उपानंमुखभंगो वा दूरतो वा विसर्जनम्।।
हिंदी में भावार्थ-दुर्जन और कांटो को अपने से दूर करने का उनका मूंह कुचन दें अथवा उनसे दूर होकर उनका त्याग करें।
पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जनमन्नं सुभाषितम्।
मूढ़ैः पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते।।
हिंदी में भावार्थ-इस प्रथ्वी पर तीन ही रत्न हैं, जल, अन्न और मधुर वचन किन्तु मूर्ख लोग इनका महत्व न समझते हुए पत्थर के टुकड़ों को ही रत्न कहते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आजकल की सभ्यता भिन्न हैं। फिर पूरी दुनियां में इस तरह के कानून बने गये हैं कि बेईमान, अधर्मी, कुकर्मी तथा अन्य निंदक गतिविधियों में शामिल लोगों को सजा राज्य द्वारा नियुक्त न्यायाधीश ही दे सकते हैं इसलिये दुर्जन लोगों को स्वयं दंड देना ठीक नहीं है। अतः बेहतर यह है कि जिसका व्यवहार खराब हो या आचरण अनैतिक हो ऐसे दुष्ट व्यक्ति से परे ही रहें। याद रखें कि तात्कालिक लाभ के लिये कभी दुर्जन की संगत अच्छी लग सकती है पर कालांतर में उसके परिणाम बुरे होते हैं।
ऐसे दुष्ट लोग न केवल क्रूर बल्कि मूर्ख भी होते हैं, इसलिये इस धरती पर विद्यमान तीन रत्नों-जल, अन्न तथा मधुर वचनों-की पहचान उनको नहीं होती और पत्थर के टुकड़ों को ही रत्न मानते हैं। इस विश्व मेें जीवन की धारा बहाने वाले दो रत्न जल और अन्न तो प्रकृत्ति द्वारा प्रदाय किये जाते हैं पर मधुर तथा प्रिय वचन मनुष्य को स्वयं ही बोलना चाहिए। धन और पत्थर को सोना मानकर अपना जीवन नष्ट करना ही है। दुष्ट और मूर्ख लोग अपना सारा ध्यान सपंत्ति के संग्रह की ओर लगाते हैं और वह इसके लिये दूसरों को प्रेरित भी करते हैं ताकि अपनी श्रेष्ठता साबित कर सके। उनकी बात को न मानकर जहां देर को तृप्त करने के लिये शुद्ध जल और अन्न मिले वहीं रहते हुए जितना मिले उससे संतुष्ट हो जाना चाहिये। इसके अलावा अपने मूंह से हमेशा पवित्र वचन बोलना चाहिये। यह तीन रत्न हैं जिनका उपभोग करना ही हमें जीवन भर संतोष दे सकता है।
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