार पर यह छवि बनी है उसके
अनुरूप हमारे अनुष्ठान नहीं है। देश में जगह जगह धार्मिक कार्यक्रम और
प्रवचन होते हैं। वहां आने वाले असंख्य लोगों को देखें तो पूरा देश ही
धर्ममय लगता है पर जब अखबार या टीवी चैनल देखते हैं तो लगता है कि इतना
अधर्म शायद ही विश्व में कहीं अन्यत्र होता हो। अपने अध्यात्मिक ज्ञान पर
गर्व करने वाले अनेक महानुभाव मिल जायेंगे पर उसका अनुसरण करने वालों की
संख्या नगण्य है। एक तरह से हम अपने महापुरुषों से प्राप्त ज्ञान को नष्ट
करने में लगे हैं। सच बात तो यह है कि जब तक हमारा नैतिक और अध्यात्मिक
स्तर नीचे हैं हमारे यज्ञ, हवन तथा अन्य धार्मिक कर्मकांड व्यर्थ है।--------------
असभ्यगपयुक्तं हि ज्ञानं सुकुशलैरपि।
उपलभ्यं चाविदितं विदितं चाननुष्ठिम्।।
‘‘विद्वान चाहे कितना भी प्रतिष्ठित क्यों न हो यदि उससे कर्तव्य का ज्ञान नहीं हुआ अथवा उस ज्ञान से उचित अनुष्ठान नहीं हुआ तो वह व्यर्थ ही है।
नष्टं समुद्रे पतितं नष्टं वाक्यमश्रृ्ण्वति।
अनामास्मनि श्रृतं नष्ट नष्ट हुतमनाग्निकम्।।
‘‘समुद्र में गिरी हुई कोई भी वस्तु नष्ट हो जाती है उसी तरह जो सुनता नहीं है उससे कही हुई बात भी नष्ट हो जाती है। अजितेंद्रिय पुरुष का शास्त्र ज्ञान और राख में किया हुआ हवन भी नष्ट हो जाता है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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