माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि इवेन पड़ंत
कह कबीर गुरु ग्यान तैं एक आध उबरंत
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य के पतंगे के सामान मायारूपी दीपक के प्रति आकर्षित होकर भ्रम में पडा रहता है। कोई भाग्यशाली मनुष्य होता है जिसे योग्य गुरु का ज्ञान मिल जाता है और वह इससे उबर पाता है।
आज के संदर्भ में व्याख्या- आजकल तो माया का ऐसा विस्तार है कि बडे साधू-संत उसके चक्कर में पड़े हैं। लंबे चौड़े व्याख्यान देते हैं, किताबे बेचते हैं, दवाईया बेचते हैं और उससे कमाए धन से अपने पांच सितारा आश्रम बनाते हैं। माजी की बात यह है भारी संख्या में लोग उनसे ज्ञान लेने जाते हैं जो केवल माया के आसपास ही अपना ज्ञान देते हैं। वैसे ही आम आदमी स्वाभाविक रूप से भ्रमित रहता है ऐसे में यह ज्ञान के मूलतत्व से परे हैं। अपने प्रवचनों में ही अपनी दवाईयों का बखान करते हैं। तिस पर इलेक्ट्रोनिक माध्यमों की प्रबलता और चकाचौंध में वह अधिक भ्रमित हो जाता है। ऐसे में मुक्ति की चाहे में घूम रहा आदमी और भ्रम पाल लेता है।
ऐसे में मेरा विचार है कि लोगों को आजकल गुरु बनाने की बजाय अपने अध्यात्मिक ग्रंथों को ही अपना गुरु मान कर उनको पढ़ना चाहिऐ, क्योंकि शाश्वत सत्य और ज्ञान उन्हीं में भरा पडा है। आजकल के गुरु उसमें से केवल उतना ही ज्ञान लोगों को सुनाते हैं जिनसे उनका खुद का व्यवसाय चल सके।
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