सब्दि मरै भगति पाए जन सोइ।।
हिंदी में भावार्थ-श्री गुरु ग्रंथ साहिब वाणी के अनुसार नाचने और कूदने से भक्ति नहीं होती। गुरु के शब्द अनुसार ही चलने वाला व्यक्ति ही भक्ति को प्राप्त होता है।
मूत पलीती कपड़ु होइ। दे साबुण लइअै उहु धोइ।।
भरीअै मति पापा के संगि। उहु धोपैं नावे कै रंगि।।
हिंदी में भावार्थ-मल मूत्र से मलिन वस्त्र साबुन से साफ हो जाते हैं पर जो मन में विकारों की गंदगी है उन्हें तो ईश्वर का नाम स्मरण कर ही धोया जा सकता है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-भक्ति का भाव किसी को दिखाना संभव नहीं है। जब हम सभी को दिखाने के लिये नाचते कूदते हुए भगवान का नाम लेते हैं तो इसका आशय यह है कि हमारे हृदय में भगवान नहीं बल्कि वह लोग स्थित हैं जिनको हम प्रभावित करने का प्रयास करते हैं। नाम जुबान पर भगवान का होता है पर हृदय में यह भाव होता है कि लोग हमें भक्त समझकर सम्मान दें। इस तरह का ढोंग या पाखंड करने वाले कहीं भी देखे जा सकते हैं। अनेक धार्मिक कार्यक्रमों में संत गीत गाते हैं और उनके भक्त जोर जोर से गाते हुए नाच कर ऐसा दिखाते हैं गोया कि वह भक्ति में लीन हों। यह एक तरह से दिखावा है।
सच तो यह है कि जब आदमी भक्ति के चरम पर होता है उस समय उसका अपने अंगों पर से नियंत्रण समाप्त हो जाता है और वह कहीं मूर्तिमान होकर बैठा रहता है। उसके हाथ कहीं फैले रहते हैं तो सिर कहीं लटका होता है। वैसे भी भक्ति एकांत में की जाने वाली साधना है। भीड़ में तो केवल दिखावा ही हो सकता है।
तन और उस पर पहने जाने वाले कपड़े तो साबुन से साफ हो जाते हैं पर मन के मैले कुचले विचारों का ध्यान, योग साधना तथा हृदय से भगवान का नाम स्मरण किये बिना शुद्ध होना संभव नहीं है। कुछ लोग कहते हैं कि हम तो अपना कर्म ही धर्म समझते हैं पर अपनी आजीविका के लिये कर्म तो सभी जीव करते हैं। मनुष्य यौनि में ही यह सौभाग्य प्राप्त होता है कि हम भगवान का नाम स्मरण कर सकें। इसलिये यह जरूरी है कि हम अपने मन की शांति के लिये नित्य कुछ समय प्राणायम और भक्ति के लिये निकालें।
..................................
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
1 comment:
जब भक्त भावविभोर हो जाता है तो वह नृत्य करने लगता है। कीर्तन और नृत्य भक्ति का अभिन्न अंग हैं। भक्ति की भी अवस्थाएं और प्रकार हैं। कोई भी भक्त एकबार में भक्ति के चरम स्तर पर नहीं पहुँच जाता, इसमें भी उन्नति के सोपान हैं। पहली कक्षा में ही स्नातक की डिग्री नही मिल जाया करती। देह से नियंत्रण खो जाना भक्ति की मूर्छा अवस्था है और वो अत्यन्त उच्च अवस्था कही जाती है। हमारे शास्त्रों में भक्त के स्वभाव अनुसार भक्ति का तरीका चुनने की स्वतंत्रता है। किसी को भगवान् की माधुर्य भक्ति रुचिकर है तो किसी को गंभीर। श्री गुरु ग्रन्थ साहिब में भी प्रेम में दीवाने होकर नर्तन करने वाले भक्तो व संतो की वाणियाँ संकलित हैं। मन और तन को एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता बिल्कुल वैसे ही जैसे संगीत और नृत्य को एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। क्या संगीत के बिना श्री गुरु ग्रन्थ साहिब की कल्पना की जा सकती है? और फिर अगर कोई भक्ति में दिखावा कर रहा है तो उसे उसी अनुपात में आनंद और कृपा प्राप्त होगी।
Post a Comment